Book Title: Ahimsa Mahavira ki Drushti me
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 10
________________ १४ अहिंसा : महावीर की दृष्टि में माघ का महीना हो, भयंकर सर्दी पड़ रही हो, माँ रसोई बना रही हो और उसका दो वर्ष का बालक चौके के बाहर रो रहा हो, माँ के पास जाना चाहता हो; पर माँ कहती है - “यदि मेरे पास चौके में आना हो तो कपड़े खोलकर आ, अन्यथा मेरा चौका अपवित्र हो जायेगा।" बच्चा यदि कपड़े खोलता है तो निमोनिया हो जाने का अंदेशा है और कपड़ा नहीं खोलता है तो माँ के पास जाना संभव नहीं है। आखिर बेचारा करे तो क्या करे? अन्त में होता यही है कि वह बालक चौके की सीमा-रेखा का बार-बार उसीप्रकार उल्लंघन करता है, चौके की सीमा पर बार-बार उसीप्रकार छेड़खानी करता है, जिसप्रकार पाकिस्तान काश्मीर की सीमा पर किया करता है। तथा जिसप्रकार भारत सरकार बार-बार कड़े विरोधपत्र भेजा करती है; उसीप्रकार वह धर्मात्मा माँ भी बार-बार धमकियाँ दिया करती है कि यदि कपड़े खोले बिना चौके की सीमा में प्रवेश किया तो जिन्दा जला दूंगी, जिन्दा । चूले में से जलती हुई लकड़ी निकालकर बच्चे को बार-बार दिखाती हुई धमकाती है, कहती है - "देख ! यदि कपड़े खोले बिना अन्दर पाँव भी रखा तो समझ ले कि जिन्दा जला दूंगी, जिन्दा ........ अब मैं आपसे ही पूछता हूँ कि यदि वह बच्चा पुलिस में जाकर रिपोर्ट लिखाये कि मेरी माँ मुझे जिन्दा जलाने की धमकी देती है तो क्या पुलिसवाले उस माँ को भी गिरफ्तार कर लेंगे? शायद यह आपको भी स्वीकृत न होगा। ___ भाई ! जो माँ अपने बच्चे को जिन्दा जलाना तो दूर, यदि स्वप्न में भी उसकी मात्र अंगुली जलती देख ले तो बेहोश हो जाये, वह माँ भी जब वाणी से इतनी हत्यारी हो सकती है तो फिर दूसरों की क्या कहना? अतः कानून तो ठीक ही है कि वह वाणी की इस हिंसा की उपेक्षा ही करता है; पर बात यह है कि भले ही सरकार न रोके, पर वाणी की हिंसा भी रुकनी तो चाहिए ही। हाँ, रुकनी चाहिए, अवश्य रुकनी चाहिए। काया की हिंसा को सरकार रोकती है तो वाणी की हिंसा को समाज रोकता है। कैसे? अहिंसा : महावीर की दृष्टि में १५ जो लोग वाणी का सदुपयोग करते हैं, समाज उनका सन्मान करता है और जो दुरुपयोग करते हैं, समाज उनका अपमान करता है; अपनी सज्जनता के खातिर अपमान न भी करे तो भी कम से कम सम्मान तो नहीं करता। आप सब बड़े-बड़े लोग नीचे बैठ गये हैं और मुझे यहाँ ऊपर गद्दी पर बिठा दिया है। क्यों, ऐसा क्यों किया आप सबने? इसीलिए न कि मैं आपको भगवान महावीर की अच्छी-अच्छी बातें बता रहा हूँ। यदि मैं अभी यहीं बैठा-बैठा स्पीकर पर ही आप सबको गालियाँ देने लगें तो क्या होगा? क्या आप मुझे इतने सन्मान से दुबारा बुलायेंगे? नहीं, कदापि नहीं। देखो! यह आपके अध्यक्ष महोदय क्या कह रहे हैं? ये कह रहे हैं कि आप दुबारा बुलाने की बात कर रहे हैं, अरे! अभी तो अभी की सोचो कि अभी क्या होगा? भाई! जो व्यक्ति अपनी वाणी का सदपयोग करता है. समाज उसका सम्मान करता है और जो दुरुपयोग करता है, उसकी उपेक्षा या अपमान । इसप्रकार सम्मान के लोभ से एवं उपेक्षा या अपमान के भय से हम बहतकुछ अपनी वाणी पर भी संयम रखते हैं; पर यदि मैं अभी यहीं बैठे-बैठे आप सबको मन में गालियाँ देने लगूं तो मेरा क्या कर लेंगे आप, क्या कर लेगी समाज और क्या कर लेगी सरकार? यही कारण है कि भगवान महावीर ने कहा कि न जहाँ सरकार का प्रवेश है और न जहाँ समाज की चलती है, धर्म का काम वहाँ से आरंभ होता है; अतः उन्होंने ठीक ही कहा है कि आत्मा में रागादि की उत्पत्ति ही हिंसा है और आत्मा में रागादि की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है - यही जिनागम का सार है। भगवान महावीर ने हिंसा-अहिंसा की परिभाषा में 'आत्मा' शब्द का प्रयोग क्यों किया है - यह बात तो स्पष्ट हई। ध्यान रहे- यहाँ समझाने के लिए आत्मा और मन को अभेद मानकर बात कही जा रही है। पहले हिंसा आत्मा अर्थात् मन में उत्पन्न होती है। यदि क्रोधादिरूप हिंसा मन में न समाये तो फिर वाणी में प्रकट होती है। यदि वाणी से भी काम न चले तो काया में प्रस्फुटित होती है। हिंसा की उत्पत्ति का यही क्रम है।

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