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संबुज्झमाणे उ नरे मइम,
पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा। हिंसप्पसूयाई दुहाई मत्ता,
___ वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ सम्यग्बोधप्राप्त बुद्धिमान मनुष्य हिंसा से उत्पन्न होने वाले वैरभाव तथा महाभयंकर दुःखों को जान कर अपने को हिंसा से बचाए ।
जे य बुद्धा अतिक्कता जे य बुद्धा अणागया।
संति तेसि पइट्ठाणं भूयाणं जगई जहा ॥ जिस प्रकार जीवों का आधार-स्थान पृथ्वी है, वैसे ही भूत और भावी ज्ञानियों के जीवदर्शन का आधार-स्थान शान्ति अर्थात् अहिंसा है। यानी तीर्थंकर जैसा उच्च पद भी अहिंसापालन की बदौलत ही मिलता है।
नहु पाणवहं अणुजाणे मुच्चेज्ज कयाई सव्वदुक्खाणं ।
प्राणवध का अनुमोदन (समर्थन) करने वाला पुरुष कदापि सर्वदुःखों से मुक्त नहीं हो सकता।
---उत्तराध्ययन ८1८ न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए।
----उत्तरा०६७ भय और वैर से निवृत्त हुए प्राणियों के प्राणों का घात न करे । एसा सा अहिंसा भगवई भीयाण विव सरणं, तसथावरसव्वभूयखेमकरी'
यह अहिंसा भगवती है, जो भयाकुल प्राणियों के लिए विशेष शरणदात्री है, त्रस-स्थावर सभी प्राणियों का कुशलक्षेम-मंगल करने वाली है। 'सव्वं जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सइ नो करेजा
-सूत्र कृ० १११०१७ भव्यात्मा को चाहिए कि वह समस्त अर्थात् सभी जीवों को समभाव से देखे । वह किसी को प्रिय और किसी को अप्रिय न बनाए।
तुमंसि नाम तं चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि। तुमंसि नाम तं चेव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि । तुमंसि नाम तं चेव जं परियावेयव्वं ति मन्नसि ।'
. -आचारांग० ११५१५ जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है, जिसे तू शासित करना चाहता है वह तू ही है, जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। यह अद्वैतभावना ही, अहिंसा का मूलाधार है।
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