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अहिंसा के प्रेरणा-सूत्र
‘एवं खु नाणिणो सारं जं न हिंसइ किंचण । अहिंसा समयं चेव एतावंतं वियाणिया ॥'
___--सूत्रकृताङ्गसूत्र १११।४।१० ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राण की हिंसा न करे । अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है । बस, इतनी बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए। 'वयं पुण एवमाइक्खामो, एवं भासामो, एवं परूवेनो, एवं पण्णवेमो, सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सवे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिघेतवा, न परियावयव्वा, न उद्दवेयव्वा । इत्थं विजाणह नत्थित्थ दोसो। आरियवयणमेयं ।'
-आचारांगसूत्र १।४।२ __ हम ऐसा कहते हैं, ऐसा बोलते हैं, ऐसी प्ररूपणा करते हैं, ऐसी प्रज्ञापना करते हैं कि-'किसी भी प्राणी, किसी भी भूत, किसी भी जीव और किसी भी सत्त्व को न मारना चाहिए, न उन पर अनुचित शासन करना चाहिए, न उनको गुलामों की तरह पराधीन बनाना चाहिए, न उन्हें परिताप देना चाहिए और न उनके प्रति किसी प्रकार का उपद्रव करना चाहिए । उक्त अहिंसाधर्म में किसी प्रकार का दोष नहीं है, यह ध्यान में रखिए । अहिंसा वस्तुत: आर्य (पवित्र) सिद्धान्त है।।
जगनिस्सिएहि भूएहि तसनामेहि थावरेहिं च । नो तेसिमारभे दंडं मणसा, वयसा कायसा चेव ॥
- उत्तराध्ययन अ० ८ गा० १० लोकाश्रित जो त्रस और स्थावर जीव हैं, उनके प्रति मन, वचन और कायाकिसी भी प्रकार से दंड का प्रयोग न करें।
सयं तिवायए पाणे, अदुवऽन्नेहि घायए॥ हणतं वाऽणजाणाइ, वरं वड़ढइ अप्पणो ॥
-सूत्रकृतांगसूत्र १११।११३ जो व्यक्ति प्राणियों की स्वयं हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है, इस प्रकार वह संसार में अपने लिए वैरभाव को ही बढ़ाता है। समया सव्वभूएसु, सत्तमित्तेसु वा जगे।
--उत्तराध्ययन सूत्र १६।२५ जगत् में शत्रु या मित्र सभी प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखना ही अहिंसा है।
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