Book Title: Ahimsa Darshan Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith AgraPage 10
________________ अहिंसा - दर्शन का अन्तरंग जब से इस धरातल पर मनुष्य नामक प्राणी विद्यमान है, जब से उसे हृदय और बुद्धि प्राप्त है, तभी से अहिंसा का पावन सिद्धान्त भी प्रचलित है । यथार्थरूप से यह कहना कठिन है कि अहिंसा की सर्वप्रथम कल्पना कब प्रादुर्भूत हुई थी । इतिहास इस विषय में मौन है। किन्तु यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि मानव के सर्वांगीण जीवन को सुखद, सरल, आनन्दमय एवं निश्चिन्ततापूर्वक बिताने के लिए ही अहिंसा का स्वीकार किया गया था । प्रारम्भ में थोड़े से सिद्धान्त स्थिर किये गए होंगे, लेकिन आगे चल कर पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन में कई नई-नई उलझनें पैदा हुई होंगी, कई नए संघर्ष भी उपस्थित हुए होंगे, और तब हिंसा-अहिंसा की मर्यादाएँ, उनका स्वरूप और विविध परिस्थितियों में विविध देश, काल और पात्र के अनुसार उनके विभिन्न प्रयोग भी सुनिश्चित किये गए होंगे। इस प्रकार अहिंसा की विचारधारा का उत्तरोत्तर विकास होता चला गया, जटिलतम प्रश्न भी अहिंसा के द्वारा सुलझाए जाने लगे और इसकी उपयोगिता एवं अनिवार्यता केवल व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं, पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में स्पष्टतः समझी जाने लगी । यही कारण है कि हिंसा - अहिंसा का स्वरूप एवं पथ इतना जटिल और दुर्गम-सा हो गया है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि अहिंसा को सिद्धान्त की ही वस्तु नहीं, वह व्यवहार की भी वस्तु है । चिरकाल से बड़े-बड़े साधकों ने अपने व्यावहारिक जीवन में अहिंसा की आराधना करके जगत् के सामने मूल्यवान आदर्श प्रस्तुत किए हैं । जगत में जितने भी धर्म हैं, वे सब एक या दूसरी तरह से अहिंसा की महत्ता का स्वीकार करते हैं । साम्यवादी देशों में, जहाँ कि धर्म को अफीम के समान माना जाता है, वहाँ भी राष्ट्र की जीवन-यात्रा को सुखद एवं सरल बनाने के लिए अहिंसा का स्वीकार किया जाता है । नीति और धर्म-सम्बन्धी जितने भी नियम, मर्यादाएँ परम्पराएँ, व्रत एवं तप आदि हैं, उन सब में अहिंसा का होना अनिवार्य माना गया है । राजनीति जैसे गंदे माने जाने वाले क्षेत्र में भी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी ने अहिंसा के विभिन्न प्रयोग करके उसे सफल बनाया था । अहिंसा के प्रयोग करने का जहाँ व्यक्तिगत रूप से शास्त्रों में विधान है, वहाँ सामूहिक रूप से भी अहिंसा - प्रयोग के बीज शास्त्रों में यत्र-तत्र उपलब्ध होते हैं । दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि अहिंसा केवल एक व्यक्ति के पालन की ही चीज नहीं है, और न उसका सुफल केवल एक व्यक्ति से अनुस्यूत रहता है, अपितु एक व्यक्ति अहिंसा-पालन से उसका प्रभाव सारे समाज और कभी-कभी राष्ट्र पर भी पड़ा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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