Book Title: Agam Suttani Satikam Part 06 Bhagvati
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

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Page 13
________________ १० भगवतीअङ्गसूत्रं (२) ११/-19/४९८ एवंजहाआहारुद्देसएवणस्सइकाइयाण'मित्यादि, अनेन च यदतिदिष्टंतदिदं-"खेत्तओ असंखेजपएसोगाढाइंकालओ अन्नयरकालट्ठिइयाइंभावओवनमंताई'इत्यादि,-'सव्वप्पणयाए'त्ति सर्वात्मना 'नवरं नियमा छद्दिसिं'ति पृथिवीकायिकादयः सूक्ष्मतया निष्कुटगतत्वेन स्यादिति स्यात्, तिसृषुदिक्षुस्याच्चतसृषुदिक्षुइत्यादिनापि प्रकारेणाहारमाहारयन्ति, उत्पलजीवास्तुबादरत्वेन तथाविधनिष्कुटेष्वभावान्नियमात्षटसु दिक्ष्वाहारयन्तीति। ___'वक्कंतीए'त्ति प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे 'उवट्टणाए'त्ति उद्वर्तनाधिकारे, तत्र चेदमेवं सूत्रं-'मणुएसुउववजंति देवेसु उववजंति?,गोयमा! नोनेरइएसुउववजंति तिरिएसुउववजंति मणुएसुउववजंतिनोदेवेसुउववजंति' 'उप्पलकेसरत्ताए'त्तिइह केसराणि-कर्णिक्याः परितोऽवयवाः 'उप्पलकनियत्ताए'त्ति इह तु कर्णिका-बीजकोशः 'उप्पलथिभुगत्ताए'त्ति थिभुगा च यतः पत्राणिप्रभवन्ति। शतकं-११ उद्देशकः-१ समाप्तः -शतकं-११ उद्देशकः-२:मू. (४९९) सालुएणंभंते! एगपत्तए किं एगजीवे अनेगजीवे?, गोयमा! एगजीवे एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा जाव अनंतखुत्तो, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं घणुपुहुत्तं, सेसंतंचेव । सेवं भंते ! सेवं भंतेति ॥ -शतकं-११ उद्देशकः-३:मू. (५००) पलासेणंभंते! एगपत्तए किंएगजीवे अनेगजीवे?, एवं उप्पलुद्देसगवत्तवया अपरिसेसा भाणियव्वा, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अगुलस्स असंखेनइभागं उक्कोसेणं गाउयपहुत्ता, देवा एएसु चेव न उववज॑ति । लेसासु ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेसे नीललेसे काउलेसे०?, गोयमा! कण्हलेस्से वा नीललेस्से वा काउलेस्से वा छव्वीसं भंगा, सेसंतं चेव । सेवं भंते ! २ ति॥ -शतक-११ उद्देशकः-४:मू. (५०१) कुंभिएणंभंतेजीवा एगपत्तए किंएगजीवे अनेगजीवे?, एवंजहा पलासुद्देसए तहा भाणियव्ये, नवरं ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वासपुहुत्तं, सेसं तं चेव । सेवं भंते! सेवं भंतेत्ति॥ -शतकं-११ उद्देशकः-५:मू. (५०२) नालिएणंभंते! एगपत्तएकिं एगजीवे अनेगजीवे?, एवं कुंभिउद्देसगवत्तब्वया निरवसेसं भाणियव्वा । सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति ॥ -शतकं-११ उद्देशकः-६:मू. (५०३) पउमेणंभंते! एगपत्तए किंएगजीवेअनेगजीवे?, एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया निरवसेस भाणियव्वा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ ____-शतकं-११ उद्देशकः-७:मू. (५०४) कन्निएणं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे०?, एवं चेव निरवसेसं भाणियव्वं सेवं भंते ! सेवं भंते ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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