Book Title: Agam Suttani Satikam Part 06 Bhagvati
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

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Page 27
________________ २४ भगवती अङ्गसूत्रं (२) ११/-/१०/५११ दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि य कोसे अट्ठावीसं च घनुसयं तेरस अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचि विसेसाहियं 'ति । 'ताए उक्किट्ठाए' त्ति इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'तुरियाए चवलाए चंडाए सिहाए उद्धयाए जयणाए छेयाए दिव्वाए' त्ति तत्र 'त्वरितया' आकुलया 'चपलया' कायचापल्येन 'चण्डयारौद्रया गत्युत्कर्षयोगात् 'सिंहया' दाढर्यस्थिरतया 'उद्धृतया' दर्पातिशयेन 'जयिन्या' विपक्षजेतृत्वेन 'छेकया' निपुणया 'देव्यया' दिव भवयेति, 'पुरच्छाभिमुहे' त्ति मेर्वपेक्षया, 'आसत्तमे कुलवंसे पहीणे' त्ति कुलरूपो वंशः प्रहीणो भवति आसप्तमादपि वंश्यात्, सप्तममपि वंश्यं यावदित्यर्थः । 'गयाउ से अगए असंखेज्जिभागे अगयाउ से गए असंखेज्जगुणे' त्ति, ननु पूर्वादिषु प्रत्येकमर्द्धरज्जुप्रमाणत्वाल्लोकस्योर्द्धाधश्च किञ्चिन्यूनाधिकसप्तरज्जुप्रमाणत्वात्तुल्यया गत्या गच्छतां देवानां कथं षट्स्वपि दिक्षु गतादगतं क्षेत्रमसङ्ख्यातभागमात्रं अगताच्च गतमसङ्ख्यातगुणमिति ?, क्षेत्रवैषम्यादिति भावः, अत्रोच्यते, धनचतुरीकृतस्य लोकस्यैव कल्पितत्वान्न दोषः, ननु यद्युक्तस्वरूपयाऽपि गत्या गच्छन्तो देवा लोकान्तं बहुनापि कालेन न लभन्ते तदा कथमच्युताजिनजन्मादिषु द्रागवतरन्ति? बहुत्वात्क्षेत्रस्याल्पत्वादवतरणकालस्येति, सत्यं, किन्तु मन्देयं गति जिनजन्माद्यवतरणगतिस्तु शीघ्रतमेति 'असब्भावपट्टवणाए 'त्ति असद्भूतार्थः कल्पनयेत्यर्थः । मू. (५१२) लोगस्स णं भंते! एगंमि आगासपएसे जे एगिंदियपएसा जाव पंचिंदियपएसा अनिंदियपदेसा अन्नमन्नबद्धा अन्नमन्त्रपुट्ठा जाव अन्नमन्नसमभरघडत्ताए चिट्ठति । अत्थि णं भंते ! अन्नमन्नस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पायंति छविच्छेदं वा करेति ?, नो तिणट्टे समट्टे, से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ लोगस्स णं एगंमि आगासपएसे जे एगिदियपएसा जाव चिट्ठति नत्थि णं भंते! अन्नमन्नस्स किंचि आवाहं वा जाव करेंति ?, गोयमा से जहानामए नट्टिया सिया सिंगारगारचारुवेसा जाव कलिया रंगट्ठाणंसि जणसयाउलंसि जणसय सहस्साउलंसि बत्तीसइविहस्स नट्टस्स अन्नयरं नट्टविहिं उवदंसेज्जा । से नूणं गोयमा ! ते पेच्छगा तं नट्टियं अनिमिसाए दिट्ठीए सव्वओ समंता समभिलोएंति ?, हंता समभिलोएंति, ताओ गं गोयमा ! दिट्ठीओ तंसि नट्टियंसि सव्वओ समंता संनिपडियाओ ?, हंता सन्निपडियाओ, अत्थि णं गोयमा ! ताओ दिट्ठीओ तीसे नट्टिए किंचिवि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति छविच्छेदं वा करेति । नो तिणट्टे समट्टे, अहवा सा नट्टिया तासिं दिट्ठीगं किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति छविच्छेदं वा करेइ ?, नो तिणट्टे समट्ठे, ताओ वा दिट्ठीओ अन्नमन्नाए दिट्ठीए किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति छविच्छेदं वा करेन्ति ?, नो तिणट्टे समट्ठे, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ तं चैव जाव छविच्छेदं वा करेंति ।। वृ. पूर्वं लोकालोकवक्तव्यतोक्ता, अथ लोकैकप्रदेशगतं वक्तव्यविशेषं दर्शयन्नाह'लोगस्स ण’मित्यादि, ‘अत्थिणं भंते' त्ति अस्त्ययं भदन्त ! पक्षः, इह च त इति शेषो दृश्यः, 'जाव कलियत्ति इह यावत्करणादेवं दृश्यं 'संगयगयहसियमणियचिट्ठियविलाससललियसंलावनिउणजुत्तोवयारकलिय'त्ति, 'बत्तीसइविहस्स नट्टस्स' त्ति द्वात्रिंशद् विधा - भेदा यस्य तत्तथा तस्य नाट्यस्य, तत्र ईहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालककिन्नरादिभक्ति चित्रो नामैको नाट्यविधि, एतच्चरिताभिनयनमिति संभाव्यते, एवमन्येऽप्येकत्रिंशद्विधयोराजप्रश्नकृतानुसारतोवाच्याः For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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