Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Author(s): Chandanashreeji Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra View full book textPage 7
________________ ( ब ) गत वर्ष कलकत्ता में दीपावली पर, परम्परा के अनुसार, उत्तराध्ययन सूत्र का वाचन हुआ था। प्रसंगवश मैंने उत्तराध्ययन पर कुछ चिन्तन प्रस्तुत किया। इस पर कलकत्ता संघ के भावनाशील प्रबुद्ध श्रोताओं एवं चिन्तकों का आग्रह हुआ कि 'आप उत्तराध्ययन पर अपनी शैली से कुछ लिखें, मेरा मन इतना गुरुगम्भीर उत्तरदायित्व लेने को प्रस्तुत नहीं था। फिर भी स्नेहशील जनमन का आग्रह, साथ ही स्वनामधन्य तपोमूर्ति, आदरणीया श्रीरम्भाकुँवरजी महाराज तथा कृपामूर्ति एवं भाववत्सला गुरुणी श्री सुमति कुँवर जी महाराज की प्रेरणा, यह सब कुछ ऐसा हुआ है कि मुझे अनुवादन एवं सम्पादन का काम हाथ में लेना ही पड़ा। और यह सब काम ४५ दिन की सीमित अवधि में पूरा भी कर दिया। कुछ आदत है ऐसी कि प्रथम तो काम हाथ में लेती नहीं हैं। अगर ले लेती हूँ, तो फिर समग्र शक्ति के साथ उसे जल्दी से जल्दी पूरा करने की एक विचित्र-सी धुन हो जाती है। उत्तराध्ययन के सम्पादन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। मैं यह मानती हूँ, कि यदि कुछ और लम्बा समय मिलता, अपेक्षित ग्रन्थों की और अधिक सामग्री मिलती, तो मेरे इस कार्य में थोड़ी और चमक आजाती। खैर, जो होना था हुआ, और वह आप सब के समक्ष है। सहयोगियों की स्मृति कैसे भूल सकती हूँ ! मेरी मातृतुल्य दोनों महत्तराओं का वरद हस्त तो मेरे मस्तक पर था ही। प्रस्तुत कार्य में मेरी लघुबहन साध्वी श्री 'यशा' का भी उल्लेखनीय सहयोग रहा है। प्रेसकापी बनाने में, स्वच्छ शुद्ध लेखन में समय पर स्मरणीय सहयोग, अस्वस्थ होते हुए भी, उससे जो मिला है, मैं उसका हृदय से अभिनन्दन करती हूँ। साथ ही लघु-बहन साध्वी श्री साधना की समयोचित निर्मल सेवा, तथैव सरल हृदय पं० चन्द्रभूषण मणि त्रिपाठी का सहकार भी कम स्पृहणीय नहीं है। कलकत्तासंघ के सेवामूर्ति एवं मधुरभावापन्न भाई बहिनों को तो मैं कभी भूलँगी ही नहीं। कितना निश्छल, निर्मल सहयोग है उनका । मेरी स्मृति में वह मुस्कराते ताजा खिले पुष्प की तरह व्यक्त या अव्यक्त हर क्षण महकता रहेगा। नाम किस-किस का लूँ। सबका प्रेम मैंने जो पाया है, वह सब का ही रहने दूंगी। नाम लिखकर उसे सीमित नहीं करूँगी। उत्तराध्ययन के अब तक अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। परन्तु मेरी नजरों में जो आए हैं उनमें विद्वद्रल मुनि श्री नथमल जी का सम्पादित संस्करण ही अत्युत्तम लगा है। सम्पादन में उनकी प्रतिभा का चमत्कार तो है ही, साथ ही उनका सुदीर्घ श्रम भी चिर श्लाघनीय है। मैंने उन्हीं के पथ का अनुसरण किया है। अन्य अपेक्षित सामग्री के अभाव में मेरे समक्ष उत्तराध्ययन की श्री कमलसंयमोपाध्याय-विचरित 'सर्वार्थ सिद्धि' नामक प्राचीन संस्कृत टीका और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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