Book Title: Agam 40 Avashyak Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 13
________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक किन्नर के समूह से सच्चे भाव से पूजनीय हैं। जिसमें तीन लोक के मानव सुर और असुरादिक स्वरूप के सहारे के समान संसार का वर्णन किया गया है ऐसे संयम पोषक और ज्ञान समृद्ध दर्शन के द्वारा प्रवृत्त होनेवाला शाश्वत धर्म की वृद्धि हो और विजय की परम्परा के द्वारा चारित्र धर्म की भी हमेशा वृद्धि हो । सूत्र-५२ श्रुत-भगवान आराधना निमित्त से मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। "वंदण वत्तियाए'' इन पद का अर्थ पूर्व सूत्र४७ में बताया है। सूत्र-५३ सिद्धिपद को पाए हुए, सर्वज्ञ, फिर से जन्म न लेना पड़े उस तरह से संसार का पार पाए हुए, परम्पर सिद्ध हए और लोक के अग्र हिस्से को पाए हए यानि सिद्ध शीला पर बिराजमान ऐसे सर्व सिद्ध भगवंत को सदा नमस्कार हो। सूत्र-५४ जो देवों के भी देव हैं, जिनको देव अंजलिपूर्वक नमस्कार करते हैं । और जो इन्द्र से भी पूजे गए हैं ऐसे श्री महावीर प्रभु को मैं सिर झुकाकर वंदन करता हूँ। सूत्र-५५ जिनेश्वर में उत्तम ऐसे श्री महावीर प्रभु को (सर्व सामर्थ्य से) किया गया एक नमस्कार भी नर या नारी को संसार समुद्र से बचाते हैं। सूत्र - ५६ जिनके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण (वो तीनों कल्याणक) उज्जयंत पर्वत के शिखर पर हुए हैं वो धर्म चक्रवर्ती श्री अरिष्टनेमि को मैं - नमस्कार करता हूँ। सूत्र-५७ चार, आँठ, दश और दो ऐसे वंदन किए गए चौबीस तीर्थंकर और जिन्होंने परमार्थ (मोक्ष) को सम्पूर्ण सिद्ध किया है वैसे सिद्ध मुझे सिद्धि दो। सूत्र -५८ हे क्षमाश्रमण ! मैं इच्छा रखता हूँ। (क्या ईच्छा रखता है वो बताते हैं) पाक्षिक के भीतर हुए अतिचार की क्षमा माँगने के लिए उसके सम्बन्धी निवेदन करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ। (गुरु कहते हैं खमाओ तब शिष्य बोले) 'ईच्छं'' | मैं पाक्षिक के भीतर हुए अतिचार को खमाता हूँ | पंद्रह दिन और पंद्रह रात में, आहार-पानी में, विनय में, वैयावच्च में, बोलने में, बातचीत करने में, ऊंचा या समान आसन रखने में, बीच में बोलने से, गुरु की ऊपरवट जाकर बोलने में, गुरु वचन पर टीका करने में (आपको) जो कुछ भी अप्रीति या विशेष अप्रीति उत्पन्न हो ऐसा कार्य किया हो और मुझसे कोई सूक्ष्म या स्थूल कम या ज्यादा विनय रहित व्यवहार हुआ हो जो तुम जानते हो और मैं नहीं जानता, ऐसा कोई अपराध हुआ हो, उसके सम्बन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । सूत्र- ५९ हे क्षमाश्रमण (पूज्य) ! मैं ईच्छा रखता हूँ। (क्या चाहता है वो बताता है) - और मझे प्रिय या मंजर भी है। जो आपका (ज्ञानादि - आराधना पर्वक पक्ष शुरू हआ और पूर्ण हआ वो मुझे प्रिय है) निरोगी ऐसे आपका, चित्त की प्रसन्नतावाले, आतंक से, सर्वथा रहित, अखंड संयम व्यापारवाले, अठारह हजार शीलांग पंच महाव्रत धारक, दूसरे भी अनुयोग आदि आचार्य उपाध्याय सहित, ज्ञान-दर्शन-चारित्र तप के द्वारा आत्मा को विशुद्ध करनेवाले ऐसा आपका हे भगवंत ! पर्व दिन और अति शुभ कार्य करने के रूप में पूर्ण हुआ। और दूसरा पक्ष भी कल्याणकारी शुरु हुआ तो मुझे प्रिय है । मैं आपको मस्तक के द्वारा-मन से सर्वभाव से वंदन करता हूँ। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 13

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