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आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय'
अध्ययन/सूत्रांक तब आचार्य कहते हैं - तुम्हारे सर्व के साथ यानि आप सबके साथ सुन्दर आराधना हुई। सूत्र - ६०
___ हे क्षमाश्रमण (पूज्य) ! मैं (आपको चैत्यवंदना एवं साधुवंदना) करवाने की ईच्छा रखता हूँ । विहार करने से पहले आपके साथ था तब मैं यह चैत्यवंदना - साधु वंदना श्रीसंघ के बदले में करता हूँ ऐसे अध्यवसाय के साथ श्री जिन प्रतिमा को वंदन नमस्कार करके और अन्यत्र विचरण करते हुए, दूसरे क्षेत्र में जो कोई काफी दिन के पर्यायवाले स्थिरवासवाले या नवकल्पी विहारवाले एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हए साधुओं को देखा । उस गुणवान् आचार्यादिक को भी वंदना की, आपकी ओर से भी वंदन किए, जो लघुपर्यायवाले थे उन्होंने भी आपको वंदना की। सामान्य साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका मिले उन्होंने भी आपको वंदना की । शल्य रहित और कषाय मुक्त ऐसे मैंने भी मस्तक से और मन से वंदना की उस आशय से आप पूज्य भी उनको वंदन करो । तब पूज्य श्री कहते हैं कि - मैं भी वो तुमने किए हुए चैत्य को वंदन करता हूँ। सूत्र-६१
हे क्षमा-श्रमण (पूज्य) ! मैं भी उपस्थित होकर मेरा निवेदन करना चाहता हूँ। आपका दिया हुआ यह सब कुछ जो मेरे लिए जरुरी है वस्त्र, पात्र, कँबल, रजोहरण एवं अक्षर, पद, गाथा, श्लोक, अर्थ, हेतु, प्रश्न, व्याकरण आदि स्थविर कल्प को योग्य और बिना माँगे आपने मुझे प्रीतिपूर्वक दिया फिर भी मैंने अविनय से ग्रहण किया वो मेरा पाप मिथ्या हो।
तब पूज्यश्री कहते हैं - यह सब पूर्वाचार्य का दिया हुआ है यानि मेरा कुछ भी नहीं । सूत्र - ६२
हे क्षमा-श्रमण (पूज्य) ! मैं भावि में भी कृतिकर्म-वंदन करना चाहता हूँ | मैंने भूतकाल में जो वंदन किए उन वंदन में किसी ज्ञानादि आचार बिना किए हो, अविनय से किए हो आपने खुद मुझे वो आचार - विनय से शीखाए हो या उपाध्याय आदि अन्य साधु ने मुझे उसमें कुशल बनाया हो, आपने मुझे शिष्य की तरह सहारा दिया हो, ज्ञानादि - वस्त्रादि देकर संयम के लिए सहारा दिया । मुझे हितमार्ग बताया, अहित प्रवृत्ति करने से रोका, संयम आदि में स्खलना करते हुए मुझे आपने मधुर शब्द से रोका, बार-बार बचाया, प्रेरणा देकर आपने बार-बार प्रेरणा की वो मुझे प्रीतिकर बनी है । अब मैं वो गलती सुधारने के लिए उपस्थित हुआ हूँ। आपके तप और तेज समान लक्ष्मी के द्वारा इस चार गति समान संसार अटवी में घूमते हुए मेरे आत्मा का संहरण करके उस संसार अटवी का पार पाऊंगा । उस आशय से मैं आपको मस्तक और मन के द्वारा वंदन
पूज्यश्री कहते हैं - तुम संसार समुद्र से पार पानेवाले बनो।
अध्ययन-५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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