Book Title: Agam 40 Avashyak Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ आगम सूत्र ४०, मूलसूत्र-१, 'आवस्सय' अध्ययन/सूत्रांक रखना, या आड़ा-टेढ़ा बोलना, अलग-अलग पाठ मिलाकर मूल शास्त्र का क्रम बदलना, अक्षर कम करना-बढ़ाना, पद कम करना, योग्य विनय न करना, उदात्त-अनुदात्त आदि दोष न सँभालना, योग्यता रहित को श्रुत पढ़ाना, कलुषित चित्त से पढ़ाना, बिना समय के स्वाध्याय करना, स्वाध्याय के समय स्वाध्याय न करना, असज्झाय के समय स्वाध्याय करना, सज्झाय के समय स्वाध्याय न करना । इस तरह के एक से तीस दोष या अतिचार का सेवन हुआ हो वो मेरा सब कुछ दुष्कृत मिथ्या हो । सूत्र-३० ऋषभदेव से महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थंकर परमात्मा को मेरा नमस्कार । सूत्र - ३१ यह निर्ग्रन्थ प्रवचन (जिन आगम या श्रुत) सज्जन को हितकारक, श्रेष्ठ, अद्वितीय, परिपूर्ण, न्याययुक्त, सर्वथा शुद्ध, शल्य को काट डालनेवाला सिद्धि के मार्ग समान, मोक्ष के मुक्तात्माओं के स्थान के और सकल कर्मक्षय समान, निर्वाण के मार्ग समान हैं । सत्य है, पूजायुक्त है, नाशरहित यानि शाश्वत, सर्व दुःख सर्वथा क्षीण हुए हैं जहाँ वैसा यानि कि मोक्ष के मार्ग समान है । इस प्रकार से निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित जीव, सिद्धि प्राप्त करते हैं । बोध पाते हैं। भवोपग्राही कर्म से मुक्त होत हैं। सभी प्रकार से निर्वाण पाते हैं । सारे दुःखों का विनाश करते हैं सूत्र-३२ उस धर्म की मैं श्रद्धा करता हूँ, प्रीति के रूप से स्वीकार करता हूँ, उस धर्म को ज्यादा सेवन की रुचि - अभिलाषा करता हूँ। उस धर्म की पालना-स्पर्शना करता हूँ । अतिचार से रक्षा करता हूँ । पुनः पुनः रक्षा करता हूँ। उस धर्म की श्रद्धा, प्रीति, रुचि, स्पर्शना, पालन, अनुपालन करते हुए मैं केवलि कथित धर्म की आराधना करने के लिए उद्यत हुआ हूँ और विराधना से अटका हुआ हूँ (उसी के लिए) प्राणातिपात रूपी असंयम का - अब्रह्म का - अकृत्य का - अज्ञान का - अक्रिया का - मिथ्यात्व का - अबोधि का और अमार्ग को पहचानकर-समझकर मैं त्याग करता हूँ। और संयम, ब्रह्मचर्य, कल्प, ज्ञान-क्रिया, सम्यक्त्व बोधि और मार्ग का स्वीकार करता हूँ। सूत्र-३३ (सभी दोष की शुद्धि के लिए कहा है) जो कुछ थोड़ा सा भी मेरी स्मृतिमें है, छद्मस्थपन से स्मृतिमें नहीं है, ज्ञात वस्तु का प्रतिक्रमण किया और सूक्ष्म का प्रतिक्रमण न किया उस अनुसार जो अतिचार लगा हो वो सभी दिन सम्बन्धी अतिचार का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । इस प्रकार अशुभ प्रवृत्ति का त्याग करके मैं तप-संयम रत साधु हूँ। समस्त प्रकार से जयणावाला हूँ, पाप से विरमित हूँ, वर्तमान में भी अकरणीय रूप से, पापकर्म के पच्चक्खाण पूर्वक त्याग किया है । नियाणा रहित हुआ हूँ, सम्यग् दर्शनवाला हुआ हूँ और माया मृषावाद से रहित हुआ हूँ। सूत्र-३४ ढाई द्वीप में यानि दो द्वीप, दो समुद्र और अर्ध पुष्करावर्त द्वीप के लिए जो ५-भारत, ५-ऐरावत, ५-महा विदेह रूप १५ कर्मभूमि में जो किसी साधु रजोहरण, गुच्छा और पात्र आदि को धारण करनेवाले, पाँच महाव्रत में परिणाम की बढ़ती हुई धारावाले, अठ्ठारह हजार शीलांग को धारण करनेवाले, अतिचार से जिसका स्वरूप दुषित नहीं हुआ है ऐसे निर्मल चारित्रवाले उन सबको मस्तक से, अंतःकरण से, मस्तक झुकाने के पूर्वक वंदन करता हूँ। सूत्र - ३५,३६ सभी जीव को मैं खमाता हूँ | सर्व जीव मुझे क्षमा करो और सर्व जीव के साथ मेरी मैत्री है । मुझे किसी के साथ वैर नहीं है । उस अनुसार मैंने अतिचार की निन्दा की है आत्मसाक्षी से उस पाप पर्याय की निंदा - गर्दा की है. उस पाप प्रवृत्ति की दुगंछा की है, इस प्रकार से किए गए - हुए पाप व्यापार को सम्यक्, मन, वचन, काया से प्रतिक्रमता हुआ मैं चौबीस जिनवर को वंदन करता हूँ। अध्ययन-४-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आवस्सय) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 11

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19