Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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अर्थ यह है कि त्रिभुवनोदरविक्रवर्ती समस्त असंख्येय भाव अपने आप में न मोक्ष के कारण है और न संसार के कारण । साधक की अपनी अन्तः स्थिति ही उन्हें अच्छे या बुरे का रूप देती है। साधक के अन्तर्तम में यदि शुद्ध भाव है, तो अंदर-बाहर सब शुद्ध है। और यदि मधुर भाव है, तो सब अशुद्ध है। अतः कर्म-बन्ध और कर्म-निर्जरा का मूल्यांकन बाहर से नहीं, अपितु अंदर से किया जाना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि बाहर कुछ नहीं है, जो कुछ है, अंदर ही है। मेरा कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि बाहर में सब कुछ कर करा कर भी अन्ततः अंदर में ही अन्तिम मुहर लगती है । सावधान ! बाहर के भावाभाव में कहीं अंदर के भावाभाव को न भूल जाएँ !
हाँ, तो अपवाद में व्रतभंग नहीं होता, संयम नष्ट नहीं होता ; इसका एक मात्र कारण यह है कि अपवाद भी उत्सर्ग के समान ही अन्तर्तम की शुद्ध भावना पर आधारित है। बाहर में भले ही उत्सर्ग-जैसा उज्ज्वल रूप न हो, व्रत भंग का मालिन्य ही हो, किन्तु अंदर में यदि साधक निर्मल रहा है, सावधान रहा है, ज्ञानादि सद्गुणों की साधना के शद्ध साध्य पर सुस्थित रहा है, तो वह शुद्ध ही है। उत्सर्ग और अपवाद का तुल्यत्व
शिष्य प्रश्न करता है-"भंते ! उत्सर्ग अधिक हैं, या कि अपवाद अधिक हैं ?"
प्रस्तुत प्रश्न का बृहत्कल्प भाष्य में समाधान किया गया है कि "जितने उत्सर्ग हैं, उतने ही उनके अपवाद भी होते हैं । और जितने अपवाद होते हैं, उतने ही उनके उत्सर्ग भी होते हैं ।"3०
उक्त कथन से स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि साधना के उत्सर्ग और अपवाद दोनों ही अपरिहार्य अंग हैं। जिस प्रकार उन्नत से निम्न की और निम्न से उन्नत की प्रसिद्धि है, उमी प्रकार उत्सर्ग से अपवाद और अपवाद से उत्सर्ग प्रसिद्ध है, अर्थात् दोनों अन्योऽन्य प्रसिद्ध हैं।" एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता । अस्तु, ऐसा कोई उत्सर्ग नहीं, जिसका अपवाद न हो, और ऐसा कोई अपवाद भी नहीं, जिसका उत्सर्ग न हो। दोनों की कोई इयत्ता नहीं है, अर्थात् अपने आप पर आधारित कोई स्वतंत्र संख्या नहीं है। दोनों तुल्य हैं, एक दूसरे पर आधारित हैं। उत्सर्ग और अपवाद का बलाबल
शिष्य पृच्छा करता है-- "भंते ! उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों में कौन श्रेय है और कौन अश्रेय ? तथा कौन सबल है और कौन निर्बल ?"
३०-जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव हंति प्रववाया।
जावड्या प्रववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव ॥३२२।। ३१-उन्नयमविक्ख निन्नस्म पसिद्धी उन्नयस्स निनामो। इय मनोनपसिद्धा, उम्सग्गऽक्वायत्रो तल्ला ॥३२१॥
-हतस्प माध्य-पीठिका
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