Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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यहां पर असत्य बोलने का स्पष्ट उल्लेख है। यह भिक्षु का अपवाद मार्ग है। इस प्रकार के प्रसंग पर असत्य भाषण भी पापरूप नहीं है। निशीथचूर्णि में भी आचारांग सूत्र का उपयुक्त कथन सन्दृब्ध है।४२
सूत्रकृतांग सूत्र में भी यही अपवाद आया है । वहां कहा गया है
"जो मृषावाद मायापूर्वक दूसरों को ठगने के लिए बोला जाता है , वह हेय है, त्याज्य है।"४३
__ प्राचार्य शीलांक ने उक्त सूत्र का फलितार्थ निकालते हुए स्पष्ट कहा है-"जोपरवञ्चना की बुद्धि से रहित मात्र संयम-गुप्ति के लिए कल्याण भावना से बोला जाता है , वह असत्य दोषरूप नहीं है, पाप-रूप नहीं है ।। तपनेय का उत्सर्ग और अपवाद
उत्सर्ग मार्ग में भिक्षु के लिए घास का एक तिनका भी अग्राह्य है, यदि वह स्वामीद्वारा प्रदत्त हो तो। कितना कठोर व्रत है । अदत्तादान न स्वयं ग्रहण करना, न दूसरों से ग्रहण करवाना और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन ही करना ।४५
परन्तु परिस्थिति विकट है, अच्छे-से-अच्छे साधक को भी आखिर कभी झुक जाना पड़ता ही है। कल्पना कीजिए, भिक्षु-संघ लंबा विहार कर किसी अज्ञात गाँव में पहुंचता है, स्थान नहीं मिल रहा है, बाहर वृक्षों के नीचे ठहरते हैं तो भयंकर शीत है, अथवा जंगली हिंसक पशुओं का उपद्रव है। ऐसी स्थिति में शास्त्राज्ञा है कि बिना आज्ञा लिए ही योग्य स्थान पर ठहर जाएं और पश्चात् आज्ञा प्राप्त करने का प्रयत्न करें।"४६
४२- "संजमहेउ ति" जइ केइ लुद्धगादी पुच्छंति- 'कतो एत्थ भगवं दिट्ठा मिगादी ?'.."ताहे दिढेसु वि वत्तव्वं-- वि "पासे" त्ति दिट्ट त्ति वुत्तं भवति ।
-निशीथ चूमि, भाष्यगाथा ३२२ ४३- "सादियं ण मुसं बूया, एस धम्मे वुसीमग्रो।" -सूत्र० १, ८, १६ ४४-यो हि परवञ्चनार्थ समायो मृषावाद: स परिहीयते। यस्तु संयमगुप्त्यर्थ "न मया मृगा उपलब्धा" इत्यादिकः स न दोषाय ।
- सूत्रकृतांग वृत्ति १, ८, १६ ४५-चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं ना जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्तं पि, उग्गहंसि प्रजाइया ।
-दश०६,१४ ४६-कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा पुवामेव प्रोग्गहं अणनवेत्ता तपो पच्छा प्रोगिण्हित्तए । मह पुण जाणेज्जा- इह खलु निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा नो सुलभे पाडिहारिए सेज्जासंथारएत्ति कटु एवं ण्हं कप्पइ पुवामेव भोग्गहं प्रोगिण्डित्ता तो पच्छा अणुनवेत्तए । 'मा वहउ मज्जो', वइ-प्रणुलोमेणं प्रणलोमेयव्वे सिया।
व्यवहारसूत्र ८, ११॥
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