Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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( २८ ) मूल बात यह है कि अतिचार के मूल में दपं रहता है, मोहोदय का भाव रहता है। क्रोधादि कषाय भाव से, वासना से, संसार सुख की कामना से बिना किसी पुष्टालम्बन के, उत्सर्ग संयम का परित्याग कर जो विपरीत आचरण किया जाता है, वह अतिचार है । अतिचार से संयम दूषित होता है, अतः वह त्याज्य है । यदि मोहोदय के कारण कभी अतिचार का सेवन हो भी जाता है, तो प्रायश्चित्त के द्वारा उसकी शुद्धि करनी होती है। अन्यथा भिक्षु विराधक हो जाता है, और पथभ्रष्ट होकर संसार-कान्तार में भटक जाता है।
_अब रहा अपवाद। इसके सम्बन्ध में पहले भी काफी प्रकाश डाला जा चुका है। "यदि में अपवाद का सेवन नहीं करूंगा, तो मेरे ज्ञानादि गुणां की अभिवृद्धि न होगी"-इस विचार से ज्ञानादि के योग्य सन्धान के लिए जो प्रतिसेवना की जाती है, वह सालम्ब सेवना है। और यही अपवाद का प्राण है। अपवाद के मूल में ज्ञानादि सद्गुणों के अजन तथा मंरक्षण की पवित्र भावना ही प्रमुख है। .
निशीथ भाष्यकार ने ज्ञानादि-साधना के सम्बन्ध में बहुत ही महत्त्वपूर्ण उल्लेख किया है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार अंध गत में पड़ा हग्रा मनुष्य लगानों का अवलम्बन कर बाहर तट पर प्राजाता है, अपनो रक्षा कर लेता है, उसी प्रकार संसार गर्त में पड़ा हुमा सावक भी ज्ञानादि का अवलम्बन कर मोक्ष तट पर चढ़ पाता है, सदा के लिए जन्म मरण के कष्टों से निजात्मा की रक्षा कर लेता है। . २
अतः उत्सर्ग के समान अपवाद भी संयम है, अतिचार नहीं। कषाय भाव से प्रेरित प्रवृत्ति अतिचार है, तो संयम भाव से प्रेरित वही प्रवृत्ति अपवाद है। प्रतएव अतिचार कर्म बन्ध का जनक है, तो अपवाद कर्मक्षय का कारक हैं। बाहर में स्थूल दृष्टि से एक रूपता होते हुए भी, अन्दर में अन्तर है, आकाश पाताल जैसा महान् अन्तर है। एक भगवान् की आज्ञा में है, तो दूसरा भगवान की प्राज्ञा से बाहर है। पुष्टालम्बन वह अद्भुत रसायन है, जो प्रकल्प को भी कल्प बना देती है, अतिचार को भी प्राचार का सुरूप दे देती है।
७०-प्रति सेवना के दो रूप हैदरका मोर कल्पिका । विना पुष्टालम्बनरूप कारण के की जाने वाली प्रतिसेवना दपिका है, और वह अतिचार है। तथा विशेष कारण की स्थिति में की जाने वाली प्रति सेवा कल्पिका है, जो अपवाद है और वह भिक्षु का कल्प है-पाचार है । या कारणमन्तरेण प्रतिसेवना क्रियते सा दपिका, या पुनः कारणे सा कल्पिका।।
-व्यवहार भाष्य वृत्ति उ०१. गा० ३८
७१---णाणादी परिवुडढी, ण भविस्मति मे प्रसेवते बिति' तेसिं पसंधणट्ठा, सालंबणिसेवगा एसा ॥४६६।।
-निशोथ माष्यं ७२-संसार गड्ड-पडितो, णाणादवलंबितु समारुति ।
मोक्खतडं जब पुरिसो, बल्लिविताणेण विसमा उ ॥४६५।।
-निशीथ भाष्य
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