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स्वकथ्य : प्रस्तावना
"जीवन मे सुख-शान्ति और आनन्द की प्राप्ति हो ।" यह प्रत्येक मनुष्य चाहता है। चाहे कोई धर्म को, परमात्मा या आत्मा को माने या न माने, किन्तु सुख-शान्ति की कामना सभी आस्तिक-नास्तिक करते है । किन्तु इस बात को बहुत कम लोग समझते है कि सुख-शान्ति का मूल अध्यात्म है और अध्यात्म का आधार है आत्मा । अध्यात्म की सरल परिभाषा है-“अधि आत्मानं - अध्यात्मम् - आत्मानं अधिकृत्य या क्रिया प्रवर्तते तद् अध्यात्मम्।”-आत्मा को लक्ष्य मे रखकर जो क्रिया / प्रवृत्ति की जाती है, वह अध्यात्म है।
धर्मशास्त्र का उद्देश्य
धर्मशास्त्रो का उद्देश्य है - आत्मा का प्रतिपादन करना । आत्म-सत्ता का विवेचन / विश्लेषण करना और प्रत्येक जिज्ञासु के मन मे आत्मा के प्रति श्रद्धा, आस्था तथा विश्वास उत्पन्न करना। प्राचीनकाल से लेकर आज तक सभी धर्मशास्त्रो का निर्माण और पठन-पाठन इसी उद्देश्य को लेकर होता रहा है।
प्रस्तुत रायपसेणिय (राजप्रश्नीय) सूत्र का भी यही मूल उद्देश्य है - आत्म-सत्ता का प्रतिपादन करना, आत्मा के प्रति सबके मन मे आस्था - विश्वास पैदा करना । इस सूत्र की प्रतिपादन शैली अन्य शास्त्रो से कुछ भिन्न है। धर्म व अध्यात्म का विषय बडा नीरस और दुरूह, समझने मे कठिन माना जाता है, इसलिए सामान्य व्यक्ति धर्म की, आत्मा की, अध्यात्म की चर्चा मे उलझने से कतराता है और दूर-दूर ही रहना चाहता है। उन लोगो की रुचि कथा-कहानी वार्त्ता में अधिक रहती है ।
यह सूत्र लोक - रुचि को सतुष्ट और तृप्त करने वाला है। इसकी शैली मे यह अनूठापन है कि आत्मा, धर्म और अध्यात्म जैसे गहन, कठिन और नीरस विषय को इतना सरल, सरस और रुचिकर शैली से प्रस्तुत किया गया है कि पढने वाला और सुनने वाला आगे से आगे पढना / सुनना ही चाहता है ।
शास्त्र के मुख्य पात्र
इस शास्त्र के मुख्य पात्र दो है - श्वेताम्बिका नगरी का नास्तिक राजा प्रदेशी और चार ज्ञान के धारक महान् विद्वान् पार्थ्यापत्य केशीकुमार श्रमण। दोनो के बीच मे जीव के अस्तित्त्व के सम्बन्ध मे कि “शरीर और जीव भिन्न है या एक ही है ?" इस विषय मे प्रश्नोत्तर होते है, तर्क-वितर्क होते है । प्रदेशी राजा अपने अनुभव और युक्तियाँ प्रस्तुत करके, जीव और शरीर को एक ही सिद्ध करता है और केशीकुमार श्रमण बडे रोचक, युक्तिपूर्ण दृष्टान्त, उदाहरण देकर जीव को शरीर से भिन्न चेतन तत्त्व सिद्ध करते है । उनके तर्क इतने युक्तियुक्त, अनुभवपूर्ण और अकाट्य होते है कि अन्त मे परम अधार्मिक कट्टर नास्तिक प्रदेशी राजा उनके सामने झुक जाता है, स्वीकार करता है - "आपका कथन सत्य है, मै आज तक भूल करता रहा, गलत मानता रहा।"
धर्म से जीवन- परिवर्तन
इस शास्त्र का यही सबसे मुख्य सार - तत्त्व है, यो देखे तो पूरे इस आगम का प्राण - तत्त्व यही है कि जीव और शरीर की भिन्नता सिद्ध करके जीव को चेतन, शाश्वत सिद्ध करना और शरीर को
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