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बत्तीस प्रकार के अद्भुत नाटक, सगीत, वाद्य आदि का वर्णन, उनकी एक-एक क्रियाविधि का रोचक चित्रण इतना मनोहारी है कि श्रोता सुनते-सुनते मुग्ध हो जाते है और इसके साथ ही केशीकुमार श्रमण द्वारा दिये गये रोचक दृष्टान्त भी इतने रसप्रद तथा अर्थपूर्ण है कि सुनकर गम्भीर तत्त्वज्ञान भी सहज ग्राह्य हो जाता है।
स्वर्ग के वैभव, विमान रचना, सूर्याभदेव का अभिषेक और नाटक, सगीत आदि के वर्णन की दृष्टि से यह शास्त्र किसी अनूठी शैली के काव्य से कम नही है। प्राचीन कला, सस्कृति, लोक सभ्यता आदि का वर्णन भी इसमे भरपूर है। प्राचीनकाल मे प्रचलित सगीत के विभिन्न वाद्य, यत्र, उपकरण और नाटको की भिन्न-भिन्न मुद्राएँ व शैलियाँ यह बताती है कि प्राचीन भारत मे कला का विकास कितने उच्च-स्तर का रहा है।
इन सब वर्णनो के कारण यह शास्त्र पढने/सुनने मे लोक-रुचि को आकर्षित करता है। उक्त सब वर्णन करने का मुख्य केन्द्र-बिन्दु है-आत्मा की सिद्धि और धर्माराधना के फलस्वरूप प्रदेशी राजा के जीवन का आमूलचूल परिवर्तन। क्रोध की जगह करुणा, द्वेष की जगह क्षमा-शान्ति, भोग, तृष्णा व राजसत्ता की लालसा के स्थान पर विषयो से विरक्ति, निरकुश राजसत्ता के स्थान पर विनम्रता और वत्सलता का धर्मशासन, राज्यभोग के प्रति उदासीनता, प्रजा-उत्पीडन के स्थान पर प्रजापालन की भावना, देहासक्ति के स्थान पर दैहिक ममता का त्याग और विदेहभाव की अनुभूति।
यही वर्णन इस शास्त्ररूपी शरीर के प्राण है। इन्ही सबके कथन के लिए सम्पूर्ण शास्त्र का विस्तार है। यह वर्णन सुनकर पढकर यह माना जा सकता है कि धर्म केवल परलोक के सुखरूप भौतिक फल ही नही देता, किन्तु धर्म-साधना से मनुष्य का हृदय पवित्र बन जाता है। उसका जीवन तृष्णा और
मोहरहित हो जाता है। धर्म का प्रत्यक्ष फल इसी मे मिलता है, प्रत्येक विषम परिस्थिति मे भी समता और ॐ शान्ति का अनुभव तथा चित्त की प्रसन्नता। मै मानता हूँ 'रायपसेणियसूत्र' का सम्पूर्ण विस्तार इसी सत्य 6 को प्रभावक रूप में प्रकट करने के लिए ही है। पाँच विभाग
इस शास्त्र के मुख्य रूप से दो विभाग है-एक पूर्व भाग, जिसमे सूर्याभदेव का भगवान महावीर के समवसरण मे आगमन दिव्य देवऋद्धि का प्रदर्शन, बत्तीस प्रकार के नाटको का अभिनय, फिर देवलोक प्रस्थान और वहाँ पर उसका अभिषेक महोत्सव, विमानो का रोचक काव्यात्मक वर्णन।
दूसरा उत्तर भाग है। गौतम स्वामी द्वारा यह प्रश्न कि इस सूर्याभदेव ने पूर्वजन्म मे ऐसा क्या धर्म व तपश्चरण किया था, जिसके फलस्वरूप इतनी महान् दिव्य देवऋद्धि प्राप्त हुई। उत्तर में भगवान महावीर द्वारा उसके पूर्वजन्म, प्रदेशी राजा का वर्णन। मुख्य रूप से इसके पूर्व भाग और उत्तर भाग यो दो विभाग है। वर्णन की दृष्टि से इसके पाँच उप-विभाग भी हो जाते है
(१) देव विमानो का वर्णन। (२) समवसरण मे आगमन। (३) सूर्याभदेव का प्रकरण।
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