Book Title: Agam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 15
________________ पता चलता है, यह परिव्राजक परम्परा निर्ग्रन्थ परम्परा एवं वैदिक परम्परा के बीच की कोई कड़ी थी, जो आज प्रायः लुप्त हो चुकी है, परन्तु उस युग में बहुत व्यापक प्रचार व प्रभाव था इसका । इसके साथ ही आजीवकों का, निन्हवों का, केवलि समुद्घात का तथा सिद्धों का बहुत ही रोचक वर्णन इस सूत्र में है । वर्णन शैली इस सूत्र की वर्णन शैली प्रायः सभी आगमों से भिन्न विशिष्ट प्रकार की है । जिस विषय का वर्णन किया है उसका सर्वांग यथार्थ वर्णन है। जैसे भगवान महावीर के शरीर सौष्ठव का वर्णन, चम्पानगरी का वर्णन, उद्यान का वर्णन, कूणिक राजा की दर्शन यात्रा का वर्णन आदि। इतना विस्तृत वर्णन, इतनी उपमाएँ, इतना भाषा सौन्दर्य अन्यत्र देखने में नहीं मिलता। यही कारण है कि भगवती जैसे अंग सूत्रों में भी जहा वाइए कहकर इस वर्णन को महत्त्व दिया है। आगमों में नगर, उद्यान, राजा आदि के वर्णन में वण्णओसंक्षिप्त सूचन करके उववाइय सूत्रानुसार समझने की सूचना, इस सूत्र का महत्त्व सिद्ध करती है। मूल आधार मैंने औपपातिक सूत्र का अनुवाद / विवेचन करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि जहाँ भी कोई कठिन पारिभाषिक शब्द आया है, उसका सरल भावानुवाद या संक्षिप्त परिभाषा वहीं दे दी जाय, जिससे पाठक उस शब्द का परम्परागत अर्थ व भाव सम्यक् रूप में शीघ्र समझ सकें। इससे विवेचन अलग लिखने की भी आवश्यकता नहीं रही । इस सम्पादन में मैंने तीन प्रतियों का मुख्य आधार लिया है - ( 9 ) आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर का उववाइय सूत्र, सूत्र संख्या व मूल पाठ इसी का मान्य रखा है, (२) आचार्य अभयदेव सूरि कृत टीका आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित, तथा (३) आचार्य श्री घासीलाल जी म. कृत संस्कृत हिन्दी टीका । अनेक पारिभाषिक शब्दों के स्पष्टीकरण यह टीका सहायक बनी है। अतः यहाँ उक्त आगमों के सम्पादकों व प्रकाशकों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ । मेरे जीवन में जिनवाणी के प्रति अडिग आस्था - विश्वास व अध्ययन करने की जिज्ञासा जगाने में मेरे परम श्रद्धेय गुरुदेव उ. भा. प्रवर्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी म. का अविस्मरणीय उपकार है। उनके उपकारों के प्रति आभार प्रकट करना तो मात्र एक औपचारिकता होगी। सचित्र आगम प्रकाशन के कार्य में सतत प्रेरणा देने में उप प्रवर्तिनी श्री आज्ञावती जी म एवं तपाचार्या श्री मोहन माला जी म. आदि का योगदान भी स्मरणीय है। सम्पादन व चित्रांकन - प्रकाशन का दायित्व निभाने में श्रीचन्द जी सुराना, अंग्रेजी अनुवाद में श्री सुरेन्द्र जी बोथरा व सुश्रावक श्री राजकुमार जी जैन का सहयोग तो सदा मिलता ही रहा है। साथ ही अनेक गुरुभक्त आगम प्रेमी दाताओं ने खर्चीले प्रकाशन कार्य का दायित्व सदैव की भाँति निभाया है। उन सबका सहयोग इस कार्य में जुड़ा है। मैं सभी के प्रति आभार प्रकट करता हूँ । पाठक पूर्ण शुद्धता व यतनापूर्वक आगमों का स्वाध्याय करेंगे, इसी आशा के साथ T - उपप्रवर्त्तक अमर मुनि Jain Education International (9) For Private & Personal Use Only ITADA DA VIDIVIDIDA ADITIVI VIVI www.jainelibrary.org

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