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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' वर्ण, लावण्य, विक्रम, सौभाग्य तथा कान्ति से सुशोभित, विपुल धन धान्य के संग्रह और पारिवारिक सुख-समृद्धि से युक्त, राजा से प्राप्त अतिशय वैभव सुख आदि से युक्त ईच्छित भोगप्राप्त तथा सुख से लालित-पालित थे, जिन्होंने सांसारिक भोगों के सुख को किंपाक फल के सदृश असार, जीवन को जल के बुलबुले तथा कुश के सिरे पर स्थित जल की बूंद की तरह चंचल जानकर सांसारिक अस्थिर पदार्थों को वस्त्र पर लगी हुई रज के समान झाड़ कर, हिरण्य यावत् सुवर्ण परित्याग कर, श्रमण जीवन में दीक्षित हुए । कइयों को दीक्षित हुए आधा महीना, कइयों को एक महीना, दो महीने यावत् ग्यारह महीने हुए थे, कइयों को एक वर्ष, कइयों को दो वर्ष, कइयों को तीन वर्ष तथा कइयों को अनेक वर्ष हए थे। सूत्र -१५
उस समय श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी बहुत से निर्ग्रन्थ संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते थे । उनमें कईं मतिज्ञानी यावत् केवलज्ञानी थे । कईं मनोबली, वचनबली, तथा कायबली थे । कईं मन से, कईं वचन से, कईं शरीर द्वारा अपकार व उपकार करने में समर्थ थे । कईं खेलौषधिप्राप्त, कई जल्लौषधिप्राप्त थे। कईं ऐसे थे जिनके बाल, नाखून, रोम, मल आदि सभी औषधिरूप थे-कईं कोष्ठबुद्धि, कईं बीजबुद्धि, कईं पटबुद्धि, कईं पदानुसारी, बुद्धि-लिये हुए थे । कईं संभिन्नश्रोता, कईं क्षीरास्रव, कईं मध्यास्रव, कई सर्पि-आस्रव-थे, कईं अक्षीणमहानसिक लब्धि वाले थे ।
कईं ऋजुमति तथा कईं विपुलमति मनःपर्यवज्ञानके धारक थे । कईं विकुर्वणा, कईं चारण, कईं विद्याधरप्रज्ञप्ति, कईं आकाशातिपाती-समर्थ थे । कईं कनकावली, कईं एकावली, कईं लघु-सिंह-निष्क्रीड़ित, तथा कईं महासिंहनिष्क्रीड़ित तप करने में संलग्न थे । कईं भद्रप्रतिमा, महाभद्रप्रतिमा, सर्वतोभद्रप्रतिमा तथा आयंबिल वर्द्धमान तप करते थे । कईं एकमासिक भिक्षुप्रतिमा, यावत् साप्तमासिक भिक्षुप्रतिमा ग्रहण किये हुए थे । कई प्रथम सप्तरात्रिन्दिवा यावत् कईं तृतीय सप्तरात्रिन्दिवा भिक्षुप्रतिमा के धारक थे । कईं एक रातदिन की भिक्षुप्रतिमा ग्रहण किये हुए थे । कईं सप्तसप्तमिका, कईं अष्टअष्टमिका, कईं नवनवमिका, कईं दशदशमिका-भिक्षुप्रतिमा के धारक थे । कईं लघुमोकप्रतिमा, कईं यवमध्यचन्द्रप्रतिमा तथा कईं वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा के धारक थे । सूत्र-१६
तब श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी बहुत से स्थविर, भगवान, जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, रूप-सम्पन्न, विनय-सम्पन्न, ज्ञान-सम्पन्न, दर्शन-सम्पन्न, चारित्र-सम्पन्न, लज्जा-सम्पन्न, लाघव-सम्पन्नओजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी-प्रशस्तभाषी । क्रोधजयी, मानजयी, मायाजयी, लोभजयी, इन्द्रियजयी, निद्राजयी, परिषहजयी, जीवन की ईच्छा और मृत्यु के भय से रहित व्रतप्रधान, गुणप्रधान, करणप्रधान, चारित्रप्रधान, निग्रहप्रधान, निश्चय- प्रधान, आर्जवप्रधान, मार्दवप्रधान, लाघवप्रधान, क्रियादक्ष, क्षान्तिप्रधान, गुप्तिप्रधान, मुक्तिप्रधान, विद्याप्रधान, मन्त्रप्रधान, विद्याप्रधान, मन्त्रप्रधान, वेदप्रधान, ब्रह्मचर्यप्रधान, नयप्रधान, नियमप्रधान, सत्यप्रधान, शौचप्रधान, चारुवर्ण, लज्जा तथा तपश्री, शोधि-शुद्ध, अनिदान, अल्पौत्सुक्य थे । अपनी मनोवृत्तियों को संयम से बाहर नहीं जाने देते थे। अनुपम मनोवृत्तियुक्त थे, श्रमण-जीवन के सम्यक् निर्वाह में संलग्न थे, दान्त, वीतराग प्रभु द्वारा प्रतिपादित प्रवचन-प्रमाणभूत मानकर विचरण करते थे।
वे स्थविर भगवान आत्मवाद के जानकार थे । दूसरों के सिद्धांतों के भी वेत्ता थे । कमलवन में क्रीड़ा आदि हेतु पुनः पुनः विचरण करते हाथी की ज्यों वे अपने सिद्धान्तों के पुनः पुनः अभ्यास या आवृत्ति के क सुपरिचित थे । वे अछिद्र निरन्तर प्रश्नोत्तर करते रहने में सक्षम थे । वे रत्नों की पिटारी के सदृश ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि दिव्य रत्नों से आपूर्ण थे । कुत्रिक-सदृश वे अपने लब्धि के कारण सभी अभीप्सित करने में समर्थ थे | परवादिप्रमर्दन, बारह अंगों के ज्ञाता थे । समस्त गणि-पिटक के धारक, अक्षरों के सभी प्रकार के संयोग के जानकार, सब भाषाओं के अनुगामी थे । वे सर्वज्ञ न होते हुए भी सर्वज्ञ सदृश थे । वे सर्वज्ञों की तरह अवितथ, वास्तविक या सत्य प्ररूपणा करत हुए, संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। सूत्र-१७
उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी बहुत से अनगार भगवान थे । वे ईर्या, भाषा,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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