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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' आहार-पानी का परित्याग कर दिया । कटे हुए वृक्ष की तरह अपने शरीर को चेष्टा-शून्य बना लिया। मृत्यु की कामना न करते हुए शान्त भाव से वे अवस्थित रहे । इस प्रकार उन परिव्राजकों ने बहुत से चोरों प्रकार के आहार
शन द्वारा छिन्न किए-वैसा कर दोषों की आलोचना की-उनका निरीक्षण किया, उनसे प्रतिक्रान्त हुए, समाधिदशा प्राप्त की । मृत्यु-समय आने पर देह त्याग कर ब्रह्मलोक कल्प में वे देव रूप में उत्पन्न हुए । उनके स्थान के अनुरूप उनकी गति बतलाई गई है । उनका आयुष्य दस सागरोपम कहा गया है । वे परलोक के आराधक हैं। अवशेष वर्णन पहले की तरह है। सूत्र-५०
भगवन् ! बहुत से लोग एक दूसरे से आख्यात करते हैं, भाषित करते हैं तथा प्ररूपित करते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर नगर में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है । भगवन् ! यह कैसे है ? बहुत से लोग आपस में एक दूसरे से जो ऐसा कहते हैं, प्ररूपित करते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है, यह सच है । गौतम ! मैं भी ऐसा ही कहता हूँ, प्ररूपित करता हँ। अम्बड परिव्राजक के सम्बन्ध में सौ घरों में आहार करने तथा सौ घरों में निवास करने की जो बात कही जाती है, भगवन् ! उसमें क्या रहस्य है ?
गौतम ! अम्बड प्रकृति से भद्र, परोपकारपरायण एवं शान्त है । वह स्वभावतः क्रोध, मान, माया एवं लोभ की हलकापन लिये हुए है । वह मृदुमार्दवसंपन्न, अहंकाररहित, आलीन, तथा विनयशील है । उसने दो-दो दिनों का उपवास करते हुए अपनी भुजाएं ऊंची उठाये, सूरज के सामने मुँह किये आतापना-भूमि में आतापना लेते हुए तप का अनुष्ठान किया । फलतः शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय, विशुद्ध होती हुई प्रशस्त लेश्याओं, उसके वीर्यलब्धि, वैक्रिय-लब्धि तथा अवधिज्ञान-लब्धि के आवरक कर्मों का क्षयोपशम हुआ । ईहा, अपोह, मार्गण, गवेषण, ऐसा चिन्तन करते हुए उसको किसी दिन वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि तथा अवधिज्ञानलब्धि प्राप्त हो गई । अत एव लोगों को आश्चर्य-चकित करने के लिए इनके द्वारा वह काम्पिल्यपुर में एक ही समय में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है । गौतम ! इसीलिए अम्बड परिव्राजक के द्वारा काम्पिल्यपुर में सौ घरों में आहार करने तथा सौ घरों में निवास करने की बात कही जाती है।
भगवन् ! क्या अम्बड परिव्राजक आपके पास मुण्डित होकर-अगारअवस्था से अनगारअवस्था प्राप्त करने में समर्थ है ? गौतम ! ऐसा सम्भव नहीं है-अम्बड परिव्राजक श्रमणोपासक है, जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को अच्छी तरह समझा है यावत् श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रतिलाभित करता हुआ आत्मभावित है। जिसके घर के किवाड़ों में आगल नहीं लगी रहती हो, अपावृतद्वार, त्यक्तान्तःपुर गृह द्वार प्रवेश, ये तीन विशेषताएं थी । अम्बड परिव्राजक ने जीवनभर के लिए स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल परिग्रह तथा सभी प्रकार के अब्रह्मचर्य का प्रत्याख्यान है।
अम्बड परिव्राजक को मार्गगमन के अतिरिक्त गाड़ी की धूरी-प्रमाण जल में शीघ्रता से उतरना नहीं कल्पता। गाड़ी आदि पर सवार होना नहीं कल्पता । यहाँ से लेकर गंगा की मिट्टी के लेप तक का समग्र वर्णन पूर्ववत् जानना । अम्बड परिव्राजक को आधार्मिक तथा औद्देशिक-भोजन, मिश्रजात, अध्यवपूर, पूतिकर्म, क्रीतकृत, प्रामित्य, अनसृष्ट, अभ्याहृत, स्थापित, अपने लिए संस्कारित भोजन, कान्तारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, ग्लानभक्त, वार्दलिकभक्त, प्राधूर्णक-भक्त, अम्बड परिव्राजक को खाना-पीना नहीं कल्पता । इसी प्रकार अम्बड परिव्राजक को मूल, (कन्द, फल, हरे तृण) बीजमय भोजन खाना-पीना नहीं कल्पता।
अम्बड परिव्राजक ने चार प्रकार के अनर्थदण्ड-परित्याग किया । वे इस प्रकार हैं-१. अपध्यानाचरित, २. प्रमादाचरित, ३. हिस्रप्रदान, ४. पापकर्मोपदेश । अम्बड को मागधमान के अनुसार आधा आढक जल लेना कल्पता है । वह भी प्रवहमान हो, अप्रवहमान नहीं । वह परिपूत हो तो कल्प्य, अनछाना नहीं । वह भी सावध, निरवद्य समझकर नहीं । सावध भी वह उसे सजीव, अजीव समझकर नहीं । वैसा जल भी दिया हुआ हि कल्पता है, न दिया हुआ नहीं । वह भी हाथ, पैर, चरु, चमच धोने के लिए या पीने के लिए ही कल्पता है, नहाने के लिए नहीं । अम्बड को मागधमान अनुसार एक आढक पानी लेना कल्पता है। वह भी बहता हआ, यावत दिया हआ ही
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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