Book Title: Agam 12 Aupapatik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 38
________________ आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' भगवन् ! फिर सिद्ध कहाँ निवास करते हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा भूमि के बहसम रमणीय भूभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र तथा तारों के भवनों से बहुत योजन, बहुत सैकड़ों योजन, बहुत हजारों योजन, बहुत लाखों योजन, बहुत करोड़ों योजन तथा बहुत क्रोड़ाक्रोड़ योजन से ऊर्ध्वतर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत कल्प तथा तीन सौ अठारह ग्रैवेयक विमान-आवास से भी ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध महाविमान के सर्वोच्च शिखर के अग्रभाग से बारह योजन के अन्तर पर ऊपर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी कही गई है । वह पृथ्वी पैंतालीस लाख योजन लम्बी तथा चौड़ी है । उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजन से कुछ अधिक है । ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी अपने ठीक मध्य भाग में आठ योजन क्षेत्र में आठ योजन मोटी है । तत्पश्चात् मोटेपन में क्रमशः कुछ कुछ कम होती हुई सबसे अन्तिम किनारों पर मक्खी की पाँख से पतली है। उन अन्तिम किनारों की मोटाई अंगुल के असंख्यातवें भाग के तुल्य है। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह नाम बतलाए गए हैं-ईषत्, ईषत्प्राग्भारा, तनु, तनुतनु, सिद्धि, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय, लोकाग्र, लोकाग्रस्तुपिका, लोकाग्रपतिबोधना और सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावहा । ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी दर्पणतल के जैसी निर्मल, सोल्लिय पुष्प, कमलनाल, जलकण, तुषार, गाय के दूध तथा हार के समान श्वेत वर्णयुक्त है । वह उलटे छत्र जैसे आकार में अवस्थित है । वह अर्जुन स्वर्ण जैसी द्युति लिये हुए है । वह आकाश या स्फटिक जैसी स्वच्छ, श्लक्ष्ण कोमल परमाणु-स्कन्धों से निष्पन्न होने के कारण कोमल तन्तुओं से बुने हुए वस्त्र के समान मुलायम, लष्ट, ललित आकृतियुक्त, घृष्ट, मृष्ट, नीरज, निर्मल, निष्पंक शोभायुक्त, समरीचिका, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप है । ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के तल से उत्सोधांगुल द्वारा एक योजन पर लोकान्त है। उस योजन के ऊपर के कोस के छठे भाग पर सिद्ध भगवान्, जो सादि, अपर्यवसित हैं, जो जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु आदि अनेक योनियों की वेदना, संसार के भीषण दुःख, पुनः पुनः होने वाले गर्भवास रूप प्रपंच अतिक्रान्त कर चूके हैं, अपने शाश्वत, भविष्य में सदा सुस्थिर स्वरूप में संस्थित रहते हैं। सूत्र - ५६-५९ सिद्ध किस स्थान पर प्रतिहत हैं-वे कहाँ प्रतिष्ठित हैं? वे वहाँ से देह को त्याग कर कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं? सिद्ध लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हैं अतः अलोक में जाने में प्रतिहत हैं । इस मर्त्यलोक में ही देह का त्याग कर वे सिद्ध-स्थान में जाकर सिद्ध होते हैं। देह का त्याग करते समय अन्तिम समय में प्रदेशधन आकार, वही आकार सिद्ध स्थान में रहता है । अन्तिम भव में दीर्घ या ह्रस्व जैसा भी आकार होता है, उससे तिहाई भाग कम में सिद्धों की अवगाहना होती है। सूत्र-६०-६३ सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तैंतीस धनुष तथा तिहाई धनुष होती है, सर्वज्ञों ने ऐसा बतलाया है सिद्धों की मध्यम अवगाहना चार हाथ तथा तिहाई भाग कम एक हाथ होती है, ऐसा सर्वज्ञों ने निरूपित किया है। सिद्धों की जघन्य अवगाहना एक हाथ तथा आठ अंगुल होती है, ऐसा सर्वज्ञों द्वारा भाषित है। सिद्ध अन्तिम भव की अवगाहना से तिहाई भाग कम अवगाहनायुक्त होते हैं । जो वार्धक्य और मृत्यु से विप्रमुक्त हो गए हैं उनके संस्थान किसी भी लौकिक आकार से नहीं मिलता। सूत्र-६४ जहाँ एक सिद्ध है, वहाँ भव-क्षय हो जाने से मुक्त हुए अनन्त सिद्ध हैं, जो परस्पर अवगाढ़ हैं । वे सब लोकान्त का संस्पर्श किए हुए हैं । सूत्र-६५ (एक-एक) सिद्ध समस्त आत्म-प्रदेशों द्वारा अनन्त सिद्धों का सम्पूर्ण रूप में संस्पर्श किये हुए हैं । और उनसे भी असंख्यातगुण सिद्ध ऐसे हैं जो देशों और प्रदेशों से-एक-दूसरे में अवगाढ़ हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 38

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