Book Title: Agam 12 Aupapatik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 28
________________ आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' रखने वाले, अल्पारंभ, अल्प परिग्रह, अल्पारंभ-अल्पसमारंभ बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हुए, आयुष्य पूरा कर, मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर वानव्यन्तर देवलोकों में से किसी में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । अवशेष वर्णन पीछले सूत्र के सदृश है । केवल इतना अन्तर है-इनकी स्थिति-आयुष्यपरिमाण चौदह हजार वर्ष का होता है। जो ग्राम, सन्निवेश आदि में स्त्रियाँ होती हैं, जो अन्तःपुर के अन्दर निवास करती हों, जिनके पति परदेश गये हों, जिनके पति मर गये हों, बाल्यावस्था में ही विधवा हो गई हों, जो पतियों द्वारा परित्यक्त कर दी गई हों, जो मातृरक्षिता हों, जो पिता द्वारा रक्षित हों, जो भाइयों द्वारा रक्षित हों, जो कुलगृह द्वारा रक्षित हों, जो श्वसुर-कुल द्वारा रक्षित हों, जो पति या पिता आदि के मित्रों, अपने हितैषियों मामा, नाना आदि सम्बन्धियों, अपने सगोत्रीय देवर, जेठ आदि पारिवारिक जनों द्वारा रक्षित हों, विशेष संस्कार के अभाव में जिनके नख, केश, कांख के बाल बढ़ गये हों, जो धूप, पुष्प, सुगन्धित पदार्थ, मालाएं धारण नहीं करती हों, जो अस्नान, स्वेद जल्ल, मल्ल, पंक पारितापित हों, जो दूध दहीं मक्खन धृत तैल गुड़ नमक मधु मद्य और मांस रहित आहार करती हों, जिनकी ईच्छाएं बहुत कम हों, जिनके धन, धान्य आदि परिग्रह बहुत कम हो, जो अल्प आरम्भ समारंभ द्वारा अपनी जीविका चलाती हों, अकाम ब्रह्मचर्य का पालन करती हों, पति-शय्या का अतिक्रमण नहीं करती हों-इस प्रकार के आचरण द्वारा जीवनयापन करती हों, वे बहत वर्षों का आयुष्य भोगते हुए, आयुष्य पूरा कर, मृत्यु काल आने पर देह-त्याग कर वानव्यन्तर देवलोकों में से किसी में देवरूप में उत्पन्न होती हैं । प्राप्त देवलोक के अनुरूप उनकी गति, स्थिति तथा उत्पत्ति होती है। वहाँ उनकी स्थिति चौंसठ हजार वर्षों की होती है। जो ग्राम तथा सन्निवेश आदि पूर्वोक्त स्थानों में मनुष्य रूप में उत्पन्न होते हैं, जो एक भात तथा दूसरा जल, इन दो पदार्थों का आहार रूप में सेवन करने वाले, उदकतृतीय-भात आदि दो पदार्थ तथा तीसरे जल का सेवन करने वाले, उदकसप्तम, उदकैकादश, गौतम ! विशेष रूप से प्रशिक्षित ठिंगने बैल द्वारा विविध प्रकार के मनोरंजक प्रदर्शन प्रस्तुत कर भिक्षा मांगने वाले, गोव्रतिक, गृहधर्मी को ही कल्याणकारी मानने वाले एवं उसका अनुसरण करने वाले, धर्मचिन्तक, सभासद, विनयाश्रित भक्तिमार्गी, अक्रियावादी, वृद्ध, श्रावक, ब्राह्मण आदि, जो दूध, दही, मक्खन, घृत, तेल, गुड़, मधु, मद्य तथा माँस को अपने लिए अकल्प्य मानते हैं, सरसों के तैल के सिवाय इनमें से किसी का सेवन नहीं करते, जिनकी आकांक्षाएं बहुत कम होती है...ऐसे मनुष्य पूर्व वर्णन के अनुरूप मरकर वानव्यन्तर देव होते हैं । वहाँ उनका आयुष्य ८४ हजार वर्ष का बतलाया गया है। गंगा के किनारे रहने वाले वानप्रस्थ तापस कईं प्रकार के होते हैं जैसे होतृक, पोतृक, कौतृक, यज्ञ करने वाले, श्राद्ध करने वाले, पात्र धारण करने वाले, कुण्डी धारण करने वाले श्रमण, फल-भोजन करने वाले, उन्मज्जक, निमज्जक, संप्रक्षालक, दक्षिणकूलक, उत्तरकूलक, शंखध्मायक, कूलमायक, मृगलुब्धक, हस्तितापस, उद्दण्डक, दिशाप्रोक्षी, वृक्ष की छाल को वस्त्रों की तरह धारण करने वाले, बिलवासी, वेलवासी, जलवासी, वृक्षमूलक, अम्बुभक्षी, वायुभक्षी, शैवालभक्षी, मूलाहार, कन्दाहार, त्वचाहार, पत्राहार, पुष्पाहार, बीजाहार, अपने प गिरे हए, पृथक हए कन्द, मूल, छाल, पत्र, पुष्प तथा फल का आहार करने वाले, पंचाग्नि की आतापना से अपनी देह को अंगारों में पकी हुई सी, भाड़ में भुनी हुई सी बनाते हुए बहुत वर्षों तक वानप्रस्थ पर्याय का पालन करते हैं । मृत्यु-काल आने पर देह त्यागकर वे उत्कृष्ट ज्योतिष्क देवों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ उनकी स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम-प्रमाण होती है। क्या वे परलोक के आराधक होते हैं ? नहीं ऐसा नहीं होता । अवशेष वर्णन पूर्व की तरह जानना चाहिए। (ये) जो ग्राम, सन्निवेश आदि में मनुष्य रूप में उत्पन्न होते हैं, प्रव्रजित होकर अनेक रूप में श्रमण होते हैंजैसे कान्दर्पिक, कौकुचिक, मौखरिक, गीतरतिप्रिय, तथा नर्तनशील, जो अपने-अपने जीवन-क्रम के अनुसार आचरण करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-जीवन का पालन करते हैं, पालन कर अन्त समय में अपने पाप-स्थानों का आलोचन-प्रतिक्रमण नहीं करते-वे मृत्युकाल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट सौधर्म-कल्प में-हास्यक्रीड़ा प्रधान देवों में उत्पन्न होते हैं । वहाँ उनकी गति आदि अपने पद के अनुरूप होती है । उनकी स्थति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की होती है । जो ग्राम...सन्निवेश आदि में अनेक प्रकार के परिव्राजक होते हैं, जैसे-सांख्य, योगी, कापिल, भार्गव, हंस, परमहंस, बहूदक तथा कुटीचर संज्ञक चार प्रकार के यति एवं कृष्ण परिव्राजक-उनमें आठ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 28

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