Book Title: Agam 12 Aupapatik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 18
________________ आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' मनोगम, विमल तथा सर्वतोभद्र नामक अपने-अपने विमानों से भूमि पर ऊतरे । वे मृग, महिष, वराह, छगल, दर्दुर, हय, गजपति, भुजग, खड्ग, तथा वृषभ के चिह्नों से अंकित मुकूट धारण किये हुए थे। वे श्रेष्ठ मुकूट सुहाते उनके सुन्दर मस्तकों पर विद्यमान थे । कुंडलों की उज्ज्वल दीप्ति से उनके मुख उद्योतित थे । मुकूटों से उनके मस्तक दीप्त थे। वे लाल आभा लिये हुए, पद्मगर्भ सदृश गौर कान्तिमय, श्वेत वर्णयुक्त थे। शुभ वर्ण, गन्ध, स्पर्श आदि के निष्पादनमें उत्तम वैक्रियलब्धि धारक थे । वे तरह-तरह के वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य तथा मालाएं धारण किये हुए थे। वे परम ऋद्धिशाली एवं परम द्युतिमान थे। हाथ जोड़ कर भगवान की पर्युपासना करने लगे उस समय भगवान महावीर के समीप अनेक समूहों में अप्सराएं उपस्थित हुईं । उनकी दैहिक कान्ति अग्नि में तपाये गए, जल से स्वच्छ किये गये स्वर्ण जैसी थी । वे बाल-भाव को अतिक्रान्त कर यौवन में पदार्पण कर चूकी थी । उनका रूप अनुपम, सुन्दर एवं सौम्य था । उनके स्तन, नितम्ब, मुख, हाथ, पैर तथा नेत्र लावण्य एवं यौवन से विलसित, उल्लसित थे । दूसरे शब्दों में उनके अंग-अंग में सौन्दर्य-छटा लहराती थी । वे निरुपहत, सरस सिक्त तारुण्य से विभूषित थी । उनका रूप, सौन्दर्य, यौवन सुस्थिर था, जरा से विमुक्त था । वे देवियाँ सुरम्य वेशभूषा, वस्त्र, आभरण आदि से सुसज्जित थीं। उनके ललाट पर पुष्प जैसी आकृति में निर्मित आभूषण, उनके गले में सरसों जैसे स्वर्ण-कणों तथा मणियों से बनी कंठियाँ, कण्ठसूत्र, कंठले, अठारह लड़ियों के हार, नौ लड़ियों के अर्द्धहार, बहुविध मणियों से बनी मालाएं, चन्द्र, सूर्य आदि अनेक आकार की मोहरों की मालाएं, कानों में रत्नों के कुण्डल, बालियाँ, बाहुओंमें त्रुटिक, बाजूबन्द, कलाइयों में मानिक-जड़े कंकण, अंगुलियों में अंगुठियाँ, कमरमें सोने की करधनियाँ, पैरोंमें सुन्दर नूपुर, तथा सोने के कड़ले आदि बहुत प्रकार के गहने सुशोभित थे। वे पँचरंगे, बहुमूल्य, नासिका से नीकलते निःश्वास मात्र से जो उड़ जाए-ऐसे अत्यन्त हलके, मनोहर, सुकोमल, स्वर्णमय तारों से मंडित किनारों वाले, स्फटिक-तुल्य आभायुक्त वस्त्र धारण किये हुए थीं । उन्होंने बर्फ, गोदुग्ध, मोतियों के हार एवं जल-कण सदृश स्वच्छ, उज्ज्वल, सुकुमार, रमणीय, सुन्दर बुने हुए रेशमी दुपट्टे ओढ़ रखे थे। वे सब ऋतओं में खिलने वाले सरभित पुष्पों की उत्तम मालाएं धारण किये हए थीं । चन्दन, सुगन्धमय पदार्थों से निर्मित देहरञ्जन से उनके शरीर रञ्जित एवं सुवासित थे, श्रेष्ठ धूप द्वारा धूपित थे । उनके मुख चन्द्र जैसी कान्ति लिये हुए थे । उनकी दीप्ति बिजली की द्युति और सूरज के तेज सदृश थी। उनकी गति, हँसी, बोली, नयनों के हावभाव, पारस्परिक आलाप-संलाप इत्यादि सभी कार्य-कलाप नैपुण्य और लालित्ययुक्त थे। उनका संस्पर्श शिरीष पुष्प और नवनीत जैसा मृदुल तथा कोमल था । वे निष्कलुष, निर्मल, सौम्य, कमनीय, प्रियदर्शन थीं। वे भगवान के दर्शन की उत्कण्ठा से हर्षित थीं। सूत्र - २७ उस समय चम्पा नगरी के सिंघाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चत्वरों, चतुर्मुखों, राजमार्गों, गलियों में मनुष्यों की बहुत आवाज आ रही थी, बहुत लोग शब्द कर रहे थे, आपस में कह रहे थे, फुसफुसाहट कर रहे थे । लोगों का बड़ा जमघट था । वे बोल रहे थे। उनकी बातचीत की कलकल सुनाई देती थी। लोगों की मानो एक लहर सी उमड़ी आ रही थी । छोटी-छोटी टोलियों में लोग फिर रहे थे, इकट्ठे हो रहे थे । बहुत से मनुष्य आपस में आख्यान कर रहे थे, अभिभाषण कर रहे थे, प्रज्ञापित कर रहे थे, प्ररूपित कर रहे थे-देवानुप्रियो ! आदिकर, तीर्थंकर, स्वयं संबुद्ध, पुरुषोत्तम, सिद्धि-गतिरूप स्थान की प्राप्ति हेतु समुद्यत भगवान महावीर, यथाक्रम विहार करते हुए, ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यहाँ आए हैं, समवसृत हुए हैं । यहीं चम्पा नगरी के बाहर यथोचित स्थान ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को अनुभावित करते हुए बिराजित हैं । हम लोगों के लिए यह बहुत ही लाभप्रद है । देवानुप्रियो ! ऐसे अर्हत भगवान के नाम-गोत्र का सूनना भी बहुत बड़ी बात है, फिर अभिगमन, वन्दन, नमन, प्रतिपृच्छा, पर्युपासना करना-सान्निध्य प्राप्त करना-इनका तो कहना ही क्या ! सद्गुणनिष्पन्न, सद्धर्ममय एक सुवचन का श्रवण भी बहुत बड़ी बात है; फिर विपुल अर्थ के ग्रहण की तो बात ही क्या ! अतः देवानुप्रियो ! अच्छा हो, हम जाएं और श्रमण भगवान महावीर को वन्दन करें, नमन करें, उनका सत्कार करें, सम्मान करें । भगवान कल्याण हैं, मंगल हैं, देव हैं, तीर्थस्वरूप हैं । उनकी पर्युपासना करें । यह इस भव में, परभव में हमारे लिए हितप्रद सुखप्रद, क्षान्तिप्रद तथा निश्रेयसप्रद सिद्ध होगा। , प्रज्ञापित कर रहे थे. जब का हो रहे थे । बहुत से मनुष्य मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 18

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