Book Title: Adhyatmik Tripthaga Bhakti Karm Aur Gyan Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 5
________________ छाया तो तभी मिलेगी, जब आप छाया में जाकर बैठेंगे। जाकर बैठना आवश्यक है, छाया स्वयं मिल जाएगी। छाया का मांगना क्या ? "छाया तरुं संश्रयतः स्वतः स्यात् । किं छायया याचितयात्मलाभः ?" यही स्वर भगवान् महावीर की वाणी का है---"यदि अच्छे फल चाहते हो, तो अच्छे कर्म करो, यदि मुक्ति चाहते हो तो संयम, तप, तितिक्षा का आचरण करो! केवल प्रार्थना से मुक्ति नहीं मिलेगी। इस संसार में तुम्हें पड़े-पड़े मुक्त कर देने वाला कोई भगवान् या देवता नहीं है। तुम्हारा सत्कर्म ही तुम्हारा देवता है, वही तुम्हें मुक्ति के द्वार तक ले जाएगा।" तथागत बुद्ध से जब पूछा गया कि मनुष्य की आत्मा पवित्र कैसे होती है, तो उन्होंने बड़े गम्भीर स्वर से कहा "कम्मं विज्जा च धम्मो च, सीलं जीवितमुत्तमं । एतेन मच्चा सुझंति, न गोत्तेन धनेन वा?" १ कर्म, विद्या धर्म, शील (सदाचार) एवं उत्तम जीवन-इनसे ही मनुष्य की आत्मा परिशुद्ध होती है, धन या गोत्र से नहीं। गुरु : एक मार्गदर्शक : * भक्ति-योग में अहंकार को तोड़ने एवं समर्पित होने की भावना का महत्त्व तो है, किंतु जब समर्पण के साथ पराश्रित वृत्ति का संयोग हो जाता है, साधक भगवान् और गुरु को ही सब-कुछ मानकर कर्म-योग से विमुख होने लगता है, तब भक्ति-योग में निष्क्रियता एवं जड़ता आ जाती है। यह जड़ता जीवन के लिए खतरनाक है। हम एक बार दिल्ली से विहार करके आगरा की अोर पा रहे थे। एक गांव में किसी महंत के मठ में ठहरे। बड़े प्रेम से उन्होंने स्वागत किया। रात को जब बातचीत चली, तो उनके शिष्य ने कहा-"गुरु ! मुझे गुस्सा बहुत प्राता है, इसको समाप्त कर दो न !" __ मैं जब कुछ साधना बताने लगा, तो बोला--"यह साधना-वाधना मुझ से कुछ नहीं होती, मेरे इस विष को तुम चूस लो।" ___ मैंने कहा--"भाई ! मैं तो ऐसा गारुड़ी नहीं हूँ, जो दुनिया के विष को चूसता वह बोला- "गुरु तो गारुड़ी होता है। तुम मेरे गुरु हो, फिर क्यों नहीं चूस लेते ?" मैने पूछा--"क्या आज तक कोई ऐसा गुरु मिला ?" बोला-"अभी तक तो मिला नहीं।" मैंने कहा--भले आदमी ! अब तक मिला नहीं, तो क्या अब मिल जाएगा? गुरु तो सिर्फ विष को दूर करने का साधन मात्र बताता है, चेलों का विष चूसता नहीं फिरता । मैं रास्ता बता सकता हूँ, चलना चाहो, तो चल सकते हो। हमारा भगवान् और गुरु तो मार्ग दिखाने वाला 'मगदयाणं' है, घसीट कर ले जाने वाला नहीं है। वह तुमको दृष्टि दे सकता, है 'चक्खुदयाणं' उसका विरुद है, किन्तु यह नहीं कि तुम अन्धों की अँगुली पकड़ कर घुमाता फिरे । अाँख की ज्योति खराब हो गई है, तो डाक्टर इतना ही कर सकता है कि दवा दे दे, आपरेशन कर दे, अाँख ठीक हो जाए। यह नहीं कि वह आपकी लकुटिया पकड़ कर घिसटता रहे। मैंने कहा--"भाई, हम तो दृष्टि देने वाले हैं, अाँख की दवा देने वाले हैं। आँख ठीक हो जाए, तो फिर चलना या न चलना, यह काम तुम्हारा है।" १. मज्झिमनिकाय, ३।४३।३ फिरूँ।" प्राध्यात्मिक त्रिपथगा : भक्ति, कर्म और ज्ञान Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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