Book Title: Adhyatmik Tripthaga Bhakti Karm Aur Gyan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 4
________________ को पंगु और परापेक्षी, दीन-हीन बना देता है । जैन-दर्शन मानव को इस मानसिक अक्षमता से मुक्त करके आत्मनिर्भर बनाता है। आत्मबल पर विश्वास करने की प्रेरणा देता है। ऐसे में, जैन-दर्शन निरीश्वरवादी कहाँ है ? उसने जितने ईश्वर माने हैं, उतने तो शायद किसी ने नहीं माने । कुछ लोगों ने ईश्वर एक माना है, कुछ ने किसी व्यक्ति-विशेष और शक्ति-विशेष को ईश्वर मान लिया है। कुछ ने ईश्वर को व्यापक मानकर भी सर्वन अवतार रूप में उसका अंश माना है, सम्पूर्ण रूप नहीं। किन्तु, जैन-दर्शन की यह विशिष्टता है कि वह प्रत्येक आत्मा में ईश्वर का दर्शन करता है। वह ईश्वर को एक व्यक्ति-विशेष या शक्ति-विशेष नहीं, गुण-विशेष मानता है। वह गुण सत्ता रूप में प्रत्येक आत्मा में हैएक संत की आत्मा में भी है और दुराचारी की प्रात्मा में भी। एक प्रात्मा में वे गुण व्यक्त हो गए हैं या हो रहे हैं, एक में अभी सुप्त हैं। रावण में जब राम प्रकट हो जाता है, तो फिर वह रावण नहीं रहता, वह भी राम ही हो जाता है। जैन-दर्शन की अध्यात्म-दष्टि इतनी सुक्ष्म है कि वह राम में ही राम को नहीं, अपित रावण में भी राम को देखती है, और उसे व्यक्त करने की प्रेरणा देती है। यदि रावण में राम को जगाना, राम की सत्ता का विरोध या अस्वीकार माना जाए, तो यह गलत बात होगी। जैन-दर्शन प्रत्येक आत्मा में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करता है, और उस सत्ता को व्यक्त करने के लिए ही प्रेरणा देता है। यह प्रेरणा ही सच्चा कर्म-योग है । वह भक्तियोग से इन्कार नहीं करता, पूजा-पाठ, जप, स्तोत्र आदि के रूप में भक्ति-योग की सभी साधनाएँ वह स्वीकार करके चलता है, किन्तु केवल भक्ति-योग तक ही सीमित रहने की बात वह नहीं कहता। इसके आगे कर्म-योग को स्वीकार करने की बात भी कहता है। वह कहता है-बचपन, बचपन में सुहावना है, जवानी में बचपन की आदतें मत रखो। अब जवान हो, जवानी का रक्त तुम्हारी नसों में दौड़ रहा है, तो फिर दूसरों का सहारा ताकने की बात, भूख लगने पर माँ का आँचल खींचने की आदत और भय सामने आने पर छुप जाने की प्रवृत्ति ठीक नहीं है। रोने से बालक का काम चल सकता है, किन्तु युवक का काम नहीं चलेगा। प्रभु के सामने रोने-धोने से मुक्ति नहीं मिलेगी, केवल प्रार्थनाएँ करने से ये बन्धन नहीं टूटेंगे, प्रार्थना के साथ पुरुषार्थ भी करना होगा। भक्ति के साथ सत्कर्म भी करना होगा। कर्म ही देवता है: भगवान् महावीर की धर्म क्रान्ति की यह एक मुख्य उपलब्धि है कि उन्होंने ईश्वर की जगह कर्म को प्रतिष्ठा दी। भक्ति के स्थान पर सदाचार और सत्कर्म का सूत्र उन्होंने दिया। उन्होंने कहा "सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला हवन्ति । दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णकला हवन्ति !" "अच्छे कर्म अच्छे फल देने वाले होते हैं, बुरे कर्म बुरे फल देने वाले होते हैं।" यदि आप मिश्री खाते हैं, तो भगवान से प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं कि वह आपका मुंह मीठा करे। और मिर्च खाकर यह प्रार्थना करने की भी जरूरत नहीं--कि प्रभो! मेरा मैंह न जले। मिश्री खाएँगे, तो मुंह मीठा होगा ही, और मिर्च खाएँगे, तो मुंह जलेगा ही। जैसा कर्म होगा, वैसा ही तो फल मिलेगा। भगवान् इसमें क्या करेगा? भगवान् इतना बेकार नहीं है कि वह आपका मुंह मीठा करने के लिए भी आए और आपके मुंह को जलने से बचाने के लिए भी पाए। मार्ग में चलते हुए यदि धूप लग रही है और छाया की आवश्यकता है, तो आपको छाया में जाना चाहिए। यदि आप छाया में न जाकर वृक्ष से प्रार्थना करने लगें-- "हे तरुराज! हमें छाया दीजिए ! तो क्या वह छाया देगा ?" १. औपपातिक सूत्र, ५६ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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