Book Title: Adhyatmik Tripthaga Bhakti Karm Aur Gyan Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 1
________________ आध्यात्मिक त्रिपथगा : भक्ति, कर्म और ज्ञान मानव जीवन की तीन अवस्थाएँ हैं : १. बचपन! . २. जवानी ! ३. बुढ़ापा! मानव का जीवन इन तीन धाराओं से गुजरता है, और प्रत्येक धारा के साथ एक विशेष प्रकार की वृत्ति जन्म लेती है और अवस्था-विशेष के साथ-साथ वह वृत्ति बदलती भी रहती है। जीवन की प्रथम अवस्था है-बचपन ! शैशव ! बालक की वृत्ति परापेक्षी होती है। वह सहारा खोजता है, प्रारम्भ में चलने के लिए उसे कोई न कोई अंगुली पकड़ने वाला चाहिए। माँ उसे अँगुली पकड़कर चलाती है, अपने हाथ से खिलाती है। वह खुद खा भी नहीं सकता। गन्दा हो जाए, तो खुद साफ भी नहीं हो सकता। कोई सफाई करने वाला; नहलाने वाला चाहिए। अपने हाथ से नहा भी नहीं सकता। खड़ा रहेगा कि कोई नहला दे, देखता रहेगा कि कोई खिला दे। मतलब यह है कि बालक की प्राय: हर प्रवृत्ति, पूर्ति के लिए किसी दूसरे की अपेक्षा रखती है। माँ हो, या अन्य कोई, जब उसे सहारा मिलेगा, तभी उसकी अपेक्षा पूरी हो सकेगी। साधना का शैशव : भक्ति-योग : हमारी साधना भी इसी प्रकार अपने एक शैशव-काल के बीच से गुजरती है, उस अवस्था का नाम है-'भक्ति-योग! भक्त अपने आप को एक बालक के रूप में समझता है। वह भगवान् के समक्ष अपने को उनके बालक के रूप में ही प्रस्तुत करता है। भक्त अपने व्यक्तित्व का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं समझता। जीवन में स्वयं के कर्तापन का भाव जागृत ही नहीं होने देता। भगवान् से ही सब-कुछ अपेक्षा रखता है--"प्रभु तू ही तारने वाला है, तू ही मेरा रक्षक है ! जो कुछ है तू ही है। “त्वमेव माता च पिता त्वमेव" यह भगवदाश्रित वृत्ति है, जिसे साधना की भाषा में 'भक्ति-योग' कहा जाता है। 'भक्ति-योग' जीवन की प्राथमिक दशा में अपेक्षित रहता है। बालक को जब तक अपने अस्तित्व का बोध नहीं होता, वह माता की शरण चाहता है। भूख लगी तो माँ के पास दौड़कर जाएगा। प्यास लगी तो माँ को पुकारेगा। कोई भय तथा कष्ट पाता है, तो माँ के आंचल में छुप जाता है। भक्त का मन भी जब व्याकुल होता है, तो वह भगवान् को पुकारता है, जब कष्ट पाते हैं, तो भगवान् की शरण में जाता है, प्रार्थना करता है। जब समस्याएं घेर लेती हैं, तो भगवान् को हाथ जोड़ता है-"प्रभु ! मेरे कष्ट मिटा दो! मैं तुम्हारा अबोध बालक हूँ।" इस प्रकार की प्रार्थनाएँ भारत के प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय में प्रचलित हैं। वैदिक परम्परा में तो इसका जन्म ही हुआ है। मानव मन का सत्य तो यह है कि साधना के प्रत्येक प्रथम काल में प्रत्येक साधक इसी भाव की और उन्मुख होता है, बचपन की तरह जीवन की यह सहज वृत्ति इसमें विचारों की प्रस्फुटता, आध्यात्मिक त्रिपथगा : भक्ति, कर्म और ज्ञान Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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