Book Title: Adhyatmik Sadhna ka Vikaskram Gunsthan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 11
________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम : गुणस्थान ५१५ किन्तु एक समयवर्ती जीवों के अध्यवसायों में भी असंख्यात गुणी न्यूनाधिक विशुद्धि होती है । एतदर्थ यह विसदृश परिणाम विशुद्धि का गुणस्थान है।" निवृत्ति चादर का दूसरा नाम अपूर्वकरण भी है। यहां यह ज्ञातव्य है हम जिन यथाप्रवृत्तिकरण आदि तीन करण परिणामों का निरूपण सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय कर आये हैं वे ही तीनों करण चारित्र मोहनीय के उपशमन एवं क्षपण के समय भी होते हैं उनमें से प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण सातिशय अप्रमत्तसंयत में होता है और दूसरा करण आठवें गुणस्थान में होता है। इसी कारण इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण भी है। तीसरा करण नौवें गुणस्थान में होता है । अतः इसकी अपेक्षा इस गुणस्थान का नाम अनिवृत्तिकरण रखा है। आचार्य हरिभद्र ने इसे द्वितीय अपूर्वकरण कहा है।" इस गुणस्थान में अपूर्व विशुद्धि, पूर्व गुणस्थानों में जो परिणाम अभी तक प्राप्त नहीं हुए, ऐसे विशुद्ध परिणाम होते हैं । एतदर्थ इसका नाम अपूर्वकरण है।" इस गुणस्थान में पहले कमी न आया हो वैसा विशुद्ध भाव आता है जिससे आत्मा गुणश्रेणी पर आरूढ़ होने की तैयारी करने लगता है। आरोह की दो श्रेणियाँ हैं - ( १ ) उपशम और (२) क्षपक । मोह को उपशान्त कर आगे बढ़ने वाला जीव ११वें गुणस्थान तक मोह का सर्वथा उपशान्त कर वीतराग बन जाता है । उपशम अल्पकालीन होता है, इसलिए मोह के उभरने पर वह पुनः नीचे की भूमिकाओं में आ जाता है। क्षपकश्र ेणी प्रतिपन्न जीव मोह को खपाकर दसवें गुणस्थान से सीधा बारहवें गुणस्थान में चला जाता है और वीतराग बन जाता है। क्षीणमोह का अवरोह नहीं होता । आठवें गुणस्थान के सात भाग हैं । उनमें प्रथम भाग में सातवें गुणस्थान वाली ५६ प्रकृतियों में से देवायु को घटा देने पर शेष ५८ प्रकृतियाँ बँधती हैं । द्वितीय भाग से लेकर छठे भाग तक ५६ प्रकृतियाँ बँधती हैं क्योंकि वहाँ निद्रा और प्रचला ये दो प्रकृतियां नहीं बंधती हैं । सातवें भाग में २६ प्रकृतियां बंधती हैं। पूर्व की प्रकृतियों में से (१) देवगति, (२) देवानुपूर्वी, (३) पंचेन्द्रिय जाति, (४) शुभ विहायोगति, (५) त्रस, (६) बादर, (७) पर्याप्त, (८) प्रत्येक, (६) स्थिर, (१०) शुभ, (११) सुभग, (१२) सुस्वर, (१३) आदेय, (१४) बैंकिमशरीर (१४) आहारकदारी (१५) तेजस्सरीर, (१७) कार्मणशरीर, (१८) समचतुरख संस्थान, (११) क्रिय अंगोपांग, (२०) आहारक अंगोपांग, (२१) निर्माण नाम (२२) तीर्थंकर (जिन) नाम (२३) वर्ण, (२४) गन्ध, (२५) रस, (२६) स्पर्धा (२७) अगुरुलघु, (२८) उपघात, (२२) पराधात, (३०) श्वासो च्छास, इस प्रकार ३० कर्म प्रकृतियाँ कम करने से २६ कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है। 1 १. अनिवृतिमावर अनिवृत्ति का अर्थ 'अभेद' है अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के एक समयवर्ती जीवों की परिणामविशुद्धि सदृश ही होती है । इसलिए यह सदृश परिणाम विशुद्धि का गुणस्थान है ।" इस कारण इस गुणस्थान का अनिवृत्तिबादर गुणस्थान है । इसे अनिवृत्तिबादर सम्पराय अथवा वादर सम्पराय ( कषाय) भी कहते हैं । पूर्व-पूर्ववर्ती गुणस्थानों की अपेक्षा से उत्तर-उत्तरवर्ती गुणस्थानों में कषाय के अंश कम होते जाते हैं। वैसेवैसे परिणामों की विशुद्धि भी बढ़ती जाती है। आठवें गुणस्थान के परिणामों की विशुद्धि की अपेक्षा नौवें गुणस्थान में परिणामों की विशुद्धि अनन्तगुणी अधिक है। इस गुणस्थान में होने वाले परिणामों द्वारा आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की गुण गी, निर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थिति-खण्डन और अनुभागखण्डन होता है। अभी तक करोड़ों सागर की स्थिति वाले कर्म बँधते जाते थे । उनका स्थिति बन्ध उत्तरोत्तर कम होता जाता है। यहाँ तक कि इस गुणस्थान के अन्तिम समय में पहुँचने पर मोहनीय कर्म की जो जघन्य अन्तर्मुहूर्त स्थिति बतायी गयी है तत्प्रमाण स्थिति का बन्ध होता है । कर्मों के सत्त्व का भी अत्यधिक परिणाम में ह्रास होता है। प्रति समय कर्म-प्रदेशों की निर्जरा भी असंख्यात गुणी बढ़ती जाती है । यह स्थिति खण्डन आठवें गुणस्थान से ही प्रारम्भ हो जाता है और इस गुणस्थान उसकी मात्रा पहले से अधिक बढ़ जाती है । इस गुणस्थान में उपशमश्र णी वाला जीव मोहकर्म की एक सूक्ष्म लोभवृत्ति को छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियों का उपशमन कर लेता है और क्षपकश्र ेणी वाला उन्हीं प्रकृतियों का क्षय करता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि क्षपकश्रेणी वाला मोहनीयकर्म की प्रकृतियों के साथ अन्य कर्मों की भी अनेक प्रकृतियों का क्षय करता है । में Jain Education International For Private & Personal Use Only ० ० www.jainelibrary.org

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