Book Title: Adhyatmik Sadhna ka Vikaskram Gunsthan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 1
________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम : गुणस्थान '00" आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम गुणस्थान * देवेन्द्र मुनि शास्त्री १४ जैन श्वेताम्बर आगम साहित्य में कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । समवायांग में गुणस्थान के स्थान पर जीवस्थान शब्द आता है । सर्वप्रथम गुणस्थान शब्द का प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार २ तथा 'प्राकृत पंचसंग्रह' व 'कर्मग्रन्थ में मिलता है। आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में' जीवों को गुण कहा है। उनके अभिमतानुसार चौदह जीवस्थान कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि की भावाभावजनित अवस्थाओं से निष्पन्न होते हैं । परिणाम और परिणामी का अभेदोपचार करने से जीवस्थान को गुणस्थान कहा है । गोम्मटसार में गुणस्थान को जीव- समास मी कहा है । षट्खण्डागम की धवलावृत्ति के अनुसार जीव गुणों में रहते हैं, एतदर्थ उन्हें जीव-समास कहा है। कर्म के उदय से जो गुण उत्पन्न होते हैं, वे औदयिक हैं । कर्म के उपशम से जो गुण उत्पन्न होते हैं, वे औपशमिक हैं । कर्म के क्षयोपशम से जो गुण उत्पन्न होते हैं, वे क्षायोपशमिक हैं। कर्म के क्षय से जो गुण उत्पन्न होते हैं, वे क्षायिक हैं। कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के बिना जो गुण स्वभावतः पाया जाता है वह पारिणामिक है । इन गुणों के कारण जीव को भी गुण कहा जाता है । जीवस्थान को पश्चात्वर्ती साहित्य में इसी दृष्टि से गुणस्थान कहा गया है । ५०५ **************** नेमिचन्द्र ने संक्षेप और ओघ ये दो गुणस्थान के पर्यायवाची माने हैं।" कर्मग्रन्थ में जिन्हें चौदह जीवस्थान बताया है।" उन्हें ही समवायांग सूत्र में चौदह भूत-ग्राम की संज्ञा " प्रदान की गयी है । जिन्हें कर्मग्रन्थ में गुणस्थान कहा गया है उन्हें समवायांग में जीवस्थान कहा है। इस प्रकार कर्मग्रन्थ और समवायांग में संज्ञाभेद है । Jain Education International समवायांग में जीवस्थानों की रचना का आधार कर्म विशुद्धि बताया गया है ।" टीकाकार आचार्य अभयदेव नेमी गुणस्थानों को ज्ञानावरण प्रभृति कर्मों की विशुद्धि से निष्पन्न बताया है । दिगंबराचार्य नेमिचन्द्र का अभिमत है कि प्रथम चार गुणस्थान दर्शन-मोह के उदय आदि से होते हैं और आगे के गुणस्थान चारित्र मोह के क्षयोपशम आदि से निष्पक्ष होते हैं।" जैनदर्शन का मन्तव्य है कि आत्मा का सही स्वरूप शुद्ध ज्ञानमय और परिपूर्ण सुखमय है । आत्मा अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यं युक्त है । कर्मों ने उसके स्वरूप को विकृत या आवृत कर दिया है। जब कर्मावरण की घनघोर घटाएँ गहरी छा जाती हैं तब आत्म-ज्योति मन्द और मन्दतम हो जाती है, पर ज्यों-ज्यों कर्मों का आवरण छँटता है अथवा उसका बन्धन शिथिल होता है त्यों-त्यों उसकी शक्ति प्रकट होने लगती है प्रथम गुणस्थान में आत्म-शक्ति का प्रकाश अत्यन्त मन्द होता है। अगले गुणस्थानों में वह प्रकाश अभिवृद्धि को प्राप्त होता है और अन्त मे चौदहवें गुणस्थान में आत्मा विशुद्ध अवस्था में पहुंच जाता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये आत्म-शक्ति को आच्छादित करने वाले आवरण हैं । इन चार प्रकार के आवरणों में मोहनीय रूप आवरण मुख्य है। मोह की तीव्रता और मन्दता पर अन्य आवरणों की तीव्रता और मन्दता अवलम्बित है । एतदर्थं ही गुणस्थानों की व्यवस्थाओं में मोह की तीव्रता और मन्दता पर अधिक ध्यान दिया गया है । मोहनीयकर्म के दो मुख्य भेद हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीय के उदय से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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