Book Title: Adhyatmik Sadhna ka Vikaskram Gunsthan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 10
________________ ५१४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड भगवती सूत्र में मंडितपुत्र ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि भगवन्, प्रमत्तसंयत में रहता हुआ सम्पूर्ण प्रमत्तकाल कितना होता है ? जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान ने कहा-एक जीव की अपेक्षा से जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशन्यून करोड़ पूर्व और सभी जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल है। इसी प्रकार अप्रमत्तसंयत के सम्बन्ध में प्रश्न करने पर भगवान ने कहा-एक जीव की अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट देशन्यून करोड़ पूर्व है । यहाँ पर प्रश्न में "सव्वाविणं पमत्तद्धा" शब्द का प्रयोग हुआ है जो इस बात का सूचक है प्रमत्तसंयत काल सम्पूर्ण कितना है अतः प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन दोनों गुणस्थानों में एक जीव आते-जाते सम्पूर्ण काल मिलाकर कितना रहता है ? तो उत्तर में देशन्यून करोड़ पूर्व बताया है। आचार्य अभयदेव ने प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में इस बात को स्पष्ट किया है।५।। मोक्षमार्ग ग्रन्थ में श्री रतनलाल दोषी ने तथा अन्य अनेक लेखकों ने एवं स्तोक संग्रहों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान की उत्कृष्ट स्थिति देशोनकरोड़ पूर्व की लिखी है, पर यह भ्रम है, चूंकि उपर्युक्त सभी श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थों के हमने जो प्रमाण दिये हैं उससे यही स्पष्ट है कि छठे और सातवें दोनों गुणस्थानों मे उतार-चढ़ाव को मिलाकर देशोन करोड़ पूर्व की स्थिति कही है, न कि यह केवल छठे गुणस्थान की ही स्थिति है। ७. अप्रमत्तसंयत ___ इस गुणस्थान में अवस्थित साधक प्रमाद से रहित होकर आत्म-साधना में लीन रहता है, इसलिए इसे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा गया है। यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि छठे और सातवें गुणस्थान का परिवर्तन पुनः पुनः होता रहता है । जब साधक में आत्म-तल्लीनता होती है तब वह सातवें गुणस्थान में चढ़ता है और प्रमाद का उदय आने पर छठे गुणस्थान में चला जाता है। . वर्तमान काल में कोई भी साधु सातवें गुणस्थान के ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ नहीं सकता। चूंकि ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ने के लिए जो उत्तम संहनन तथा पात्रता चाहिए उसका वर्तमान काल में अभाव है। सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक का काल परम समाधि का काल है। यह परम समाधि की दशा छद्मस्थ जीव को अन्तमुहूर्त काल से अधिक नहीं रह सकती। अतः सातवें, आठवें आदि एक-एक गुणस्थान का काल भी अन्तर्मुहुर्त है और सभी का सामूहिक काल भी अन्तर्मुहूर्त है । सातवें गुणस्थान के दो भेद हैं-(१) स्वस्थान अप्रमत्त, (२) सातिशय अप्रमत्त । सातवें गुणस्थान से छठे गुणस्थान में और छठे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान में आना-जाना स्वस्थान अप्रमत्तसंयत में होता है किन्तु जो श्रमण मोहनीय कर्म का उपशमन या क्षपण करने को उद्यत होते हैं वे सातिशय अप्रमत्त हैं । उस समय ध्यानावस्था में चारित्रमोहनीय-कर्म के उपशमन या क्षपण के कारणभूत अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नाम वाले एक विशिष्ट जाति के परिणाम जीव में प्रकट होते हैं जिनके द्वारा वह जीव चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन या क्षय करने में समर्थ होता है । इनमें से अधःकरण रूप विशिष्ट परिणाम सातिशय अप्रमत्तसंयत में प्रकट होते हैं । इन परिणामों से वह संयत मोहकर्म के उपशमन या क्षपण के लिए उत्साहित होता है । सातवें गुणस्थान में आहारक द्विक का बन्ध होने लगता है। अत: छठे गुणस्थान में बंधने वाली ५७ में इन दो के मिला देने पर ५६ प्रकृतियों का बन्ध होता है । कुछ आचार्यों की यह मान्यता है कि जिस जीव ने छठे गुणस्थान में देवायु, का बन्ध प्रारम्भ कर दिया है उसकी अपेक्षा ही सातवें में देवायु का बन्ध होने पर ५६ प्रकृतियों का बन्ध होता है । किन्तु जिसने छठे गुणस्थान में देवायु का बन्ध प्रारम्भ नहीं किया है उसके सातवें में चढ़ने पर देवायु का बन्ध नहीं होता । अतः ऐसे जीव की अपेक्षा ५८ प्रकृतियों का ही बन्ध होता है। उक्त दोनों विवक्षाओं से इस गुणस्थान में ५८ या ५६ कर्म प्रकृति का बन्ध होता है । इस गुणस्थान की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । ८. निवृत्ति बादर-(अपूर्वकरण) इस गुणस्थान में जो निवृत्ति शब्द आया है उसका अर्थ 'भेद' है निवृत्तिबादर गुणस्थान की स्थिति अन्तमहुर्त की है। उसके असंख्यात समय है। इसमें भिन्न समयवर्ती जीवों की परिणामविशुद्धि तो एक सदृश नहीं होती, ०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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