Book Title: Adhyatmik Sadhna ka Vikaskram Gunsthan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ ० O ५१८ Jain Education International श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड 646 444444 16 24 4********* ************* प्रारंभ के तीन गुणस्थान वाले जीवों की बहिरात्मा संज्ञा है । चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान वाले जीवों को अन्तरात्मा कहते हैं। और तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान वाले जीव परमात्मा कहलाते हैं।" प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव पूर्ण रूप से बहिरात्मा है। द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव में बहिरात्म-तत्त्व प्रथम गुणस्थानवर्ती की अपेक्षा न्यून है और तृतीय गुणस्थानवर्ती जीव में द्वितीय गुणस्थान वाले की अपेक्षा बहिरात्म-तत्व और भी कम है । चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतिसम्यष्टि जीव ज्यों-ज्यों अन्तर्मुख होकर अपनी दैनिक प्रवृत्तियों का अव लोकन करता है त्यों-त्यों उसे बाह्यप्रवृत्तियाँ अशांति का कारण, अशाश्वत एवं दुःखप्रद प्रतीत होने लगती हैं और उसके विपरीत आन्तरिक प्रवृत्तियाँ उसे शांति देने वाली अनुभव होती हैं। ऐसी स्थिति में जब वह अपनी असद् प्रवृत्तियों के त्याग की ओर उन्मुख होता है और स्थूल प्राणातिपात प्रभृति पापों का परित्याग करता है और वह अन्तरात्म तत्त्व की ऐसी श्रेणी पर पहुंचता है जिस अवस्था को श्रावक, उपासक और श्रमणोपासक कहते हैं। इसके पश्चात् जब उसकी विचारधारा और अधिक निर्मल होती है और वह यह अनुभव करने लगता है कि सांसारिक वस्तुओं के परित्याग में ही सच्ची शांति है, संग्रह में नहीं सब वह सांसारिक मोह बन्धनों एवं कौटुम्बिक स्नेहन्यास से मुक्त होकर स्वतन्त्र होने का उपक्रम करता है । फलस्वरूप वह परिवार तथा घर आदि का परित्याग कर सद्गुरुदेव के सन्निकट श्रमणधर्म को स्वीकार करता है, यह अन्तरात्मा की दूसरी श्रेणी है । इस श्रमणावस्था में रहते हुए वह जिस समय अप्रमत्त होकर स्वाध्याय, ध्यान, आत्मचिन्तन में तल्लीन होता है उस समय वह अन्तरात्म-तत्त्व की एक सीढ़ी और ऊपर चढ़ जाता है। किन्तु मानव की मनोवृत्ति अहर्निश अप्रमत्त नहीं रह सकती। उसे बीच-बीच में विश्राम लेना पड़ता है, शारीरिक चिन्ताएं करनी पड़ती हैं। एतदर्थ ही श्रमण की प्रवृत्ति प्रमत्त और अप्रमत्त रूप में होती रहती है। जब कोई साधक अप्रमत्त अवस्था में रहते हुए परम समाधि में तल्लीन होता है, अपनी मन-वचन-काया की प्रवृत्ति को बाहर से हटाकर एकमात्र आत्मस्वरूप में ही स्थिर करता है, उस समय उसके हृदय में एक विशुद्ध व अपूर्व भाव जागृत होता है । इस भाव से पूर्ण संचित कर्मबन्धन क्रमशः विनष्ट होते हैं, श्रमण नवीन कर्मबन्धनों को क्रमशः घटाता है और ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जब नवीन बँधने वाले कर्म का सर्वथा अभाव हो जाता है। केवल एक समय जैसी अत्यल्पस्थितिवाला सातावेदनीय कर्म का आस्रव या बन्ध केवल नाममात्र का होता है; और अनादिकाल से संलग्न अष्ट कर्मों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय का क्षय करता है, यह अन्तरात्म-तत्त्व की सर्वोत्कृष्ट अवस्था है । अन्तरात्मा की इस उत्कृष्ट अवस्था में चार घनघाती कर्मों के क्षय होते ही परमात्म-दशा प्रकट होती है । और वह आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन जाता है। जब तक उसका आयुकर्म समाप्त नहीं होता तब तक शरीर बना रहता है । शरीर को 'कल' भी कहते हैं। शरीर के साथ रहने वाली परमात्म-दशा को सकल परमात्मा कहते हैं । इस अवस्था को अन्य दार्शनिक चिन्तकों ने सगुण या साकार परमात्मा के नाम से अभिहित किया है। इस सकल परमात्मअवस्था में रहते हुए वे केवली विश्व के विभिन्न अंचलों में पादविहार करते हुए मुमुक्षु जीवों को सन्मार्ग पर चलने के लिए उत्प्रेरित करते हैं । जब उनका जीवनकाल अत्यल्प रह जाता है तब वे विहार, देशना आदि सभी क्रियाओं का निरोध कर पूर्ण आत्मस्थ हो जाते हैं । एक लघु अन्तर्मुहूर्त काल में अवशेष रहे हुए आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की समस्त प्रकृतियों को नष्ट कर नित्य, निरंजन, निर्विकार सिद्ध परमात्मा बन जाते हैं। इस अवस्था को अन्य दार्शनिकों ने निर्गुण या निराकार के नाम से कहा है । जैसे धान्य के ऊपर का छिलका दूर हो जाने से चावल में अंकुरोत्पादन की शक्ति नहीं रहती वैसे ही कर्म- नोकर्म रूपी मल के नष्ट हो जाने से सिद्ध परमात्मा का भी भवांकुर पूर्ण रूप से विनष्ट हो जाता है और वे अपुनरागम स्थिति में सदा सिद्ध रूप में स्थित रहते हैं । योगविद् जैनाचार्यों ने चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक की गणना सम्प्रज्ञातयोग से की है। और तेरहवें चौदहवें गुणस्थान की तुलना असंप्रज्ञातयोग से की है। " साधना की दृष्टि से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा को क्रमशः पतित अवस्था, साधक अवस्था और सिद्ध अवस्था कह सकते हैं। नैतिकता की दृष्टि से इन तीनों अवस्थाओं को अनैतिकता की अवस्था, (immoral), नैतिकता की अवस्था ( moral), और अतिनैतिकता की अवस्था (amoral) कह सकते हैं । प्रथम अवस्था वाला प्राणी दुराचारी व दुरात्मा होता है। दूसरी अवस्था वाला प्राणी सदाचारी व महात्मा होता है और तीसरी अवस्था वाला प्राणी आदर्शात्मा या परमात्मा होता है । जैन गुणस्थान और वैदिक भूमिकाएँ जैनदर्शन की भाँति वैदिक परम्परा में भी आत्मविकास के सम्बन्ध में विचार किया गया है। योगवासिष्ठ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18