Book Title: Adhyatmik Sadhna ka Vikaskram Gunsthan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 17
________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम : गुणस्थान २ और अज्ञान ( तमोगुण प्रधान अवस्था) से भौतिक सुखों के लिए संघर्ष कर, रजोगुणात्मक प्रवृत्ति के द्वारा ऊपर उठती हुई ज्ञान और आनन्द की ओर बढ़ती है। सारांशु यह है कि आत्मा तमोगुण से रजोगुण और सत्वगुण की ओर बढ़ता हुआ अन्त में गुणातीत अवस्था को प्राप्त करता है । जिस समय रजस और सत्वगुण को दबाकर तमोगुण प्रधान होता है उस समय जीवन में निष्क्रियता और जड़ता की अभिवृद्धि होती है और वह परिस्थिति का दास बन जाता है। यह "अविकास" की अवस्था है। जब सत्त्व और तम को दबाकर रजस प्रधान होता है तो उस समय वह निश्चय नहीं कर पाता । तृष्णा और लालसा के बढ़ने से उसमें आवेश की मात्रा बढ़ जाती है, यह 'अनिश्चय' की स्थिति है। ये दोनों अविकास के सूचक हैं। जब रजस और तमस को दबाकर सत्व प्रधान होता है उस समय जीवन में ज्ञान का अभिनव आलोक जगमगाने लगता है और जीवन पवित्र और यथार्थ आचरण की ओर प्रगति करता है। यह 'विकास' की स्थिति है । जब सत्त्व के निर्मल आलोक में आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को पहचान लेता है तो वह गुणातीत हो गुणों का द्रष्टा मात्र हो जाता है । यह त्रिगुणातीत अवस्था ही आध्यात्मिक पूर्णता की अवस्था है। तीन गुणों के आधार पर ही व्यक्तित्व, श्रद्धा, ज्ञान, बुद्धि, कर्म और कर्ता आदि का वर्णन किया गया है। गीता में बन्धन का मूल कारण त्रिगुण बतलाया है । 113 गीता में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि सत्त्व, रज, तम इन गुणों से उत्पन्न त्रिगुणात्मक भावों के मोह में पड़ कर जगत के प्राणी उस परम अव्यय परमात्मस्वरूप को जान नहीं पाते हैं। गीता की दृष्टि से तमोगुण में अज्ञान, जाड्यता, निष्क्रियता, प्रमाद, आलस्य, निद्रा और मोह की प्रधानता होती है। रजोगुण में रागात्मकता, तृष्णा, लोभ, क्रियाशीलता, अशान्ति और ईर्ष्या की प्रधानता होती है। सत्त्वगुण में ज्ञान का प्रकाश, निर्विकारस्थिति की प्रधानता होती है। इन तीनों गुणों के स्वभाव पर हम चिन्तन करें तो जैन साहित्य में कर्मबन्धन के जो मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच करण बताये हैं उनके साथ भी इनकी तुलना हो सकती है । तमोगुण में मिथ्यात्व और प्रमाद, रजोगुण में अव्रत, कषाय और योग तथा सत्वगुण में ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग और चारित्रोपयोग हैं । त्रिगुणों के आधार पर यदि हम गुणस्थानों पर चिन्तन करें तो इस प्रकार कर सकते हैं प्रथम गुणस्थान में तमोगुण की प्रधानता होती है। रजोगुण तमोन्मुखी होता है और सत्त्वगुण तमोगुण और रजोगुण के अधीन रहने से यह अवस्था तमोगुण प्रधान है। द्वितीय गुणस्थान में भी तमोगुण की ही प्रधानता होती है और रजोगुण भी तमोन्मुखी ही होता है । तथापि कुछ सत्त्वगुण रहता है, अत: इसे सत्त्व-रज से मिली हुई तमोगुणावस्था कहते हैं । ५२१ तृतीय गुणस्थान में रजोगुण की प्रधानता होती है। सत्त्व और तम ये दोनों गुण रजोगुण के अधीन होते हैं । अतः यह सत्त्व और तम से मिली हुई रजोगुण प्रधानावस्था है । चतुर्थ गुणस्थान में विचारों में सत्त्वगुण होता है किन्तु आचारों में तमोगुण और रजोगुण की प्रधानता होती है । उसके विचारों में तमस और रजस गुण सत्त्व गुण के अधीन होते हैं किन्तु आचार में सत्त्वगुण तमस और रजस के अधीन होता है । जाते हैं, केवल सूक्ष्म लोभ रूप रहता है । पंचम गुणस्थान में विचार की दृष्टि से सत्त्वगुण की प्रधानता होती है और आचार में भी सत्त्वगुण का विकास होना प्रारम्भ होता है। यह अवस्था तम से युक्त सत्त्वोन्मुखी रजोगुण की अवस्था है । छठे गुणस्थान में विचार और आचार दोनों में सत्व गुण की प्रधानता होती है तथापि तम और रज विद्यमान होने से वे सत्त्व पर अपना आधिपत्य जमाना चाहते हैं । सातवें गुणस्थान में सत्त्वगुण की इतनी अधिक प्रधानता हो जाती है कि तमोगुण पर वह पूर्ण अधिकार कर लेता है किन्तु रजोगुण पर उसका पूर्ण अधिकार नहीं हो पाता । आठवें गुणस्थान में सत्त्वगुण रजोगुण पर पूर्ण अधिकार करने का प्रयत्न करता है । नौवें गुणस्थान में सत्त्वगुण रजोगुण पर अधिकार कर उसको मृतप्रायः कर देता है। कषाय प्रायः नष्ट हो Jain Education International दसवें गुणस्थान में सत्त्वगुण सूक्ष्म रूप में जो रजस रहा है उसको भी नष्ट कर देता है । ग्यारहवें गुणस्थान में तम और रज दोनों पर सत्त्वगुण का पूर्ण अधिकार हो जाता है। वह इन दोनों गुणों को नष्ट नहीं करता, किन्तु उनका दमन करता हुआ प्रगति करता है अतः तमस और रजस ये पुनः उद्बुद्ध होकर सत्त्व पर अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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