Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 7
________________ आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह अहो भाग्य श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो। ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो॥ वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु के प्रति समर्पित यह लोकोत्तर कामना तथा पूजन के लोकोत्तर फल की प्राप्ति की भावना से भरी हुई ये पंक्तियाँ पढ़कर किस आत्मार्थी भक्त का हृदय नहीं उछल पड़ेगा? अध्यात्म रस की लहरों से सुशोभित यह भक्ति सरोवर आत्मार्थियों की अध्यात्म रस पिपासा शान्त करते हुए उन्हें पूज्य, पूजक, पूजा एवं पूजा के फल का सच्चा स्वरूप दिखाने में पूर्ण समर्थ हैं। पूजन साहित्य के विकास को नई गति प्रदान करनेवाले दैदीप्यमान कवियों के रूप में आदरणीय बाल ब्र. पण्डित रविन्द्रकुमारजी आत्मन् 'बड़े पण्डितजी साहब' पूजन-परम्परा पर्यन्त स्मरण किये जाते रहेंगे। वर्तमान में अध्यात्म रसिक साधर्मियों में विशेष रूप से प्रिय उनकी रचनायें युगों-युगों तक आत्मार्थी जनों की भावनाओं में धड़कती हुई भक्ति की अन्तरात्मा का दर्शन कराके स्वानुभूति की अपूर्व प्रेरणा देती हैं। भक्ति-पूजन साहित्य में अध्यात्म रस का परिपाक नई परम्परा नहीं है। प्राचीन पूजनों में भी सामग्री की प्रशंसा मुख्य होते हुए भी यत्र-तत्र अध्यात्म रस उछलता है। यथा :- .. अज्ञान महातम छाय रहो, जब निज-पर परिणति नहीं सूझे। अन्य अनेक पूजनों में भी अध्यात्म रस का परिपाक विशेषरूप से होता है। सिद्धचक्र विधान तो अध्यात्म की गंगा, भक्ति की यमुना और सिद्धान्त की सरस्वती की अद्भुत त्रिवेणी ही है। ____ आधुनिक हिन्दी में भाव प्रधान पूजनों की रचना करते हुए उनमें जैन तत्त्वज्ञान का समावेश करनेवालों में माननीय बाबू जुगलकिशोरजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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