Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha Author(s): Ravindra Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali View full book textPage 9
________________ आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह मुझे झकझोर दिया। इनके पुनः शुद्ध प्रकाशन की भावना से नवम्बर २००६ में पण्डितजी से २०-२५ वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद प्रत्यक्ष चर्चा करने का अवसर प्राप्त हुआ । इस संक्षिप्त समागम में उनके चिंतन का पैनापन, हृदय की सरलता, साधर्मी वात्सल्य एवं व्यक्तिगत प्रचार से विरक्ति आदि अनेक विशेषताओं का रसास्वादन करके ऐसा लगा कि इनके चिंतन का अधिकतम लाभ अवश्य लेना चाहिये । 8 जब उनसे अप्रकाशित पूजनों के प्रकाशन की अनुमति देने का अनुरोध किया गया तो उन्होंने भावना व्यक्त की कि उन्हें एकबार देखकर अपने विचार से उन्हें अन्तिम रूप देकर प्रकाशित करना चाहेंगे। उन पर गम्भीरता से विचार किए बिना जल्दबाजी में छपाना उन्हें मंजूर नहीं था, चाहे ये अप्रकाशित ही क्यों न रह जायें। स्वयं की रचनाओं के प्रकाशन में भी ऐसी उदासीनता देखकर मैं दंग रह गया। अपने प्रवचनों की सी. डी के बारे में भी उनका यही रुख मेरा पथ प्रदर्शक बन गया। इन रचनाओं को पढ़ने पर लगा कि पण्डितजी साहब की रचनाओं का उछलता हुआ गंभीर भक्तिभाव, प्रचुर अध्यात्म रस एवं सैद्धान्तिक रहस्यों पर गहन शोध करके ही उनका रहस्य खोला जा सकता है। फिर भी पाठकों का ध्यान आकर्षित करने हेतु सहज ज्ञात हुए कुछ बिन्दु यहाँ प्रस्तुत करना उचित समझता हूँ। १. भक्ति - पूजन में जिनेन्द्र भगवान के उपकार की मुख्यता होती है । कविवर दौलतरामजी 'चाख्यो स्वातमरस दुख निकन्द' तथा 'शाश्वत आनन्द स्वाद पायो विनस्यो विषाद' जैसी पंक्तियों के माध्यम से पारमार्थिक फल की प्राप्ति रूप उपकार का वर्णन करते हैं। इसीप्रकार पण्डितजी भी 'हे शान्तिनाथ लख शान्तस्वरूप तुम्हारा, चित् शान्त हुआ मैं जाना जाननहारा' तथा 'अज्ञान नसायो, समसुख पायो, जाननहार जनाय रहो' जैसी पंक्तियों के माध्यम से अनेक स्थलों पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 242