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श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी के अस्तित्व आदि छह सामान्य गुणों
का वर्णन। * गाथा ८३३ से ८७५ तक - चार ध्यान -आर्त, रौद्र, धर्म, शुक्ल ध्यान
का विशेष वर्णन तथा ध्यान समाधि की
साधना। * गाथा ८७६ से ८८५ तक -आज्ञा, वेदक, उपशम, क्षायिक और शुद्ध
सम्यक्त्व का स्वरूप। * गाथा ८८६ से ८९६ तक - दर्शनाचार आदि पंचाचारों का स्वरूप कथन। • गाथा ८९७ से ९०८ तक - न्यान समुच्चय सार की महिमा।
श्री ज्यान समुच्चय सार जी-विषयानुक्रम * गाथा ५४९ से ५७४ तक - दस प्रकार के सम्यक्त्व का कथन । * गाथा ५७५ से ५९८ तक - पाँच इन्द्रिय, मन आदि का संयम, बारह व्रतों
की साधना। गाथा ५९९ से ६३० तक - तेरह प्रकार के चारित्र का स्वरूप। * गाथा ६३१ से ६३४ तक - द्रव्य की स्वतंत्रता, ऋजुमति विपुलमति मनः
पर्यय ज्ञान की उत्पत्ति तथा इन ज्ञानों के जानने
योग्य क्षेत्र का कथन। * गाथा ६३५ से ६५७ तक - साधु पद से अरिहन्त पद की प्राप्ति, १८ दोष
रहित अरिहन्त सर्वज्ञ होना तथा सर्व कर्म
रहित शुद्ध सिद्ध पद की प्राप्ति।
पंचमखण्ड चौदह गुणस्थान, सत्ताईस तत्व, अक्षर,स्वर-व्यंजन से ॐनमः सिद्ध
मंत्रकी सिदिऔर ध्यान समाधि। • गाथा ६५८ से ७०४ तक - चौदह गुणस्थानों का वर्णन । * गाथा ७०५ से ७११ तक - सिद्ध परमात्मा का स्वरूप और पंचाक्षरी
'ऊँ नमः सिद्धं' मंत्र की सिद्धि । * गाथा ७१२ से ७२८ तक - अकारादि चौदह स्वरों के माध्यम से सिद्ध
स्वरूपी शुद्धात्मा की महिमा। * गाथा ७२९ से ७६४ तक - कवर्गादि व्यंजनों के माध्यम से निज ज्ञान
स्वभाव की महिमा और उसकी प्राप्ति । • गाथा ७६५ से ८३२ तक - सत्ताईस तत्त्वों का विशद् विवेचन तथा द्रव्य
* ऊँ नम: सिद्धं *
श्री उपदेश शुद्ध सार जी श्री उपदेश शुद्ध सार ग्रंथ में साधक की साधना की अपेक्षा कथन किया गया है, इसमें जिनेन्द्र परमात्मा के उपदेश का शुद्ध सार दर्शाया है। रत्नत्रय मई निज शुद्धात्मा की साधना ही एक मात्र लक्ष्य है। जिनवाणी में सभी जिनेन्द्र परमात्माओं की एक ही देशना-उपदेश है कि हे भव्य जीवो! भेद विज्ञान पूर्वक इस शरीरादि समस्त पर द्रव्यों से भिन्न मैं एक अखण्ड अविनाशी चैतन्य तत्त्व भगवान आत्मा हूँ, ऐसा निश्चय नय पूर्वक स्वीकार करो और अपने शुद्धात्म तत्त्व की साधना-आराधना में लग जाओ, इससे पूर्व बद्ध कर्म सब गल जायेंगे, विला जायेंगे।
साधक के जीवन में मोह-राग की भूमिका में जनरंजन राग, कलरंजन