Book Title: Adhyatma Vani
Author(s): Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publisher: Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai

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Page 12
________________ श्री न्यान समुच्चय सार जी विषयानुक्रम भेदज्ञान पूर्वक स्वानुभूति और पुरुषार्थ साधना द्वारा उपलब्धि- अरिहन्त और सिद्ध पद की प्राप्ति है। इसके लिये इस ग्रंथ में आचार्य श्री जिन तारण स्वामी जी ने स्वानुभव पूर्वक ज्ञान और चारित्र के क्रमशः विकास का अपूर्व वर्णन किया है। प्रथम खण्ड वस्तु स्वरूप - गाथा १ से १६ तक गाथा १७ से १८ तक गाथा १९ से ३७ तक - - परमानंद परम ज्योतिर्मय निज शुद्धात्म स्वरूप, सच्चे देव, गुरू, शास्त्र, चौबीस तीर्थंकर आदि को मंगलाचरण रूप नमस्कार किया है तथा न्यान समुच्चयसार ग्रंथ कथन का उद्देश्य स्पष्ट किया है। - जो जीव संसार के दुःख से भयभीत हैं, मुक्ति चाहते हैं वह जिनवाणी के कहे अनुसार जिनेन्द्र के वचनों पर श्रद्धान करें, भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति करें । अनादि काल से जीव के संसार परिभ्रमण का कारण तथा शुद्ध सम्यक्त्व के गुण, शुद्धात्म स्वरूप का वर्णन । ( अज्ञान के कारण अर्थात् अपने को भूला हुआ जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है और जब तक इस दशा में रहेगा अर्थात् स्वयं का बोध, सम्यक्दर्शन नहीं होगा तब तक संसार में ही रुलता रहेगा; इसलिये सच्चे देव गुरू धर्म के माध्यम से भेदविज्ञान पूर्वक स्व स्वरूप का निर्णय करे तो मुक्ति का मार्ग बने।) १२ श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी स्वानुभूति का विषय रत्नत्रय मई निज शुद्धात्म तत्त्व ध्रुव स्वभाव | " ममात्मा ममलं सुद्धं ममात्मा सुद्धात्मनं । देहस्थोपि अदेही च ममात्मा परमात्मं भुवं ।। ४४ ।। ऐसे निज स्वरूप का अनुभवन करना ही मुक्ति का मार्ग है, यही धर्म है। ग्यारह अंग, चौदह पूर्व का संक्षेप कथन तथा शब्द ज्ञान का प्रयोजन । गाथा ४६ से ७६ तक - चार आराधनाओं की साधना का वर्णन । कारण कार्य परमात्मा का कथन, जैसा कारण होता है वैसा कार्य होता है। ज्ञानी और ज्ञान, अज्ञानी और अज्ञान की महिमा, अज्ञान सहित व्रत, तप आदि क्रियायें सब व्यर्थ हैं, आत्म ज्ञान ही कार्यकारी और इष्ट है। गाथा ३८ से ४५ तक - गाथा ७७ से ७९ तक - गाथा ८० से ८१ तक गाथा ८२ से १५ तक - गाथा ९६ से १०४ तक - मन और भावों की शुद्धि, अशुद्ध भावों से कर्मों का भोग उपभोग करना। शुद्ध उपभोग से ज्ञान पूर्वक मुक्ति का मार्ग बनता है और अशुद्ध उपभोग मन और भावों की अशुद्धि से जीव संसार में परिभ्रमण करता है। असुद्ध तिक्त पराङ्गमुषं । उपभोगं तिक्त मनः सुतं ।। ९६ ।। प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण का कथन । गाथा ११० से १५१ तक सम्यक्त्व घातक सप्त प्रकृति- तीन मिथ्यात्व, चार अनंतानुबंधी कषाय का वर्णन | प्रथमं भाव सुद्धं च परिनाम बंध मुक्तं च गाथा १०५ से १०९ तक -

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