Book Title: Adhyatma Vani
Author(s): Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publisher: Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai

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Page 11
________________ श्री श्रावकाचार जी-विषयानुक्रम सम्यकदी की अठारह क्रियाओं का विवेचन तथा शुद्ध-अशुबपद् कर्म का वर्णन। * गाथा १९५ से २०२ तक- जिनागम में वर्णित तीन लिंग अव्रत सम्यक् दृष्टि, व्रती श्रावक, महाव्रती साधु और उनकी त्रेपन क्रियाओं का विवेचन । * गाथा २०३ से २२४ तक - अव्रती की अठारह क्रियाओं में सम्यक्त्व का स्वरूप। गाथा २२५ से २३४ तक - अष्ट मूल गुणों का वर्णन। गाथा २३५ से २५५ तक - रत्नत्रय की साधना का स्वरूप। गाथा २५६ से २९० तक - चार दान का वर्णन। गाथा २९१ से २९६ तक - सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का स्वरूप कथन । गाथा २९७ से ३०३ तक - रात्रि भोजन त्याग का वर्णन । * गाथा ३०४ से ३०६ तक - पानी छानकर पीने का महत्व । गाथा ३०७ से ३१९ तक - अशुद्ध षट् कर्म का स्वरूप। गाथा ३२० से ३७७ तक - शुद्ध षट् कर्म का विवेचन। (देव आराधना, गुरू उपासना, शास्त्र स्वाध्याय, संयम, तप, दान) चतुर्थखण्ड गाथा ३७८ से ४४४ तक- मध्यम लिंगवती पावक की ग्यारह प्रतिमा और पांच अणुव्रतों का वर्णन । * गाथा ३७८ से ३८१ तक - ग्यारह प्रतिमा, पाँच अणुव्रतों के नाम । * गाथा ३८२ से ४०४ तक - १. दर्शन प्रतिमा का स्वरूप २५ दोषों से रहित । गाथा ४०५ - २. व्रत प्रतिमा का स्वरूप। * गाथा ४०६ से ४०७ तक - ३. सामायिक प्रतिमा का स्वरूप। (११) श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी 100 गाथा ४०८ से ४१४ तक - ४. प्रोषधोपवास प्रतिमा का स्वरूप। * गाथा ४१५ से ४१७ तक - ५. सचित्त प्रतिमा का स्वरूप । * गाथा ४१८ से ४१९ तक - ६. अनुराग भक्ति प्रतिमा का स्वरूप। * गाथा ४२० से ४२५ तक - ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा का स्वरूप । * गाथा ४२६ से ४३१ तक - ८. आरंभ त्याग प्रतिमा का स्वरूप। * गाथा ४३२ - ९. परिग्रह त्याग प्रतिमा का स्वरूप । * गाथा ४३३ - १०.अनुमति त्याग प्रतिमा का स्वरूप । * गाथा ४३४ से ४३६ तक - ११.उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा का स्वरूप। * गाथा ४३७ से ४४४ तक - पाँच अणुव्रतों के नाम और उनका स्वरूप। पंचमखण्ड गाथा ४५ से ४६२ तक- उत्तम लिंग महाव्रती वीतरागी निर्गन्ध साधु पद का स्वरूप तथा अरिहन्त सिड पद की सिदि। * गाथा ४४५ से ४५४ तक - साध पद, रत्नत्रय की साधना से मनःपर्यय ज्ञान की प्रगटता। * गाथा ४५५ से ४५९ तक - अरिहन्त, सिद्ध ध्रुव पद की सिद्धि। * गाथा ४६० - सम्यक्त्व की महिमा। * गाथा ४६१ से ४६२ तक - ग्रंथ कहने का अभिप्राय । *ऊँ नम: सिद्ध श्री ज्यान समुच्चय सार जी श्री न्यान समुच्चय सार जी ग्रंथ में सम्पूर्ण जिनवाणी ग्यारह अंग चौदह पूर्व रूप द्वादशांग वाणी का सार रूप कथन आगम और अध्यात्म के समन्वय पूर्वक वर्णन किया है। सम्पूर्ण ज्ञान का सार एक मात्र निज शुद्धात्म स्वरूप की

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