Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 7
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha

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Page 12
________________ द्वितीयावृत्ति प्रस्तावना अनादि से प्रवहमान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन ! अनादि मिथ्यात्व से मुक्त हो कर आत्मा जब सम्यक्त्व गुण प्राप्त करता है, तब आत्मिक उत्क्रान्ति का शुभारंभ हेाता है । न की उपलब्धि के पश्चात् हो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित होता है। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से ग्राह्य हैं, अतः इनका समावेश परोक्षज्ञान में होता है; परन्तु अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान आत्म ग्राह्य हैं; अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में समाविष्ट हैं। सम्यक्त्व का सूर्योदय होते ही मिथ्यात्व का घना अन्धेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होता है । यही सम्यक्त्व आत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो कर लेोकोत्तर भावों को चिन्तनधारा में स्वयं को डुबो दे। 'जिन खोजा तिन पाईयाँ गहरे पानी पठा।' संसार परिभ्रमण को प्रमुख कारण है आस्रव और बन्ध । दुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही सवर और निर्जरा भी आवश्यक है । बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एवं कारण स्थिति से स्वयं को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निर्बन्ध अथवा अपुनर्बन्धक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। __ जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है। सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये कि वे जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदि करते रहे। कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है; अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है: जैसे खान में रहे हए माने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है । मिट्री सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की। प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब देने अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रुप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है । मिट्टी को कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण का केई मिट्टी कहता है। ठीक उसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्र के प्रयोग द्वारा अपने पर से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उज्ज्वलता प्रकट कर देती है। कर्म की आठों प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को कर्म भुगतान के लिए प्रेरित करती रहती हैं। जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस स्थिति में हैं। ऐसे संसारो जीवों का ये कर्म प्रकृतियां विभाव परिणमन करा लेती हैं Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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