Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 02
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ आइञ्छ 05 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आइण्ण. *कर्ष पुं। भावे धञ्। आकर्षणे, विलेखने च। वाच / परिवज्जए" उत्त० 1 अ / पुरुषविशेषे च / स च विनयादिगुणोपेतः / आइट्ठ-न. (आतिष्ठ) अति-स्था-क-षत्वम्। अतिष्ठस्तस्यभाव: अण् / स्था०४ ठा०३ ऊ / जवादिगुणयुक्ते अश्वे, ज्ञा० 1 श्रु०१७ अ / स्था। अतिक्रम्य स्थिती, उत्कर्षे, वाच / विक्षिप्त च / वाच। *आदिष्ट-न। आ-दिश्। भावे, आज्ञायाम्, उपदेशे च। कर्मणि इक्तः / *आचीर्ण- त्रि. (आचर्यत) इति / कल्पनीये, नि० चू.१ उ / उपदिष्टे, व्याकरणप्रसिद्ध स्थानिजाते वर्णे च। त्रि.। यथा इकः स्थाने आसेविते, दर्श. 1 तत्त्व / आइण्णं णाम जं साहूहिँ आयरियं विणा वि यण आदिश्यते इति इको यणादिष्ट इत्युच्यते / आज्ञप्ते, उच्छिष्टे, ओमादिकारणेहिं गेण्हइ। नि, चू, 15 ऊ / आचीर्णम्- आसेवितं तच अनुशिष्टे, त्रि० / वाच / चोदिते, त्रि। सूत्र०२ श्रु०४ अ०१ऊ। आदेशे, भ. नामदि षोढा, तद् व्यतिरिक्तं द्रव्याऽऽचीर्ण सिंहादेस्तृणादिपरिहारेण 12 श०१० उ०। विशेषरूपेण निर्दिष्ट, त्रि० / यथाऽयं देवदत्तोऽयं यज्ञदत्त पिशितभक्षणम् क्षेत्राऽऽचीर्णं वाल्हीकेषु सक्तवः / कोङ्कणेषु पेया: / कालाचीर्णं त्विदम्- "सरसीचंदणपंका, अग्घइसरसा यगंधकासादी। इति। बृ. 4 उ.। आविष्टे, अधिष्ठिते, त्रि स्था०५ ठा०२ उ०। पाडलिसिरीसमिल्लय, पेयाई काले निदाहम्मि // 1 // " भावाचीर्णं तु आइट्ठि- स्वी० (आदिष्टि)। धारणायाम्, स्था० 7 ठा०३ऊ। ज्ञानादिपञ्चकं, तत्प्रतिपादकश्चाचारग्रन्थः / "आइण्णं जं पुण आइड्डि-स्त्री. (आत्मर्द्धि)। आत्मन ऋद्धिः षष्ठीतत्पुरुषः। स्वकीयशक्ती, अणुण्णायं / " आचा० 1 श्रु.१ अ०१ऊ / अनुज्ञाते, नि. चू०१५ उ / आत्मलब्धौ च। भ० 10 श०३ऊ। (आचीर्णलक्षणादि'जीयव्यवहार' शब्दे। चतुर्थभागे वक्ष्यते) आइड्डिय- पुं. (आत्मर्द्धिक) / आत्मान एव ऋद्धिर्यस्य 6 बहु / आइण्णजणमणुस्स- त्रि. (आकीर्णजनमनुष्य) मनुष्य- जनेनाकीर्ण:स्वकीयशक्तिसम्पन्न, स्वकीयलब्धिसम्पन्ने च। भ० / संकीर्ण इति मनुष्यजनाकीर्णेति वाच्ये राजदन्तादि (31 149 / हैम.) आइडीए णं मंते! देवे. जाव चत्तारि पंच देवावासंतराइं वीइक्कंते, दर्शनात्परनिपात: / मनुष्यजनसंकुले, ज्ञा०१ श्रु०१अ / औ०। तेण परं परिड्डीए? हंता गोयमा ! आइडीएणं तं चेव (जाव) एवं आइण्णट्ठाण- न. (आकीर्णस्थान) / हिरण्यादिवस्तुव्याप्ते स्थाने, असुरकुमारे वि, णवरं असुरकुमारावासंतराइं सेसं तं चेव, एवं "आइण्णादीणि वज्जए ठाणे।" (+424 गाथा) भिक्षार्थं प्रविष्ट: साधु: एएणं कमेणं जाव थणियकु मारेऽवि, एवं बाणमंतरजोइसिए आकीर्णादिस्थानं परिवर्जयेत् / यत्र हिरण्यादि / विक्षिप्तमास्ते वेमाणिए, जाव तेण परं परिड्डिए / (सूत्र 441+) तदाकीर्णस्थानं तच्च साधुना वर्जनीयम्। ओध। 'आइड्डीए णं' ति-आत्मा - स्वकीयशक्त्या। अथवाआत्मन: एव | आइण्णणायज्जयण- न. (आकीर्णज्ञाताध्ययन) / ज्ञातागस्य ऋद्धिः यस्याऽसौ आत्मर्द्धिकः / 'देवे' त्तिसामान्य:, 'देवावासंतराई' सप्तदशेऽध्ययेन, आ. चू०४ अ। आवासका ति-देवाऽऽवासविशेषान् / 'वीइक्कते त्ति-व्यतिक्रांत: लचितवान् / आइण्णमणाइण्णकल्प- पुं० (आचीर्णाऽनाचीर्णकल्प)। आसेवितेक्वचिद्-व्यतिव्रजतीति पाठः / भ०१३ उ / (अधिकम् 'इड्ढि' शब्दे) ऽनासेविते आचारे, पं. भा.।। ऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते। तवर्णनं यथाआइणाह- पुं. (आदिनाथ)। ऋषभदेवे, आ०म०१ अ। (वृत्तम्-'उसह' आइण्णमणाइण्णे, कप्पं तु गुरूवदेसेणं। शब्देऽ-स्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) आहारचउकेकरण, फासणे खेत्तकालउवगरणे। आइणियंठ- पुं. (आदिनिर्ग्रन्थ)। प्रथमनिर्ग्रन्थे पुलाके प्रति / आइण्णे आइण्णं, तविवरीए अणाइण्णं / 'हिट्ठाणट्ठिओ वि, पावयणिगणिट्ठयाइ अधरे उ। आहारचउक्कं खलु, असणादीयं तु होति णायव्वं / कडजोगिजं णिसेवइ, आइणियंठु व्व सो पुज्जो॥१॥" करणं आयरणं तु, तस्स तु जं जत्थ आइण्णं। अस्यार्थ:- अधरे-आत्यन्तिकेकार्ये समुत्पन्ने कृतयोगी- कृताभ्यास: पिसितं सिंधूविसए, वातिं पुण उत्तरावहाऽऽइण्णं / आदिनिर्ग्रन्थ:- पुलाक: अधस्तनस्थानस्थितस्यैव पुष्टालम्बनेऽपि तंबोलं दमि (वि) ले (डे) सुं, एमादी खेत्तमाइण्णं / / वैक्रियाद्यधिकारित्वंनतु तत्करणप्रयोज्या-धस्तन स्थानस्थितिरिति काले दुब्मिक्खादिसु, व (प) लंबमादी तु सव्वमाइण्णं / परमार्थः / प्रति०८ श्लोक। उवगरणे आइण्णं, वोच्छामि अतो समासेणं / आइण्ण- त्रि. (आकीर्ण)। व्याप्ते (युक्ते) रा० / आकीर्णे, समाकुले, बृ०१ सिंधू आयलियाई, काला कप्पा सुरट्टविसयम्मि / उ / संकीर्णे, औ० / संकुले, आचा०२ श्रु.१ 51 अ०३ उ० 17 सूत्र / दुग्गुल्लादिपुंडबद्धण, महरडेसुं च जलपूरा। "आइण्णणोमाणविवज्जणा य' / आकीर्णावमान-वर्जना च एवं जत्थाऽऽइण्णं, तहियं तु कप्पतीति आयरि। विहारचा प्रशस्ता / दश.२ चूः / आकीर्यते व्याप्यते इतरत्थ कारणम्मि, फासणगहणं च परिभोगो।। विनयादिगुणैरिति / जात्ये अश्वविशेषे च। सचजवविनया-दिगुणैर्युक्तः / आइण्णे चउवग्गो,ण य पीलाकारओ पवयणस्स। स्था० 4 ठा०३ उ / "आइण्णवरतुरयसुसंपउत्ते' भ०७ श०८ उ० / णय मइलणा पवयणे, आइण्णं आयरे कप्पं / जात्यवरतुरगे, जी०३ प्रति०४ अधि / "कसं व दट्ठमाइन्ने पावगं आहार उवहिसेज्जा, सेहा चउदग्गों होति णायव्यो।

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