Book Title: Abhayratnasara
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Danmal Shankardas Nahta

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Page 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५ ] अलग कर दिया है, जिससे पाठकोंके समझनेमें अड़वण न होगी। शुरूमें श्रावकोंके पांचों प्रतिक्रमण अनन्तर साधु-प्रतिक्रमण, चैत्यबन्दन, स्तुति, स्तवन, सज्झाय, रास, लावणी, छन्द, पूजायें सूतक विचार, भक्ष्याभक्ष्य विचार, तपस्याओंके स्तवन और उनकी विधिये आदि प्रायः सभी उपयोगी और आवश्यक चीजें उधृत कर दी गयी हैं। भक्ष्याभक्ष्यके सम्बन्धमें खूब विवेचन देकर समझा दिया गया है। बाईस अभक्ष्य और बत्तीस अनन्तकाय किसे कहते हैं ?, किस ऋतुमें कौनसे पदार्थ भक्ष्य और अभक्ष्य है ?, श्रावकोंके लिये कौन कौनसे पदार्थ भक्ष्य माने गये हैं ?, सचित्ताचित्त किसे कहते हैं ?, श्राविकाओंको कैसा व्यवहार करना चाहिये । इत्यादि बात सुविस्तृत रूपसे ठोक तरह समझा दी गयी हैं | हिन्दीके पाठकोंको ज्ञान कराने के लिये यह पहलाही साधन है। आशा है, पाठकगण प्रस्तुत पुस्तकको प्रेम-पूर्वक उपयोगमें ले कर हमारा और प्रकाशक महोदयका परिश्रम सफल करेगे। आरम्भमें प्रकाशक महोदयका यह विचार था कि प्रस्तुत ग्रन्थका लागत मूल्य रख कर प्रचार करावाया जाये। और उसके जितने दाम आवे उनमें और और पुस्तकें प्रकाशित कर. वायी जाय ; पर आपका यह विचार अन्त तक स्थिर नहीं रहा। शेषमें अन्तिम निर्णय यही रहा कि बिना दाम ही प्रचार कराया जाय। तदनुसार शानभण्डार, पुस्तकालय, पाठशाला, साधु, लध्वी, श्रावक और श्राविकाओंको उपहार स्वरूर देनेका निश्चय किया है। अतएव हर एक साधर्मोक बन्धुओंको चाहिये कि For Private And Personal Use Only

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