Book Title: Aagam 27 BHAKT PARIGYAA Moolam evam Chhaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 15
________________ आगम (२७) प्रत सूत्रांक ||६९|| दीप अनुक्रम [६९] “भक्तपरिज्ञा” - प्रकीर्णकसूत्र - ४ (मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [ ६९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र - [२७], प्रकीर्णकसूत्र [०४] "भक्तपरिज्ञा" मूलं एवं संस्कृतछाया ॥ २४ ॥ भक्तपरिज्ञा सुक्खं लहह मुक्खं ॥ ६९ ॥ ३४४ ॥ अरिहंतसिद्ध इयपवयणआयरिअसवसाहस्रं । तियं करेसु भत्तिं तिग रणसुद्वेण भावेणं ॥ ७० ॥ ३४५ || एगावि सा समत्था जिणभसी दुग्गई निवारे । दुलहा लहावेडं आसिद्धि परंपरसुहाई ॥ ७१ ॥ ३४६ ॥ विज्जावि भत्तिमंत्तस्स सिद्धिमुवया होइ फलया य। किं पुण निहुइविजा सिज्झिहिर अभत्तिमतस्स ॥ ७२ ॥ ३४७ ॥ तेसिं आराहणनायगाण न करिज्ज जो नरो भति । धणिअंपि उनमंतो सालिं सो ऊसरे बबइ ॥ ७३ ॥ ३४८ ॥ बीएण विणा सस्सं इच्छइ सो वासमन्भरण विणा। आराहणमिच्छतो आराहयभत्तिमकरंतो ॥ ७४ ॥ ३४९ ॥ उत्तमकुलसंपत्तिं सुहनिप्फत्तिं च कुणइ जिणभत्ती । मणियारसिट्टिजीवस्स ददुरस्सेव रायगिहे ॥ ७५ ॥ ३५० ॥ आराहणापुरस्सरमणन्नहियओ विसुद्धलेसाओ । संसारकखयकरणं तं मा मुंची नमुकारं ॥ ७६ ॥ ३५१ || अरिहंतनमुकारोऽवि हविल जो पुनर्लब्ध्वाऽक्षयसौख्यं लभते मोक्षम् ॥ ६९ ॥ अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनाचार्य सर्वसाधुपु तीव्रां कुरु भकि त्रिकरणशुद्धेन भावेन ।। ७७ ।। एकाऽपि सा समर्थ जिनभक्तिदुर्गतिं निवारयितुम् । दुर्लभानि लम्भवितुं आसिद्धेः परम्परमुखानि ।। ७१ ।। विद्याऽपि भक्तिमतः सिद्धिमुपयाति भवति फलदा च किं पुनर्निर्वृतिविद्या सेत्स्यत्यभक्तिमतः ? ॥ ७२ ॥ तेपामाराधनानायकानां न कुर्याद् यो नरो भक्तिम् । | वाढमप्युच्छन् शालिं स ऊपरे वपति ॥ ७३ ॥ वीजेन विना शस्यमिच्छति स वर्षामभ्रकेण विना । आराधनामिच्छन् आराधकभक्तिमकुर्वन् ॥ ७४ ॥ उत्तमकुलसंप्राप्तिं सुखनिष्पत्तिं च करोति जिनभक्तिः । मणिकारश्रेष्ठिजीवस्य दर्दुरस्येव राजगृहे ।। ७५ ।। आराधनापुरस्सरमनन्यहृदयो विशुद्धलेश्याकः । संसारक्षयकरणं तं मा मुच्च नमस्कारम् ।। ७६ ।। अर्हनमस्कारो भवेदेकोऽपि यो मरणकाले Far Pate the Ony Jan Eatinimaisma अरिहंतादे: भक्तिः वर्ण्यते ~14~ सम्यक्तवं भक्तिश्च ६१-७६ ॥ २४ ॥

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