Book Title: Aagam 16 SOORYA PRAGYAPTI Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम
(१६)
"सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१६], उपांग सूत्र - [9] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति:
सूर्यमज्ञ
प्रत सूत्रांक [१००
45-4545
गाथा:
*
छावद्विसहस्साई णब चेव सताई पंचसतराई । एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं ॥ ४० ॥ अंतो १९प्राभते सिवृत्तिःमणुस्सखेत्ते जे चंदिमसूरिया गहगणणखत्ततारारूवा ते णं देवा किं उद्दोववगा कप्पोववण्णगा चन्द्रवृक्षा (मला विमाणोववण्णगा चारोबवण्णगा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावण्णगा !, ता ते ण देवा णो उहोवव- चन्द्रा, पणगा नो कप्पोचवणगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा नो चारठितीया गइरझ्या गतिसमावण्णगा
दीनामू ॥२७८||
त्पन्नत्व दि उहामुहकलंयुअपुष्फसंटाणसंठितेहिं जोअणसाहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहिं साहस्सिएहि बाहिराहि य चेउधि-II
म १०० याहिं परिसाहिं महताहतणगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं महता उफटिसीहणाद-| कलकलरवेणं अच्छं पचतरायं पदाहिणावत्तमंडलचारं मेलं अणुपरियटृति, ता तेसि णं देवाणं जाधे ईद चयति से कथमिदाणि पकरेंति . ता चत्तारि पंच सामाणियदेवा तं ठाणं उवसंपजित्ताणं विहरति जाव अण्णे इत्थ इंदे उधवपणे भवति, ता इंदठाणे णं केवइएणं कालेणं विरहियं पन्नत्तं , ता जहणेण इक समय उक्कोसेणं छम्मासे, ता पहिता णं माणुस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगह जाव तारारूवा ते णं देवा किं उहो-||
ववष्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोचवण्णगा चारद्वितीया गतिरतीया गतिसमावण्णगा?, ता ते ण देवा: द्रिाणो उहोववण्णगा नो कप्पोववरणगा विमाणोववपणगा णो चारोचवण्णमा चारठितीया नो गइरहया णो
गतिसमावण्णगा पफिगसंठाणसंठितेहिं जोयणसयसाहस्सिएहिं तायक्वेत्तेहिं सयसाहस्सियाहिं याहि-II राहिं वेउवियाहिं परिसाहि महताहतनहगीयवाइयजावरवेणं दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति,
दीप अनुक्रम [१२९-१९२]
ARC4.3625
SAREnaturinaman
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