Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 02 Author(s): Arunvijay Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh View full book textPage 7
________________ लेखक के हृदयोद्गार.. आध्यात्मिक क्षेत्र में मेरा प्रवेश हुआ 'कि नहीं ? यदि प्रवेश हुआ तो आगे विकास हुआ कि नहीं ? और यदि विकास हुआ तो कितना हुआ ? किस सोपान पर पहुंचे हैं? कहां रुके हैं? यदि रुके हैं तो क्यों रुके हैं? विकास के अवरोधक कारण और क्या क्या हो सकते हैं ? आखिर विकास का प्रमाण कितना है ? विकास के सोपान कितने हैं? संसार में कितने जीव हैं? कैसे कैसे जीव हैं? कौन से जीव कीस गति में है? इन अनन्त जीवों का स्थान विकास के किस सोपान पर है ? किस गति के जीवों की विकास मर्यादा कितनी है? कहां तक है? वे क्यों नहीं आगे के सोपानों पर चढते हैं? आखिर क्या अवरोध है? मनुष्य गति में गृहस्थ किस विकास तक पहुंचे हैं? पहुंचते हैं? इसके आगे के सोपानों पर साधु सन्त महात्मा कैसे पहुंचते हैं? साधु-सन्त भी कैन किस सोपान पर है ? कौन आगे पीछे है ? कौन कहां तक पहुंचे है? किस सोपान पर राग बना जाता है? और किस पर तीर्थंकर भगवान बना जाता है? और आध्यात्मिक विकास का अंतिम सोपान कौनसा है ? विकास की पूर्णता कहां, कैसे होती है? पूर्ण विकसित सिद्धात्मा का सही स्वरुप क्या, कैसा होता है? अविकसित अपूर्ण स्वरुप क्या, कैसा होता है? - I आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में ये और ऐसे सेंकडों प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत पुस्तक के तीन खंडों में प्रस्तुत किया है । कर्म बाधक - अवरोधक तत्त्व है । क्यों और कैसे है? इसकी मीमांसा करते हुए गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थानुसार सरलसुगम और सचित्र विवेचन इन ती न खंडों में प्रस्तुत किया है। यह निश्चित है कि. प्रस्तुत पुस्तक साद्यन्त संपूर्ण समझते हुए पढने पर प्रत्येक साधक को अपना स्थानभूत सोपान ख्याल में आ जाएगा। आखिर मैं कौन हूं? कहां हूं? किस सोपान पर हुं? मेरा आध्यात्मिक विकास कितना हुआ है? मैं कहां रुका हुं? क्यों रुका हुं? अब पुनः आगे सोपान चढने के लिए मुझे क्या करना चाहिए ? इत्यादि का मार्गदर्शन इस ग्रन्थ से अवश्य मीलेगा । इस तरह प्रस्तुत ग्रन्थ आत्मा का एक अच्छा आयना है। जैसे दर्पण देह दर्शन कराता है ठीक वैसे ही ग्रन्थरुपी यह दर्पण आत्मदर्शन कराता है। आत्म स्वरुप एवं आत्मज्ञान तथा आत्मा की स्थिति का भान कराता है । सर्व सामान्य लोगों का कर्म शास्त्र का इतना अभ्यास न होने के कारण तथा भौतिक चकाचौंध में इतने डूबे हुए है कि... उसमें से ऊपर ही नहीं उठ सकते हैं। दूसरी तरफ भौतिक विकास को ही जीवन की सबसे बडी उपलब्धि मान ली है । इन्ही भौतिक साधन-सामग्रीयों की विपुल प्राप्तिPage Navigation
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