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॥ श्रीजिनाय नमः।
॥ श्रीविक्रमभूपचरित्रं ॥
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(मूलकर्ता-श्रीवर्धमामसूरिः) अन्वय सहित भाषांतरकर्ता तथा छपावी प्रसिद्ध कर्ता-पण्डित आवक हीरालाल हंसराज. (जामनगरवाला)
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सने १९२९.
(आ ग्रंथना अन्वय स्था भाषांतरना प्रसिद्ध कर्ताप सर्व इक स्वाधिन राख्या छ.)
मूल्य क. १-८-० Printed at Jain Bhaskaroday Printing Press JAMNAGAR |
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विक्रम
चरित्रं
॥ १ ॥
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॥ श्रीजिनाय नमः ॥
( सान्वयं गूर्जर भाषांतरसहितं च )
॥ अथ श्रीविक्रमभूपचरित्रं प्रारभ्यते ॥
( मूलकर्ता - श्रीवर्धमानसूरिः ) ( सम्यक्त्वनतउपर ) सर्वज्ञे सद्गुरौ धर्मे या श्रद्धा हृदि निश्चला । सम्यक्त्वमिति तत्त्वज्ञैर्विज्ञेयं हितमात्मनः ॥ १ ॥ अन्वयः - सर्वज्ञे, सद्गुरौ, धर्मे या हृदि निचला श्रद्धा, इति सम्यक्त्वं तत्त्वज्ञैः आत्मनः हितं विज्ञेयं ॥ १ ॥ अर्थः- सर्बज्ञ मञ्चमां, सद्गुरुमां अने धर्ममां अंतःकरणपूर्वक जे निवल श्रद्धा ते सम्यक्त्व कहेवाय, अने ते सम्यक्त्वने तत्वज्ञोए आत्मानुं हित करनारुं जाणवुं ॥ १ ॥
अस्य प्रभावाज्जायन्ते देवाः सेवाभृतो नृणाम् । विस्तारिण्यः श्रियः सर्वा यथा विक्रमभूपतेः ॥ २ ॥ अन्वयः - अस्य प्रभावात् यथा विक्रम भूपतेः नृणां देवाः सेवा भृतः, विस्तारिष्यः सर्वाः श्रियः जायते ॥ २ ॥ अर्थः- ते सम्यक्त्वना प्रभावथी विक्रम राजानीपेठे माणसोने देवो पण सेवा करनारा थाय छे, तथा सचळी विस्तीर्ण लक्ष्मी पण प्राप्त थाय छे, ॥ २ ॥
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1996
सान्वय
भाषांतर
॥ १ ॥
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सान्वय भाषांतर
विक्रम II तथाहि-जम्बूद्वीपेऽस्ति कुसुमपुरं कुसुमसंनिभम् । यत्र स्वर्णमयावासभासः केसरतां दधुः ॥३॥ चरित्रं ___ अन्वयः-तथाहि-जंबू द्वीपे कुसुम सभिभ कुसुमपुरं अस्ति, यत्र स्वर्णमय आवास भासः केसरतां दधुः ॥३॥
मर्थः-ते विक्रमराजानु रटांत कहे छे, जंबूद्वीपमा पुष्पसरखं कुसुमपुर नामर्नु नगर के, के जेमा (रहेला) सुवर्णना मेहेलोनी ॥ २ ॥
3. कांति (ते पुष्पना) केसरतंतुपणाने धारण करे छे. ॥३॥
राजास्मिन्हरितिलको भुवधूतिलकोऽजनि । नाम्ना गोरीति कान्तास्य गौरी कान्तगुणैरभूत् ॥४॥ ___ अन्वयः-अस्मिन भू वधू तिलकः हरितिलकः राजा अजनि, अस्य कांत गुणैः गौरी गौरी इति नाम्ना कांता अभूत् ॥४॥ अर्थः–ते नगरमा पृथ्वीरूपी स्वीना तिलकसरखो हरितिलकनामे राजा हतो, तेने मनोहर गुणोथी शोभती गौरीनामनी राणी इती. उपयाचितलक्षाभिर्दक्षलक्ष्यसुलक्षणः। तयोरपुत्रतादोषच्छेदनो नन्दनोऽभवत् ॥ ५॥
अन्वयः-उपयाचित कक्षाभिः तयोः दक्ष लक्ष्य मुलक्षणः, अपुत्रता दोप छेदनः नंदनः अभवत् ॥ ५॥ अर्थः-लाखो गमे मानताओवडे तेभोने, चतुर माणसोने देखातां उत्तम लक्षणोवाळो, तथा अपुत्रपणाना दोषने दूर करनारो पुत्र थयो. ॥५॥ "अस्मिन्गर्भस्थिते राज्ञा जिता विक्रमतोऽरयः । अतो विक्रम इत्याख्यामस्याम्बाकारयन्महैः ॥६॥
अन्वयः-अस्मिन् गर्भ स्थिते राजा विक्रमतः अस्यः जिताः, अतः अंबा महैः अस्य विक्रमः इति आख्यां अकारयत्. ॥६॥
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विक्रम चरित्रं
॥ ३ ॥
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अर्थः- ते पुत्र गर्भमां आव्यथी राजाए (पोताना ) विक्रमथी शत्रुभोने जीत्या, तेथी माताए महोत्सवपूर्वक तेनुं 'विक्रम' नाम पाढयुं. समये विनयी सोऽयमुपाध्यायवशंवदः । अधीती सर्वशास्त्रेषु निष्णः कृत्स्नकलाखभूत् ॥ ७ ॥
अन्वयः - समये विनयी, उपाध्याय वशंवदः सः अयं सर्व शास्त्रेषु भधीती, कृत्स्न कलासु निष्णः अभूत्. ॥ ७ ॥ अर्थः- समय आवे बिनयी भने अध्यापकना कहेवा प्रमाणे वर्तनारो ते भा विक्रमकुमार सर्व शास्त्रोनो अभ्यासी तथा सर्व कलाओमां निपुण थयो. ॥ ७ ॥
कामेभक्रीडनारण्ये तारुण्ये यातुमुद्यतम् । द्वात्रिंशन्नृपकन्याभिर्नृपस्तं पर्यणाययत् ॥ ८ ॥
अन्वयः - काम इभ क्रीडन अरण्ये तारुण्ये यातुं जयतं तं नृपः द्वात्रिंशत् कन्याभिः पर्यणाययत्. ॥ ८ ॥
अर्थ ः– कामदेवरूपी हाथीने क्रीडा करवाना बनसरखा यौवनने प्राप्त थवाने तैयार थयेला एवा ते कुमारने राजाए बलीस कन्याभोसावे परणाच्यो ॥ ८ ॥
यावद्दिव्येष्वसौ ताभिर्द्वात्रिंशद्वासवेश्मसु । रन्तुं प्रववृते तावदकस्माद्वधाधिभिर्वृतः ॥ ९ ॥
अन्वयः -- यावत् असौ दिव्येषु द्वात्रिंशद् वासवेश्मसु ताभिः रंतुं मबहते, तावत् अकस्मात् व्याधिभिः हृतः ॥ ९ ॥ अर्थः- पछी जेवामां ते मनोहर बत्रीस आवासोमां रहीने तेओनी साथै विकासमां जोढायो, एवामां अचानक ते रोगोवडे घेराइ गयो. कृष्टकासज्वरश्वासशोफशूलजलोदरैः । शिरोऽर्तिगडुदृक् पीडावान्तिवातैश्च सोऽर्दितः ॥ १० ॥
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सान्वय
भाषांतर
॥ ३ ॥
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विक्रम चरित्रं
सान्वय भाषांतर
॥
४
॥
RECARECORRESTERIES
अन्वयः-कुट कासार श्वास शोफ शूल जलोदरैः, च शिरः अति गड हा पीडा बांति वातैः सः अर्दितः ॥१०॥ अर्थः-कोड, खांसी, ताव, श्वास, सोजा, शूल, जलोदर, नथा मस्तकनो दुखाबो, गड, आंखोनी व्याधि, उलटी अने वायुवढे ते पीडावा लाग्यो. ॥१०॥
उपयाचितवस्त्यादिकर्ममन्त्रौषधक्रियाः । सर्व व्यर्थमभूदस्मिन्हितं वाक्यं जडे यथा ॥ ११ ॥ ___ अन्वयः-यथा जडे हितं वाक्य, (तथा) अस्मिन् उपयाचित बस्ति आदि कर्म मंत्र औषध क्रियाः, सर्व व्यर्थ अभूत् ॥११॥ अर्थ:-जेम मूर्खने कहेलु हितवचन निष्फल जाय, तेम तेनेमाटे करेली मानताओ, जुलावभादिकनी क्रिया, मंत्र तथा औषधोनी क्रिया, ए सघर्छ निष्फल थयुं. ॥ ११ ॥
शीर्णनासौष्ठहस्तांघिरत्यर्थं व्यथितोऽतिभिः । अनल्पं तल्पगः कष्टं रारटीति स्म सोऽनिशम् ॥१२॥ ___ अन्वयः-शीर्णनासा ओष्ट हस्त अघ्रिः सः भर्तिभिः अत्यर्थ व्यथितः तल्पगः अनिशं कष्ट रारटीतिस्म. ॥ १२ ॥
अर्थः-सड़ी गया के नासिका, होठ, हाथ तथा पगो जेना एवो ते व्याधिथी अत्यंत पीढायोधको हमेशा कष्टपूर्वक बूमो मारी | रडबा लाग्यो. ॥ १२ ॥ ततः पुरबहिःस्थस्य प्रसिद्धस्यार्तिशान्तये । धनंजयस्य यक्षस्य स मेने महिषाशतम् ॥ १३ ॥
अन्वयः-ततः सः अर्ति शांतये पुर बहिः स्थस्य धनंजयस्य यक्षस्प शतं महिपान मेने, ।। १३ ॥ अर्थः-पछी तेणे ते पीडानी शांतिमाटे नगरनी बहार रहेला धनंजयनामना यक्षने एकसो पाढा चढाववानी मानता करी.।१३। 13
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विक्रम
सान्वय भाषांतर
चरित्रं
द| तदा विमलकीाख्यः केवली केलिकानने । दुःकर्मतिमिरत्रासवासरः समवासरत् ॥ १४ ॥
अन्वयः तदा केलि कानने दुष्कर्म तिमिर त्रास वासरः विमलकीर्ति आख्यः केवली समवासरत. ॥ १४ ॥ अर्थ:-ते वखते क्रीडावननी अंदर दुष्कर्मरूपी अंधकारनो नाश करवामां मूर्यसरखा विमलकीर्तिनामना केवली भगवान (आवीने) समोसर्या ॥ १४ ॥ ततः केवलिनं नन्तुं भूर्भता भूरिभक्तिभाक् । चचालानन्दसंदोजागरैर्नागरैर्वृतः ॥१५॥
अन्वयः- ततः भूरि भक्तिभाक्, आनंद संदर्भ उज्जागैरः नागरैः कृतः भूभर्ता केवलिनं नंतुं चचाल. ॥ १५॥ अर्थ:-पछी घणी भक्तिवालो, तथा आनंदना उभराथी उत्सुक थयेला नगर जनोथी वीटायेलो ते हरितिलकराजा ते केवली भगवानने वादवामाटे चाल्यो.॥ १५ ॥
तद्विज्ञाय तदा विज्ञो विक्रमोऽपि व्यचिन्तयत् । लाभैलोभा इव रुजो हा वर्धन्ते ममोषधैः ॥ १६ ॥ ___ अन्वयः-तत् विज्ञाय तदा विज्ञः विक्रमः अपि व्यचिंतयत्, हा ! लाभैः लोभाः इव मम रुजः ओषधैः वर्धते. ॥१६॥ अर्थः ते जाणीने ते वखते ते चतुर विक्रम कुमार पण विचारवा लाग्यो के, अरेरे! लाभथी लोभनी पेठे मारा रोगो तो औषधोथी ( उलटा) वृद्धि पामे छे. ॥१६॥ मुद्रामण्डलमन्त्रस्तरोषधैरुपयाचितैः । भग्नं मझ्याधिषूदग्रैर्दन्तिदन्तैरिवाद्रिषु ॥ १७ ॥
अन्वयः-अद्रिषु उदः दंति देतैः इच, मद् व्याधिषु तैः मुद्रा मंडल मंत्रः, औषधैः उपयाचितैः भग्न. ।। १७॥
EXPERIENCES
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विक्रम चरित्र
__ अर्थः-पर्वतोपते हाथीना मजबूत दांतोनीपेठे, मारी आ व्याधिओ पासे ते मुद्राओ, मंडलो, मंत्रो, औषधो तथा मानताओ पण दू सान्वय थाकी गयां. ॥ १७॥
भाषांतर तन्मे दर्पादमी रोगसर्पाः सर्पन्ति यद्दलात् । तत्तमः शमयाम्यद्य ज्ञानभानुं भजे मुनिम् ॥१८॥ ___ अन्वयः-तत् मे अमी रोग सर्पाः यत् बलात् दर्षात् सर्पति, तत् तमः भय शमयामि, ज्ञान भानुं मुनिं भजे. ॥ १८ ॥
अर्थः-माटे मारा आ रोगोरूपी सो जेना बलयी पोतानुं जोर तजे ते भज्ञानरूपी अंधकारने हूं उपशमा, अने ते माटे ज्ञानथी सूर्यसरखा एवा, आ मुनिराजनी हुँ सेवा करु.॥ १८॥ अथ व्यजिज्ञपद् भूपमसावुद्यमसाहसी । शमगशिं नमस्कर्तुं समं नयत मामिति ॥ १९ ॥
अन्वयः-अथ उधम साहसी असो भूपं इति व्यजिझपन, शम राशि नमस्कर्तुं मां समं नयत।। १९॥ मर्थः-पछी उद्यम करवामां साहसिक एवा ते विक्रम कुमारे राजाने एवी विनंति करी के, शांतिना समूह सरखा (ते केवली भगवानने) बांद्वामाटे मने साथे लेइ जाओ ? ॥ १९ ॥ मुक्तालिखचितश्मश्रु मुखमश्रुकणेः सृजन् । नृपोऽथ नृविमानेन समं तमनयत्सुखम् ॥ २०॥
अन्वयः-अथ नृपः भश्रु कणैः मुक्ता आलि खचित श्मश्रु मुखं सृजन् , तं न विमानेन सुख समं अनयत् ॥ २० ॥ अर्थः-पछी ते राजा आंसओना विदुभोथी (जाणे) मोतीभोनी श्रेणिथी भरेनां दाढी मूबाळां (पोतानां) मुखने रचतोयको ते 131
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विक्रम चरित्रं
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सान्वय भाषांतर
॥ ७॥
॥७॥
विक्रमकुमारने पालखीमा वेसाडीने मुखेथी साये लेइ गयो. ॥ २० ॥ | वर्णाजविष्टरक्रोडनिविष्टं कलभाषिणम् । नृपः समं कुमारेण मुनिहंसं ननाम तम् ॥ २१ ॥
अन्वयः-स्वर्ण अब्ज विष्टर क्रोड निविष्ट, कल भापिणं तं मुनि हंसं नृपः कुमारेण समं ननाम. ॥ २१ ॥ अर्थः-सुवर्णना कमलपर रहेला सिंहासनना मध्य भागमा विराजेला, तथा मधुर बचन बोलता, एवा मुनिराजरूपी हंसने राजाए कुमारसहित वंदन कयु.॥ २१॥ ततो मुनिर्मनुष्याणां हरन्पापमिषं विषम् । वाचा सुधाद्रवाचारधारिण्या धर्ममादिशत् ॥ २२ ॥
अन्वयः-ततः मनुष्याणां पाप मिपं विष, सुधा द्रव भाचार धारिण्या वाचा हरन् मुनिः धर्म भादिशत् ॥२२॥ अर्थ:-पछी मनुष्योनां पापरूपी विपने, अमृतरसना प्रवाहसरखी वाणीथी हरताथका ते मुनिमहाराज धर्मदेशना आपवा लाग्या.२२ पप्रच्छ देशनान्तेऽथ विक्रमोक्त्या मुनिं नृपः । किं कुमारोऽयमारोग्यमारोहति न सर्वथा ॥२३ ॥
अन्वयः-अथ देशना अंते नृपः विक्रम उक्त्या मुनि पप्रच्छ, अयं कुमारः सर्वथा आरोग्य किं न आरोहति ॥ २३ ॥ भर्थः-पछी देशना पूरी थयाबाद राजाए ते विक्रम कुमारना कहेवाथी मुनिराजने पूछयु के, (हे भगवन् ! ) आ (मारो) कुमार सर्वथा प्रकारे निरोगी केम यतो नथी॥२३॥
ESAIGUERASAARESSAGES
RSHEIRST
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विक्रम चरित्रं
सान्वय भाषांतर
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GANESKROARSESENTS
व्यक्तदृश्यस्फुरद्धर्म इवास्ये दशनांशुभिः । ऊचेऽथ केवली ज्ञानकवलीकृतसंशयः ॥ २४ ॥
भन्वयः-अथ दशन अंशुभिः आस्ये व्यक्त रश्य स्फुरत् धर्मः इव, ज्ञान कवलीकृत संशयः केवली ऊचे. ॥ २४ ॥ अर्थः-त्यारे दांतोना किरणोबडे मुखमा प्रगट देखाता स्फुरायमान नाणे साक्षात् धर्मज होप नही एवा, तथा ज्ञानवडे नष्ट करेक के संदेह जेमणे, एवा ते केवली भगवान् बोल्या के, ॥ २४ ॥
पुरेऽपरविदेहो:रत्ने रत्नस्थलाभिधे । पद्माख्यश्छद्मनां सद्म कुराजन्यः पुराजनि ॥२५॥ ___ अन्वयः-पुरा अपर विदेह उर्वी रत्ने रत्न स्थल अभिधे पुरे छानां सम पम आरूपः कुराजन्यः अजनि. ॥ २५ ॥ अर्थः-पूर्वे अपर विदेहनी भूमिपर रत्नसरखा रत्नस्थल नामना नगरमां कपटना स्थानसरखो पद्मनामे (एक) दुष्ट राजा हतो. स मृगव्यरसव्यग्रो भूतलं वन्यमन्यदा । ययौ सुयशसं साधु कयोत्सर्गे ददर्श च ॥ २६ ॥ ___ अन्वयः-मृगच्य रस व्यग्रः सः अन्यदा वन्य भूतलं ययौ, च कायोत्सर्गे सुयशसं साधु ददर्श. ॥ २६ ॥ अर्थः-शिकारना रसमा मासक्त थयेनो ते राजा एक दिवसे बनभूमिमां गयो, अने (त्या) तेणे कायोत्सर्गध्यानमा रहेका सुयशनामना मुनिने जोया. ॥ २६ ॥ स धर्मज्ञानयो री धर्मज्ञानसमाश्रये । साधोरुरसि निःशङ्कः कङ्कपत्रं निखातवान् ॥ २७ ॥ अन्वयः-धर्म ज्ञानयोः बेरी सा, धर्म ज्ञान समाश्रये साधोः उरसि निःशंका कंकपत्रं निखातवान, ॥ २७॥
LO PRIGIOSASSAU GURUHI
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विक्रम चरित्रं
सान्वय भाषांतर
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अर्थः-धर्म भने ज्ञानना शत्रु एबा ते पमराजाए, धर्म अने ज्ञानना स्थान सरखां ते साधुना हृदयमा निःशंकपणे छरी भोंकी दीधी.२७ ॥ मिथ्यादुःकृतवाक्साधुः स्वव्यलीकविशड्या । पपात घातव्ययाऽथ धर्माधारतरुर्धराम् ॥ २८॥ ___अन्वयः- अथ स्त्र च्यलीक विशंक 1 मिथ्या दु कृत वाक्, धर्म आधार तरुः साधुः घात व्यग्रः धरां पपात. ॥ २८ ॥
भर्थ:-त्यारे मारी पोतानी कईफ भूल थइ छे, एवी शंकाथी" मिथ्या दुष्कृत" बोलता, अने धर्मना आधारभूत वृक्षसरखा, ते साधु ते छरीना पाथी बेभान थइने पृथ्वीपर पढी गया. ॥ २८॥
जन धिगिति जल्पन्तं निनन्भूपोऽथ मन्त्रिभिः । पापश्रीकौतुकशुकः कृतः क्षिप्त्वाशु पञ्जरे ॥ २९॥ अन्वयः-अथ धिक इति जल्पतं जनं निघ्नन् भूपः मंत्रिभिः आशु पंजरे क्षिप्त्वा पाप श्री कौतुक शुकः कृतः ॥ २९ ॥ अर्थः-पछी (भा दुष्कार्यथी) तेने धिकार आपता कोकोने मारता एवा आ राजाने मंत्रिभोए तुरत पांजरामा पूरीने पापलक्ष्मीने क्रीडा करवाना शुकसरखो वनावी दीपो. ॥ २९॥
न्यस्य तस्य सुतं राज्ये पुण्डरीकं स भूपतिः । सचिवैः पञ्जरायुक्तममोचि निरयोचितः ॥३०॥ ____ अन्वयः तस्य सुतं पुंडरीकं राज्ये न्यस्थ, निरय उचितः सः भूपतिः सचिवैः पंजरात् युक्तं अमोचि. ॥ ३० ॥
अर्थः-पछी तेना पुंडरीकनामना पुत्रने राज्यपर स्थापन करीने, नरकमां जवाने योग्य एवा ते राजाने मंत्रीओए युक्तिपूर्वक पांजकारामांथी मुटो कों. ॥ ३०॥
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विक्रम चरित्रं
सान्वय भाषांतर
॥ १० ॥
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सुयशा मुनिराजस्तु स्मरन्पश्चनमस्कृतीः । षड्जीववर्गान्क्षमयन्सुरोऽभूल्लवसप्तमः ॥ ३१॥ __ अन्वयः-सुयशाः मुनिराजः तु पंचनमस्कृतीः स्मरन पड् जीववर्गान् क्षमयन् लव सप्तमः सुरः अभूत. ॥ ३१ ॥ अर्थ:-हवे ते सुयश मुनिराज तो पंच परमेष्टिना नमस्कारोनुं स्मरण करताथका, तथा छकायना जीवोने खमावताथका देव थया. स तु राजा वहन्वैरं साधुवगें निरर्गलम । न जनर्निन्द्यमानोऽपि तत्पुरोद्यानमत्यजत् ॥ ३२ ॥
अन्वयः-सः राजा तु साधु वर्गे निरर्गलं वैरं वहन् , जनैः निंधमानः अपि तत् पुर उद्यानं न अत्यजत् ॥ ३२॥ अर्थः-ते दुष्ट राजाए तो साधुभोना समुदायपर अत्यंत वैर धारण करतां थकां, अने लोकोवडे निंदातां छतां पण, ते नगरना बननो त्याग कर्यो नही. ॥ ३२ ॥ ___ ध्यानाधीनो यशोधोतव्योमा सोमाभिधो मुनिः । तेनोव्यां दण्डपातेनापति स्वात्मेव दुर्गतो ॥३३॥
अन्वयः-ध्यान अधीन:, यशः धौत व्योमा, सोम अभिधः मुनिः, तेन स्व आत्मा दुर्गतौ इव, दंड पातेन उी अपाति.।३३। अर्थः- पछी एक दिवसे ) ध्यान ने आधीन थयेला, तथा (पोताना) यशथी आकाशने पण निर्मल करनारा, एवा सोमनामना मुनिने, ते (दुष्ट) राजाए, जाणे पोताना आत्माने दुर्गतिमां पाडतो होय नहीं ! तेम दंडना घातथी पृथ्वीपर पाडी नाख्या. क्ष्माजन्तुन्क्षमयित्वाङ्गं संमार्य प्रतिमास्थितः । मुनिस्तथैव घातेनापति पातकिनामुना ॥ ३४ ॥
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विक्रम || चरित्र
॥११॥
__ अन्वयः-माजंतून् क्षमयित्वा, अंग प्रमार्य, तथैव प्रतिमा स्थितः मुनिः अमुना पातकिना पातेन अपाति. ॥ ३४ ॥
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it अर्थः-(पछी) पृथ्वीकायना जीवोने खमावीने, तथा शरीर ममार्जीने पाछा पूर्वनीपेठेज कायोत्सर्ग ध्यानमा उभेला ते मुनिने
भाषांतर ते पापी राजाए (पाछो) प्रहार करीने पाडी नाख्या. ॥ ३४ ॥ इत्येष पोनःपुन्येन कुर्वन्पुण्येन साधुना । अवधिज्ञानविज्ञाततद्भावेनेति भस्तितः ॥ ३५॥
॥ ११॥ __ अन्वयः-इति पौनःपुन्येन कुर्वन् एपः, अवधि ज्ञान विज्ञात तद्भावेन पुण्येन साधुना इति भर्सितः ॥ ३५॥
अर्थः-ए रीते वारंवार करता एवा ते राजाने, अवधिज्ञानयी जाणेलो छे तेना मननो भाव जेणे, एवा ते पवित्र साधुए नीचे मुजब तिरस्कार आप्यो. ।। ३५॥ निघ्नन्साधूझमागाधान्रे रे दुष्ट स्वतुष्टये । न चेद्भातोऽस्यघात्तत्किं माहग्भ्योऽपि बिभेषि न ॥३६॥
अन्वयः-रे! रे! दुष्ट! स्व तुष्टये शम अगाधान साधून निघ्नन्, चेत् भघात् न भीतः असि, माहरभ्यः अपि किं न विभेषि? अर्थः-अरेरे! दुष्ट ! पोतानी मोज माटे, शांतिथी गंभीर साधुभोने मारतां जो तुं कदाच पापथी नथी डरतो, तोपण माराजेवाथी पण शुं तुं डरतो नथी? ।। ३६ ॥ शमिनः सुयशोमुख्या हन्त त्वामसहन्त रे । नाहं सहिष्ये हन्म्येष स्वाभीष्टं स्मर दैवतम् ॥३७॥ अन्वयः-रे! हत! सुयशः मुख्याः शमिनः त्वां असहंत, एषः अहं न सहिष्ये, इन्मि, स्व अभीष्ट देवतं स्मर? ॥ ३७॥
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विक्रम अर्थः-भरेरे! दुष्ट सुयशआदिक मुनिश्रोए तारूं सहन कर्यु छे, आ हुं ते सहन करवानो नथी, (हमण। तने) मारी नाखुं छु, [5] सान्वय चरित्रं
माटे तारा इष्टदेव तुं स्मरण कर ॥ ३७॥ इत्युक्त्वा तडितेवढूंतं तेजोलेश्यया मुनिः । भस्मीकृत्य द्रतं प्राप पयोद इव शान्तताम् ॥ ३८॥
भाषांतर ॥ १२ ॥ अन्वयः-इति उक्त्वा मुनिः, तडिता हूँ इव तेजोलेश्यया दुतं ते भस्मीकृत्य पयोदः इव शांततां पाप. ।। ३८॥
॥ १२॥ । अर्थः-एम कहीने ते मुनि, बीज कीथी वृक्षनी पेठे, तेजोलेश्पाथी तुरत तेने (बाळीने) भस्मीभूत करी मेघनी पेठे शांत थया. भूपोऽथ पापभारेण समुत्पतितुमक्षमः । अधोगतीनामवधि सप्तमी दुर्गतिं गतः ॥ ३९॥
अन्वयः-अथ पाप भारेण समुत्पतितुं अक्षमः भूपः, अधः गतीनां अवधि सप्तमी दुर्गतिं गतः ॥ ३९ ॥ अर्थः-पछी पापना भारथी उंचे जवाने असमर्थ एवो ते राजा, नीचीगतिनी सीमासरखी सातमी नरकमा गयो. ॥ ३९॥
सोऽप्यालोच्य प्रतिक्रम्म तदतिक्रम्य पातकम् । मुनिस्तीव्रतपस्तप्त्वा दिवमायुःक्षयादगात् ॥४०॥ ___अन्वयः-सः मुनिः अपि आलोच्य, प्रतिक्रम्य तत् पातक अतिक्रम्य तीव्र तपः तप्त्वा आयुः क्षयात् दिवं अगात्. ॥४०॥
अर्थः-(पछी) ते सोममुनि पण आलोचना लेइने, पडिक्कमीने, ते पापने ओळंगीने, आकरो तप तपी आयु समाप्त ययेथी
देवलोकमां गया. ॥४०॥ 131 स भरमणजीवस्तु स्वयंभूरमणार्णवे । अप्रतिष्ठाननरकादुम्धृतस्तमितां गतः ॥ ४१ ॥
RATECREER
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विक्रम
चरित्र
॥१३॥
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अन्वयः-सः भू रमण जीवः तु अपतिष्ठान नरकात् उधृतः, स्वयंभू रमण अर्गवे तिमितां गतः ॥ ४१ ।।
IG| सान्वय अर्थः-(पछी) ते राजानो जीव तो ते सातमी नरकमांधी उद्धरीने स्वयंभूरमण नामना महासागरमां मत्स्यपणे उत्पन्न धयो.
भाषांतर स तिमिः सतमीमेव जगाम जगतीं ततः । ततोऽप्युध्धृत्य मत्स्योऽभूद्गतः षष्ठीं च दुर्गतिम् ॥ ४२ ॥
।। १३ ।। ___ अन्वयः-सः तिमिः ततः सप्तमी एव जगीं गतः, ततः अपि उध्धृत्य मत्स्यः अभूत, च षष्ठी दुर्गतिं गतः ॥ ४२ ॥
अर्थः-ते मत्स्य त्यांधी पाछो सातमोज नरकमां गयो, अने त्यांथी पण निकळीने पाछो मत्स्य थयो, अने त्यांथी निकळीने छट्टी नरके गयो. ॥ ४२ ॥
चण्डालस्त्रीभवं प्राप्य पुनस्तत्रैव यातवान् । ततः कुम्मोनसो भूत्वा स भूमी पञ्चमी गतः ॥ ४३ ॥ ___ अन्वयः-चंडाल स्त्री भवं प्राप्य, पुनः तत्र एव याववान, ततः कुंभीनसो भूत्वा सः पंचमी भूमिं गतः ॥ ४३ ॥ अर्थः-पछी चंडालनी खोनो भव पामीने पाछो तेज छही नरकमां गयो, त्यांथी भयंकर सर्प थइने ते पांचमी नरके गयो.
पुनर्जगाम तामेव भुवं मीनभवान्तरः । मृगनाथः स भूत्वाथ तुरीयं निरयं गतः ॥४४॥
___ अन्वयः-पुन: मीन भव अंतरः तां एवं भुवं जगाम, अथ मृगनाथः भूत्वा सः तुरीयं निरयं गतः ।। ४४ ॥ ॐा अर्थः-वळी पाछो बच्चे मत्स्पनो भव करीने तेज पांचमी नरकमां गयो. तथा पछी सिंह थइने ते चोथी नरके गयो. ॥४४॥ |
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विक्रम
चरित्रं
॥ १४ ॥
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पुनस्तत्रैव पाठीनशरीरान्तरितोऽगमत् ॥ श्येनीभूय तृतीयं स इयाय निरयं ततः ॥ ४५ ॥ अन्वयः -- पुनः पाठीन शरीर अंतरितः तत्र एवं अगमत् ततः श्येनीभूप सः तृतीयं निरयं इयाय ।। ४५ ।। अर्थः- पाछो बच्चे मत्स्य धइने ते त्यां चोथी नरकमांज गयो, अने पाछो सकरो थने ते त्रीजी नरके गयो । ४५ ॥ गृधदेहं गृहीत्वाथ गतस्तामेव दुर्गतिम् । द्वितीयां भुजगो भूत्वा जगाम जगतीं च सः ॥ अन्वयः - अथ सूत्र देहं गृहीत्वा तां एवं दुर्गतिं गतः च भुजगः भूत्वा सः द्वितीयां जगतीं जगाम ॥ ४६ ॥ अर्थः- बळी गीधनुं शरीर धारण करीने पाछो तेज त्रीजी नरके गयो, तथा पछी सर्प थने ते बीजी नरके गयो. ॥ ४६ ॥ सोऽगम जोग तत्र भूयोऽपि दुर्गती तिमीभूयागमदसी प्रथमां पृथिवीमथ ॥ ४७ ॥
४६ ॥
अन्वयः - भोगभृत् भूय सः भूयः अपि तत्र दुर्गतौ गतः, अथ तिमीभूय असो मथमां पृथिवीं अगमत्. ॥ ४७ ॥ अर्थः- बळी सर्प थड़ने ते पाछो तेज बीजी नरके गयो, तथा पछी मत्स्य थइने ते पहेली नरके गयो ॥ ४७ ॥ अजायत स जीवोऽथ पक्ष्येको विकलेन्द्रियः । होनेन्द्रियचर्यास्तर्यग्नोवजातिर्नरः सुरः ॥ ४८ ॥
अन्वयः - अथ सः जीवः पक्षी, एकः, विकल इंद्रियः, दीन इंद्रिय चयः, तिर्यक्, नीच जातिः नरः सुरः अजायत ॥ ४८ ॥ अर्थः- बळी ते जीव पक्षी, एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय, इंद्रियोना दिन समूह वाळो तिर्यच, नीच जातिवाळो मनुष्य अने देव थयो. ४८
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सान्वय भाषांतर
॥ १४ ॥
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सान्वय
विक्रम चरित्रं
भाषांतर
॥ १५ ॥
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नारकश्चेति शतशः सोऽभृद्भवचरश्चिरम् । नानायोनिभवां भूरिपराभृति समाश्रयत् ॥४९॥
अन्वयः-च नारकः, इति सः शतशः भवचरः अभूत, चिरं नाना योनि भवां भूरि पराभूति समाश्रयत्. ॥४९॥ अर्थः-पाछो (वच्वे भवांतर करीने) ते नारकी थयो, एम ते सेंकडो बखत विविध भवोमां रखड्यो, अने घणा काळमुधो ते ते विविध जन्मोमां थयेली घणी वेदनाओ तेणे सहन करी. ॥ ४९ ॥ आकुलः कष्टकोटीभिबन्धव्यथवधादिभिः । भवे भवे स पञ्चत्वमवाप व्यापदां पदम् ॥ ५० ॥
अन्वया पापदां पदं सः बंध व्यय वध आदिभिः कटकोटीभिः आकुलः सः भवे भवे पंचत्वं अवाप. ॥ ५० ॥ अर्थः-दुःखोनां स्थानसरखो ते बंधनोनी पोडा, तथा वध आदिक क्रोडोगो कहोषी व्याकुल थयो यको ते भवो भवामृत्यु पाम्यो. ॥ ५० ॥
इत्यापदोऽतिगहनाः सहमानेन संवृतो। तेन बढ्योऽवसर्पिय उत्सर्पिण्यश्च निन्यिरे ॥ ५१ ॥ ___ अन्वयः इति संमृतौ अति गहनाः आपदः सहमानेन तेन वड्यः सपियः च उत्सर्पियः निन्धिरे, ।। ५१ ।। अर्थः-परीते संसारमा अति भयंकर आपदाओने सहन करतांथ का तेणे घगी आसर्पि गी भो भने उत्सर्पिगी भोने यतीत करी. सोऽकामनिर्जराक्षामकर्माथ तनुभूरभूत् । गृहिणः सिंहदत्तस्य वसन्तपुरवासिनः ॥ ५२॥
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सान्वय
विक्रम चरित्रं
भाषांतर
॥१६॥
CONNOVACRORRESTEASI
अन्वयः-अथ अकाम निर्जरा क्षाम कर्मा सः वसंतपुर बासिनः सिंहदत्तस्य गृहिणः तनुभूः अभूत् ।। ५२ ॥ भर्थः-पछी अकाम निर्जराथी कोने खपावीने ते वसंतपुरमा रहेनारा सिंहदत्तनामना गृहस्थीनो पुत्र थयो. ।। ५२ ॥
तारुण्ये तापसीभूय तपस्तप्त्वा स दुस्तपम् । फल त्वज्ञानकष्टस्य प्राप त्वरपुततामयम् ॥ ५३ ॥ ___ अन्वयः-तारुण्ये सः अयं तापसीभूय दुस्तपं तपः तप्त्वा अज्ञान कष्टस्य तु फलं त्वत् पुत्रतां पाप. ॥ ५३॥ अर्थः-पछी यौवन वयमा ते तापस थइने, तथा आकरो तप तपीने, ते अज्ञानकष्टना फलरूप आपना पुत्रपणाने प्राप्त थयो.
ऋषिघातप्रवचनद्वेषजं पापमेष तत् । तीव्राभिः कष्टकोटोभिस्ताभिस्ताभिरशोषयत् ॥ ५४॥ ___ अन्वयः-ऋपि घात प्रवचन द्वेष जं तत् पापं एपः, ताभिः तामिः तीवाभिः का कोटीभिः अशोषयत् ॥ ५४॥ अर्थः-मुनिनी हिंसा तथा जैनशासनना द्वेपथी उत्पन्न ययेला ते पापने तेणे ते ते आकरा क्रोडोगो कष्टो सहन करीने खपाच्युं. तेन शोषितशेषेण दुरितेन तवात्मजः । अयं बभूव भूपाल रोगजालस्य भाजनम् ॥ ५५॥ __ अन्वयः-(हे) भूपाल! शोपित शेषेण तेन दुरितेन आंतर आत्मजः रोग जालस्प भाजनं बभूव ॥ ५५ ॥ अर्थ:-हे राजन् ! खपावतां खपावतां बाकी रहेलां ते दुष्कर्मथी आ तमारो पुत्र रोगोना समूहना पात्ररूप धपो छे. ॥ ५५ ।। इत्युक्तिं दुःश्रवां श्रुत्वा चकम्पे चकितो नृपः । स विक्रमकुमारस्तु जातजातिस्मृतिर्जगो॥ ५६ ॥
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विक्रम
सान्वय भाषांतर
चरित्रं
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॥१७॥
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भन्वयः-इति दुरश्रवां उक्तिं श्रुत्वा चकितः नृपः चकंपे, सः विक्रम कुमारः तु जात जातिस्मतिः जगी. ॥ ५६ ॥ अर्थः-एवी रीतनां (ते मुनिनां) दुःश्रव बचनो सांभळीने भयभीत थयेलो राजा तो कंपवा लाग्यो, भने ते विक्रम कुमार तो है (पोताने) जातिस्मरण ज्ञान थवाथी बोल्यो के, ॥ ५६ ॥ विवेकदीपमप्राप्य प्रभो मोहतमोहतः । हहा कष्टमहासिन्धौ मार्गभ्रष्टः पुरापतम् ॥ ५७ ॥
अन्वयः-(हे) मभो! हहा! पुरा विवेक दीपं अपाप्य, मोह तमः हतः मार्ग भ्रष्टः कष्ट महासिंधी अपतं ।। ५७ ।। अर्थ:-हे प्रभु! अरेरे! पूर्व विवेकरूपी दीपक नही मळबाथी मोहरूपी अंधकारथी अंध थइने कुमार्गमा अथडातो थको हुं कष्टरूपी महासागरमां पझ्यो, ।। ५७ ॥ इतश्चेतश्च चण्डाभिस्ताड्यमानस्तदुर्मिभिः । देवात्तत्तीरमेत्यास्मिन्मनो रुपङ्कसंकटे ॥ ५८ ॥
अन्वयः-चंदाभिः तत् ऊर्मिभिः इतः च इतः च ताब्यमानः दैवात तत्तीरं एत्य अस्मिन् रुक पंक संकटे मग्नः ।। ५८॥ ___ अर्थः-तेना भयंकर मोजांभोथी आमतेम भटकातो एवो हुँ दैवयोगे ते कष्टसागरने किनारे आवीने आ रोगोरूपी कादवना | संकटमा सपढाइ गयो छ. ॥ ५८ ॥
जगद्गुरो करालम्वं तद्यच्छानवलम्बितम् । आकर्ष. मामितः खामिनिरीह करुणां कुरु ॥ ५९ ॥
EcARRECTRATEGRA
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विक्रम चरित्र
सायन्व भाषांतर ॥१८॥
॥१८॥
CREASONICROREART
अन्वयः-(हे) जगत् गुरो ! (हे) स्वामिन् ! (हे) निरीह ! तत् अनवलंबितं कर आलंयं यच्छ ? मां इतः आकर्ष ? इह || करुणां कुरु ? ॥ ५९॥
अर्थः-हे जगत् स्वामी ! हे प्रभु ! हे निःस्पृह ! माटे हवे तुरत आपना हाथनो टेको आपो ? अने आ कादवमांथी मने खेंचो ? तथा मारापर कृपा करो? ॥ ५९॥ सम्यक्त्वैकगुणप्रोतद्वादशवतभूषणम् । श्राद्धधर्ममथो हस्तमिव व्यस्तारयद्विभुः ॥६॥
अन्वयः-अथो विशुः इस इन, सम्यक्त्व एक गुण पोत द्वादश व्रत भूषणं आध धर्म व्यस्तारयत्. ।। ६० ॥ अर्थः-पछी ते केवली भगवाने (पोताना) हाधनी पेठे सम्यक्त्वरूपी एक गुणथी (दोरीथी) परोवेला (गुंथेला) एवा बार व्रतोरूपी आभूषणवाळा श्रावकधर्मने विस्तार्यो, ।। ६०॥
रोमहर्षाङ्कुराकीणों हर्षाश्रुकणमिश्रदृक् । जग्राह श्रावकं धर्म विक्रमोऽथ यथाविधि ॥ १ ॥ ___ अन्वयः-अथ रोम हर्ष अंकुर आकीर्णः, हर्ष अश्रु कण मिश्र हा विक्रमः यथाविधि श्रावक धर्म जग्राह. ॥ ६१ ॥
अर्थः-पछी हर्षथी रोमांचित थयेला, तथा हर्षाश्रुना बिंदुओथी भरेली आंखोवाळा ते विक्रम कुमारे विधिपूर्वक श्रावक धर्मने अंगीकार कर्यो. ॥ ६१ ॥
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विक्रम
चरित्रं
॥ १९ ॥
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पोको नया तो मुनिं पुरमीयतुः । व्यहरद
बोसुधाम्नोभिस्ततो मुनिः ॥ ६२ ॥
अन्वयः-ततः भूषः भद्रकः अभूत्, मुनिं नत्वा तौ पुरं ईयतुः, बोधि सुधा अंभोधिः मुनिः वसुधां व्यहरत् ।। ६२ ।। अर्थः- पछी राजा पण भद्रकपरिणामी थयो, त्यारवाद ते मुनिराजने वांदीने तेओ बन्ने नगरमां गया, अने ज्ञानरूपी अमृतना महासागर सरखा ते मुनिराज पण पृथ्वीपर विहार करवा लाग्या ।। ६२ ।।
धर्मद्रुमूलसम्पक्लरसाच्यादरुतादरः । छिन्नाचन्देर्मुमुचे उपाधिनिर्विकमः क्रमात् ॥ ६३ ॥
अन्वयः- - धर्ममूल सम्यक्त्व रस आस्वाद कृत आदरः विक्रमः क्रमात् छिन अब कंदैः व्याधिभिः मुमुचे ।। ६३ ॥
--
अर्थः- धर्मनां मूळसरखां सम्यक्त्वनो रस चाखवामां करेलो छे आदर जेणे, एवो ते विक्रमकुमार अनुक्रमे पापोनां मूळो छेदीने रागोथी मुक्त थयो ।। ६३ ।।
नवोल्लासितलावण्यपुण्यसर्वाङ्गवङ्गिमा । धर्मालंकरणः सोऽभून्मुक्तेरपि मनोरमः ॥ ६४ ॥
अन्वयः - नव उल्लासित लावण्य पुण्य सर्व अंग चंगिमा, धर्म अलंकरणः सः मुक्तेः अपि मनोरमः अभूत् ॥ ६४ ॥ अर्थः- नवां प्रफुल्लित थयेलां लावण्यथी पवित्र थयेल छे सर्व शरीरनी शोभा जेनी, तथा धर्मरूपी आभूषणवाळो ते विक्रमकुमार मुक्तिने पण मनोहर लागवा लाग्यो. ॥ ६४ ॥
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তনজন5-56
सान्वय
भाषांतर
॥ १९ ॥
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विक्रम | चरित्र
सायन्व भाषांतर
॥ २०॥
॥२०॥
AGUSTUHA ASSASSICILARIN
निशाशेषेऽन्यदा यक्षः प्रत्यक्षः स जगाद तम् । मच्छक्त्या सजदेहोऽसि देहि मे महिषाशतम् ॥६५॥5 ___ अन्वयः-अन्यदा सः यक्षः निशा शेषे प्रत्यक्षः तं जगाद, मत् शक्त्या सज्ज देहः असि, मे शतं महिषान् देहि ? ॥६५॥ अर्थः-पाठी एक दिवसे ते धनंजय यक्षे पाछली रात्रिए प्रत्यक्ष थइने तेने कर्दा के, मारी शक्तिबी तुं निरोगी शरीरवाळो थयोछ, (माटे हो) मने एकसो पाडाओनुं बलिदान आप ? ।। ६५ ।।
तमूचे विक्रमो याचनलुलायान्कि न लजसे । जज्ञेऽङ्गं मुनिदिष्टेन सज धर्मोषधेन मे ॥ ६६ ॥ ___ अन्वयः-तं विक्रमः ऊचे, लुलायान याचन् किं न लज्जसे ? मे अंग मुनि दिष्टेन धर्म औषधेन सज जज्ञे. ॥६६॥
अर्थः-(त्यारे) सेने ते विक्रमकुमारे कयु के, (हे यक्ष !) पाडाओनी मागणी करतां शुं तुं शरमातो नथी? माशारीर तो मुनिराजे उपदेशेला धर्मरूपी औषधथी सार थयुं हे. ॥ ६६ ॥ धर्माख्यमौषधं दृष्टप्रत्ययं कष्टतोऽर्जितम् । जीवव्यापादपापाब्धी यक्ष कः क्षिपति प्रधीः ॥ ६७ ॥
अन्वयः-(हे) यक्ष ! इष्ट प्रत्यय, कष्टतः अजितं धर्म आख्ध औषधं कः प्रधीः जीव व्यापाद पाप अब्धौ लिपति ? ॥ ६७ ।। ___ अर्थ:-हे यक्ष! जेनी खातरी प्रत्यक्ष जोयेली छे, तथा जे महाकष्टे मळेलुं छे, एवं धर्मनामर्नु अपध कयो मुचुदि माणस ४ा जीवहिंसारूपी पापना महासागरमां फेंकी दे? ॥ ६७ ॥
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Gyanmandie
विक्रम
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चरित्र
सायन्व भाषांतर ॥ २१ ॥
॥ २१ ॥
RORNARRORECAECIES
आचचक्षे च यक्षेशो ददास्पन्यस्य मद्यशः । ततस्तते करिष्यामि कामं येनानुतप्यसे ॥६॥
अन्वयः-च यक्ष इशः आचचक्षे, मयशः अन्यस्प ददासि, ततः ते तत् करिष्यामि, येन कामं अनुतप्यसे. ।। ६८ ॥ अर्थ-पछी ते याद्रे कप के, मारो यश जे तुं वीजाने आषे छे, तेथी तने हुं एवु करी बतावीश, के जेवी तने खूब पश्चात्ताप थशे. इत्युदित्वा तिरोभृते यक्षे दौकशेखरः । अनाकुलमनाश्चके कृत्यकर्माणि विक्रमः ॥ ६९ ॥ ___ अन्वयः-इति उदित्वा यक्षे तिरोभूते दक्ष एक शेखरः विक्रमः अनाकुल मनाः कृत्य कर्माणि चक्रे ॥ ६९ ।।
अर्थः-एम कहीने ते यक्ष अदृश्य थयावाद चतु शिरोमणि एवो ते विक्रमकुमार मनमा व्याकुल थपाविना (पोतार्नु) नित्य कार्य करवा लाग्यो. ॥ ६९ ॥ तत्रामरनिकेताख्योद्यानश्रीशेखरेऽन्यदा । जिनागारे कुमारेन्दुर्थयो कल्याणकोत्सवे ॥ ७ ॥
अन्वयः-अन्पदा कुमार इंदुः तत्र अमर निकेत आख्य उद्यान श्री शेखरे जिनागारे कत्याणक उत्सवे ययी. ॥ ७० ॥ अर्थः-एक बखते ते कुमारचंद्र त्यां अमरनिकेतनामना उधाननी लक्ष्मीना मुकुट परखा जिननंदिरमा (मधुना) कल्याणकना | महोत्सवमा गयो. ॥ ७० ॥ 8 ततः स्नात्रविलेपार्चाप्रेक्षणीयस्तवक्षणैः । जिनेन्दोर्जनयित्वैष यात्रां यावन्न्यवर्तत ॥ ७१ ॥
RECORAKAASHAROKARANG
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Acharyan ka
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विक्रम
सावर
चरित्रं ॥ २२ ॥
भाषांतर
॥२२॥
HASHISHASRADHAREFRONT
अस्तम्भयद्भयव्यग्रं तावत्तस्याखिलं बलम् । निजक्रीडावनकोडे स धनञ्जयगुह्यकः ॥ ७२ ॥ युग्मम् ।
! ___ अन्वयः-ततः स्नात्र विलेप अर्चा प्रेक्षणीय स्तव क्षणैः जिन इन्दोः यात्रां जनयित्वा यावत् एपः म्यवर्तत, ।। ७१ ॥ तावत् सः धनंजय गुह्यकः निजक्रीडा बन क्रोडे तप भय व्यग्रं अखिलं वलं असंभवत् ।। ७२ ।। युग्मं ॥
अर्थः-पछी ( त्यां) स्नात्र, विलेपन, पूजन, नाटक तथा स्तवनना महोत्सवथी ते जिनचंद्रनी भक्ति करीने जेवामां ते कुमार पाछो वळपो, ॥७१।। तेवामां ते धनंजय यज्ञे पोताना क्रीडावननी अंदर भयभीत थयेलो तेना सर्ग सैन्यने स्तंभी राख्यु. ॥७२॥ । यमाग्निकोणपध्वान्तकोटिक्लुप्तामिवाथ सः । हताम्बरचरस्फूर्ति मूर्ति निर्माय मायया ॥ ७३ ॥ रोषलोषितया भीष्मघनघर्घरघोषया । तं क्षोणिपसुतं यक्षः साक्षेपमिदमब्रवीत् ॥ ७४ ॥ युग्मम् ॥
अन्वयः-अथ सः यक्षः यम अनिकौणप ध्वांत कोटि क्लुप्तां इव, हत अंबर चर स्फूर्ति मृति मायया निर्माय, रोप प्लोषितया, भीष्म घन घर घोषया ( वाचा ) तं क्षोणिप सुतं साक्षेपं इदं अप्रवीत् ।। ७३ ।। ७४ ।। युग्मं ॥
अर्थः-पछी ते यक्ष यम, अग्नि, राक्षस, तथा अंधकारना सारथी जाणे चनापी होय नही ! एवी, तथा खेचरोना गमनने पण हणनारी, एवी पोतानि मूर्ति मायाथी बनावीने, रोप भरे ठी, तथा भयंकर मेघगर्जना सरखा घर अवाजवाळी (भाषाथी) ते राजपुत्रने धमकावीने कहेवा लाग्यो के ॥ ७३ ।। ७४ ।। युग्मं ।।
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Gamandi
विक्रम चरित्रं
सायन्व
भाषांतर
॥ २३॥
॥ २३ ॥
KONKARRESTER
न रे नराधम कथं ददासि मम कासरान् । आयुःकाण्डमकाण्डेऽपि समापयसि किं स्वकम् ॥ ७५॥ __ अन्वयः-रे! नर अधम ! मम कासरान कथं न ददासि ? अकांडे अपि स्व. आयुः कांई कि समाप पसि ।। ७५ ।। अर्थः--अरे अधम पुरुष! मने पाडा केम आपतो नथी? तथा कवखते पण पोतार्नु आयु शामाटे समाप्त करे छे! ।। ७५ ।। स्मितधौताधरोऽधत्त कुमारो भारतीमथ । भो यक्ष न क्षिपामि स्वं तनुमद्घातपातके ।। ७६ ॥ ___ अन्वयः-अथ स्मित धौत अधरः कुमारः भारती अधत्त, भोः यक्ष! तनुमत् घात पातके सं न सिपा.मे. ।। ७६ ॥
अर्थः-पछी हास्यथी धोयेल ठे होठ जेणे एवो ते कुमार बचन बोल्यो के, हे यक्ष! जीवहिंसाना पापमां हुं मारा आत्माने धकेलवानो नथी. ॥ ७६ ।।। अप्यारब्धबहुत्राणाः प्राणाः कस्यापि न स्थिराः । तत्कृत्याकृत्यविकुर्यादकृत्यं तत्कृतेऽपि कः ॥ ७७ ॥
अन्वयः-आरब्ध बहु त्राणाः अपि कस्स अपि माणाः स्थिराः न, तत् कः कृत्य अकृत्यवित् तत् कृते अकृत्यं अपि कुर्यात् ? अर्थः-घणुं रक्षण कर्या छतां पण कोइना पण पाणो स्थिर रही शकता नथी, माटे कार्य अकार्षने जाणनारो को माणस ते 3 प्राणोमाटे अकार्य पण करे? ॥ ७७ ।।
इत्याकर्ण्य क्रुधा यक्षो विक्रम क्रमसंग्रहात् । उत्पाट्यास्फालयद्वीचीमिवाभ्यर्णाचलेऽर्णवः ॥७८॥
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Acharyan ka
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RI
विक्रम चरित्रं ॥ २४ ॥
भाषांतर
२२५१२२
|॥२४॥
अन्वयः-इति आकर्ष यक्षः धा, अर्गवः अधर्ण अचले वीची इव, विक्रम का संग्रहात उत्पाव्य आस्फालयत् ॥७॥ अर्थः-ते सांभळीने यक्षे क्रोधथी, महासागर नजीकना खडकपर जेम मोजांओने पछाडे, तेम ते विक्रमकुमारने पग पकडी उपाडीने पछाड्यो. ॥ ७८ ॥ मूर्छामुच्छिय यक्षस्तं क्रुधान्धः पुनरभ्यधात् । रे रे ददासि नाद्यापि किं मद्देयमदेयवत् ॥ ७९ ॥
अन्वयः-वक्षः मूछी उच्छिय ऋधा अंधः पुनः तं अभ्यधाव रेरे! अदेयवत् अय अपि मददेव किं न ददासि ? ॥ ७९ ॥ अर्थः-पछी यक्षे तेनी मूर्छा दूर करी क्रोधांध थइ फरीने तेने का के, अरे! जाणे देवु न होय ! तेम हजु पण शुं तारे मारूं करज आपq नथी? ॥ ७९ ॥
कृपां करोषि जीवेषु स्वजीवे न करोषि किम् । मध्यतां गतेऽमुष्मिन्धर्माविष्कारकारणे ॥ ८॥ ___ अन्वयः-जीवेषु कृषां करोषि, धर्म आविष्कार कारणे, मद् वध्यतां गते अमुष्मिन् स्व जीवे (कृपां) किं न करोपि? ॥८॥
अर्थ:-तुं वीजा) जोचोनी तो दया करे छे, अने धर्म प्रगट करवाना कारणभूत, तथा माराथी हणाता, एवा आ पोताना
जीवपर (तुं) केम दया करतो नथी ।। ८० ॥ 8 धर्माधारः कुमारोऽथ गिरं जग्राह साहसी । स्वैकजीवकृते जीवशतं को हन्ति धर्मवित् ॥ ८१॥
ACARECACANCHAR
PRAKA८.२३५-
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सायन्व भाषांतर
विक्रम दा
अन्वयः-अथ धर्माधारः साहसी कुमारः गिरं जग्राह, धर्मवित् कः स्व एक जीव कृते जीव पातं इंति ? ॥ ८१ ॥ चरित्रं
अर्थः-त्यारे धर्मनो आधारभूत् ते साहसिक विक्रमकुमार बोल्यो के, धर्मने जाणनारो कयो माणस पोताना एक जीवमाटे सो
जीवनी हिंसा करे? ॥ ८१ ॥ ॥ २५ ॥ फलं तवापि धिग्यक्ष जीवलक्षनिपातनैः । इहामगन्धिकं धाम परत्र नरकव्यथा ॥ ८२॥
अन्वयः-(हे) यक्ष! धिक! जीव लक्ष निपातनः इह तव अपि आमगंधि धाम फलं, परन नरक व्यथा. ॥ ८२ ॥ अर्थ:-हे यक्ष ! धिकर छे! के, लाखोगमे जीवोनी हिंसाथी अहीं आ (भवमा तने) आ तारां दुर्गधयुक्त स्थानरूपी फल मळेल छे, अने परभवमां नरकनी वेदनारूपी फळ मळशे. ॥ ८२ ॥ त्वं धर्मादेव देवत्वं यातोऽसि प्राग्भवं स्मर । पातके जातकेलिस्तत्किमसि ज्ञानवानपि ॥ ८३ ॥
अन्वयः त्वं प्राग भवं स्मर ? धर्मात् एव देवत्वं यातः असि, तत् ज्ञानवान् अपि पातके जात केलिः किं असि ? ॥ ८३ ।। अर्थः-तुं तारा पूर्व भवने याद कर धर्मथीज तुं देवपणुं पाम्यो छे, माटे ज्ञानी होवा छता पण तू पापकार्योमो शामाटे क्रीडा | करी रह्यो छे? ॥ ८३ ॥ पुण्यकपरिणामेन जगदुल्लासहेतुना । तवापि युज्यते धर्तुमानन्दं वन्दनादिना ॥ ८४ ॥
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सान्वय
विक्रम चरितं ॥ २६॥
भाषांतर
।। २६॥
CALCAKACOCONTROUP
अन्वयः-पुण्य एक परिणामेन, जगत् उल्लास हेतुना, वंदन आदिना तव अपि आनंदं धर्तुं युज्यते ॥ ८४ ॥ अर्थः-(माटे) पुण्यनाज एक परिणामवाळा, तथा जगतने हर्पना कारणरूप एवां वंदनआदिकधीज (संतुष्ट थइने ) तारे पण आनंद पामचो लायक छे. ।। ८४ ॥
इति तस्योक्तिभियुक्तिभिन्नाभिभिन्नमानसः । यक्षोऽभ्यधादहो साधु त्वयाहं प्रतिबोधितः॥८५॥ ___ अन्वयः-इति युक्ति भिन्नाभिः तस्प उक्तिभिः भिन्न मानसः यक्षः अभ्यधात्, अहो! त्वया अहं साधु पतिवोधितः ।। ८५॥ अर्थः-एरीते युक्तिवाळां तेनां वचनोथी नम्र थयेला मनवाळा ते यक्षे का के, अहो! तें मने ठीक प्रतिबोध आप्पो. ।। ८५॥ ततो नाद्यापि माद्यामि पापाहरङ्गिनां वधैः। नृणां प्रणाममात्रण गमिष्यामि प्रसन्नताम् ॥८६॥ ___ अन्वयः-ततः अय अपि पाप हैं: अंगिनां वरः न मायाम, प्रणाम मात्रेण नृणां प्रसन्नतां गमिष्यामि ॥८६॥
अर्थः-माटे हवे आजथी हुँ पाप उपार्जन करनारी जीवहिंसाथी खुशी थइश नही, परंतु फक्त प्रणामथीज हुं लोकोपते प्रसन्न रहीश. ॥८६॥
कुरु त्वमपि मे नाम प्रणामममलाशय । तेनैव तेऽनुमंस्येऽहं संपूर्णमखिलं खलु ॥८७॥ ___ अन्वयः-हे ! अमल भाशय ! त्वं अपि मे नाम प्रणामं कुरु ? तेन एव ते अई अनुमंस्ये, अखिलं खलु संपूर्ण. ॥ ८७ ॥ अर्थः-हे निर्मल आशयवाळा विक्रम कुमार! तुं पण मने फक्त प्रणाम कर?, अने तेथीज तारापर हुं प्रसन थइश, (हवे बीजी)
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सायन्ब
विक्रम
चरित्रं ।। २७॥ ट्र
भाषातर
॥ २७॥
सघळी (हकीकत) हुं मांडी वाळू छु. ॥ ८७ ॥ कुमारोऽथ जगी यक्ष नमस्कारो हि पञ्चधा । प्रहासविनयप्रेमप्रभुभावप्रभेदभाक् ॥ ८८॥
अन्वयः-अथ कुमारः जगी, हे यक्ष! नमस्कारः हि पहास विनय प्रेम प्रभु भाव प्रभेद भान पंचधा. ॥ ८८ ।। अर्थः-त्यारे कुमारे का के, हे यक्ष! नमस्कार खरेखर हांसी, विनय, प्रेम, मालिक अने भावना भेदथी पांच प्रकारनो छे. स प्रहासप्रणामः स्याच्चित्तोत्सङ्गितमत्सरैः । यः क्रियेत परिज्ञातविक्रियेभ्योऽपि सक्रियः॥८९॥
अन्वयः-चित्त उत्संगित मत्सरैः सक्रियैः परिज्ञात विक्रियेभ्यः अपि यः क्रियेत, सः प्रहास प्रणामः स्यात् ।। ८९ ॥ अर्थः-मनमां मत्सर लावीने सत्कार करवानो डोळ करीने, जाणेलो छ (पोताप्रतेनो) तिरस्कार जेभोनो, एवा माणसोने पण | जे प्रणाम कराय छे, ते हांसीयुक्त प्रणाम कहेवाय. ।। ८९॥ तमामनन्ति विनयप्रणामं नयपण्डिताः। पित्रादिभ्या विधीयेत पुलायैर्विनयेन यः॥९॥
अन्वयः-पितृ आदिभ्यः पुत्र आयैः विनयेन यः विधीयेत, तं नय पंडिताः विनय प्रणामं आमनंति. ॥ ९ ॥ अर्थ:-पितामादिकोने पुत्रआदिको विनयथी जे प्रणाम करे छे, तेने नीतिकोविदो विनयप्रणाम माने छे. ॥ ९०॥ प्राहुः प्रेमप्रणामं तं प्रणयिभ्यः क्रियेत यः। कामं सप्रेमकोपेभ्यो मित्रादिभ्यः प्रसत्तये ॥ ९१ ॥
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विक्रम चरित्रं
॥ २८ ॥
MESSAGARRER
अन्वयः-प्रणयिभ्यः यः क्रियते तं प्रेम प्रणाम पाहः, कामं सप्रेम कोपेभ्यः मित्रादिभ्यः प्रसत्तये ।। ९१ ॥
सान्वय अर्थः-प्रीति राखनाराओ प्रते जे कराय छे, तेने प्रेमप्रणाम कहे छे. अने ते पायें करीने प्रेम सहित कोपातुर धयेला मित्रो आदिकने प्रसन्न करवामाटे कराय छे. ॥ ९१॥
भाषांतर यस्तु स्वामिनि संमानमानश्रीदानशालिनि । ऐहिकः क्रियते खामिनमस्कारमुशन्ति तम् ॥ ९२॥ ॥२८॥
अन्वयः-तु संमान मान श्री दान शालिनि स्वामिनि यः अहिकः क्रियते तं स्वामि नमस्कार उशंति. ॥ ९२ ॥ अर्थः-वळी सत्कार, आदरमान तथा लक्ष्मीदान आपनारा मालिकसते जे आ लोकना लाभमाटे नमस्कार करवो, तेने स्वामिनमस्कार कहे छे. ॥ ९२ ॥ यः सदगुरौ च देवे च वीतरागे विरच्यते । तं तु भावनमस्कारं निर्दिशन्ति विशारदाः ॥ ९३ ॥
अन्वयः-सद्गुरौ च वीतरागे देवे च यः विरच्यते, तंतु विशारदाः भाव नमस्कार निर्दिशति ।। ९३ ॥ अर्थः-बळी उत्तम गुरुपते तथा रागरहित तीर्थकर प्रभुपते जे नमस्कार कराय छे, तेने विद्वानो भावनमस्कार कहे छे. ॥९३।। विचारय त्वमेतेषु कं नमस्कारमर्हसि । इत्याकये कुमारोक्तिमभ्यधत्त धनंजयः ॥ ९४॥
___ अन्वयः-त्वं विचारय एतेषु के नमस्कार असि ? इति कुमार उक्ति आकर्य धनंजयः अभ्यधत्त, ।। ९४ ।। BI अर्थः-(माटे हे यक्ष!) तुं विचार के, ते पांचे नमस्कारोमांथी कया नमस्कारने तुं लायक छे ? एवीरीतनुं कुमारनुं वचन सां- ||3|
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विक्रम
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सायन्व
चरित्रं
भाषांतर
॥ २९ ॥
॥ २९॥
भळीने धनंजये का के, ।। ९४ । । त्वं कुमार नमस्कारं कुरु भावमयं मयि । यदेवोऽस्मि जगत्कारसंहारोद्धारकारणम् ॥१५॥
अन्वयः-(हे) कुमार ! त्वं मयि भावमयं नमस्कारं कुरु ? यत् जगत्कार संहार उद्धार कारणं देवः अस्मि ।। ९५ ॥ अर्थ:-हे कुमार! तुं मने भावमय नमस्कार कर! केमके हुँ जगतने उत्पन्न करवामां, संहार करवामां, तथा तेनो उद्धार करवामां कारणरूप देव छ. ॥९५ ।। भवाणवसमुत्तारतरीभूतविभृतयः । मदंशा एव भासन्ते सर्वदर्शनदेवताः ॥ ९६ ॥
अन्वयः-भव अर्णव समुत्तार तरीभूत विभूतयः, सर्व दर्शन देवताः मत अंशाः एव भासते. ।। ९ ।। अर्थः-(केमके) संसारसागरनो पार पामवामाटे नावसरखी समृद्धिचाळा सर्व दर्शनोना देवो मारा अंशरूपेज प्रकाशी रया छे.९६ मन्नमस्कारमात्रेण तव संसारसागरः । विक्रम क्रमलढयत्वमनुल्लखयो गमिष्यति ॥ ९७॥ ___ अन्वयः-(हे) विक्रम! मत् नमस्कार मात्रेण अनुलंघ्यः तव संसार सागरः क्रम लंध्यत्वं गमिष्यति ।। ९७॥ अर्थः-हे विक्रम ! मने फक्त नमस्कार करवाथीज, न उल्लंघी शकाय एवो पण (आ) तारो संसारसागर एक पगलेज उलंघी शकाशे. अथाब्रूत स्मितस्यूतवदनो नृपनन्दनः । मयाकृष्टः क्रियापापाद्वापापे यक्ष मा पत ॥ ९८ ॥
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विक्रम
सान्वय भाषांतर
चरित्रं
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॥३०॥
॥ ३०॥
अन्वयः-अथ स्मित स्यूत वदनः नृपनंदनः अबूत, हे यक्ष ! मया क्रिया पापान आकृष्टः, वारू पापे मा पत? ॥ ९८ ॥ अर्थः-पछी हास्यथी सीवाइ गयेला मुखवाळा ते राजकुमारे का के, हे यक्ष : में तने दुष्क्रियारूपी पापमांथी तो बहार कहाड्यो | छे, हवे (पाछो) तुं वचनरूपी पापमां नही पड ।। ९८ ॥
जगतां सृष्टिसंहारोद्धाराः सन्ति न सन्ति वा । इति सम्यग्न जानासि स्वमाख्यासि च तत्क्षमम् ॥२९॥ ____ अन्वयः-जगतां सृष्टि संहार उद्धाराः संति वा न संति, इति सम्क् न जानासि, च सं तत् क्षम आख्यासि. ॥ ९९ ।।
अर्य-जगतनी उत्पत्ति, विनाश, के उद्धार छे के नही, तेसंबंधी पण तने पूरी समज नथी. अने पोताने ते ते कार्योमाटे स| मर्थ कहेछे! ।। ९९ ॥ यदङ्गमहसा दृष्टिः सहसा तव लुप्यते । तैः सुरेन्द्रैः स्तुतान्ख्यासि स्वांशान्दर्शनदेवताः ॥ १० ॥
अन्वयः-यत् अंग महसा सहसा तव रहिः लुप्यते, ते मुंद्रैः स्तुतान स्व अंशान दर्शन देवताः ख्वासि. ।। १०० ।। | अर्थ:-जेना शरीरना तेजथी एकदम तारी आंखो पण अंजाइ जाय, एवा देवेंद्रोए (पण) स्तबेला ( देवाधिदेवोने) तुं तारा म अंशरूप दर्शनिओना देवो कहे छे ! ॥१०॥
स्वयं भवाब्धो मत्स्यस्त्वं चापलेनोपलक्ष्यसे । नमस्कारात्तदत्तारं कुतो दिशसि मे ततः ॥ १ ॥
अन्वयः-वं स्वयं भव अभ्यो चापलेन मत्स्य उपलक्ष्यसे ततः नमस्कारात् तत् उतारं मे कुत' दिशसि ॥१॥
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विक्रम चरित्रं
।। ३१ ॥
| अर्थः-तुं पोते आ संसारसागरमां चपलपणाथी मत्स्यसरखो देखाय छे, तो पछी नमस्कारथी ते भवसाग थी मने पार उता-|| सायन्व रवानुं शीरीते कहे छे' ॥१॥
भाषांतर वचसा निष्फलेनैव तत्पापं मा वृथा कृथाः । भवेन्मम नमस्कारो भवेऽस्मिन्न जिनं बिना ॥२॥ अन्वयः तत् निष्फलेन एव वचसा था पापं मा कृथाः ? अस्मिन् भवे जिनं विना मम नमस्कारः न भवेत् ॥ २॥
॥३२॥ अर्थ-माटे निरर्थक वचनथीज तुं फोकट पाप न कर? केमके आ जन्ममां तीर्थंकरमभुविना मारो नमस्कार थइ शके एम नथी. इति वादिनि यक्षेन्दर्मेदिनीनाथनन्दने । गिरं जागरयामास विवेकविमलामिमाम् ॥३॥
अन्वयः-मेदिनी नाथ नंदने इति वादिनि यक्ष इंदुः इमां विवेक विमलां गिर जागरयामास. ॥ ३ ॥ अर्थः-ते राजकुमारे एम कहेबाथी ते यक्षराज नीचेमुजब विवेकथी निर्मल थयेटी वाणी बोलवा लाग्यो के, ॥३॥ ददृशे त्वादृशः कोऽपि पुमाननुपमाकृतिः । धीरो धर्मी च वाग्मो च राजपुत्र न कुलचित् ॥४॥ ___ अन्वयः- हे) राजपुत्र ! त्यादृशः अनुपम आकृतिः, धीरः, धर्मी च वाग्मो च कः अपि पुमान कुत्रचित् न ददृशे. ॥४॥ अर्थ:-हे ! राजपुत्र ! तारासमान अनुपम वरूपवाळो, धैवंत, धर्मी तथा वाचाळ कोइ पण पुरुष कांधे पण में जोयो नथी.।४। जितस्त्वयाहं वचनैस्तेनाम्मि तव किंकरः । शुद्धधर्मोपदेशाच्च मम त्वमति सद्गुरुः ॥ ५॥ अन्वयः-त्वया अहं वचनैः जितः, तेन तव किंकरः अस्मि, च शुद्ध धर्म उपदेशात् त्वं मम सद्गुरु, असि. ॥ ५॥
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विक्रम
चरित्रं
॥३२॥
अर्थः-तें मने वचनोथी जीत्यो, माटे (हुं) तारो नोकर छु, तथा (मने) शुद्ध धर्मनो उपदेश देवाथी तुं मारो सद्गुरु छ.। ५ । || सान्वय खचित्तकोणं वासाय निजदासाय यच्छ मे । त्वच्छिष्यो यदि जानामि तद्गतां त्वद्गुणावलीम् ॥ ६ ॥
भाषांतर अन्वयः-निज दासाय मे वासाय व चित्त कोणं यच्छ, यदि त्वत् शिष्यः तत् गतां त्वत् गुण आवली जानामि. ।। ६॥ __ अर्थ:--तारा सेवक एवा मने बसवा माटे तारां हृदयनो (एक) खूणो आप? के जेथी तारो शिष्य थयेलो हुं तेमा रहेली तारा ॥३२॥ | गुणोनी श्रेणिने जाणी शकुं.॥६॥
विभो विरहयिष्यामि निजं चेतो न च त्वया । कदापि यदि वेत्तीदं जिनसेवोत्सवं तव ॥ ७॥ __ अन्वयः-(हे) विभो! च त्वया निज चेतः न विरहयिष्यामि, यदि कदापि इदं तब जिन सेवा उत्स वेति. ॥ ७ ॥ अर्थ:-हे प्रभु! बळी तारी साथे मारां हृदयनो हुँ विरह करीश नही, के जेथी कोइक दिवसे पण आ मारु हृदय तारा जिनसेवाना महोत्सवने जाणी शकशे. ॥ ७॥ भर्तः स्मर्तव्य एवाहमुत्कटे संकटे क्वचित् । अयमेव हि भृत्यानां स्वामिन्यवासरः परः ॥८॥
अन्वयः-हे) भर्तः कचित् उत्कटे सफटे अहं स्मर्तव्यः एव हि भृत्यानां स्वा मेनि अयं एव परः अबसरः ॥ ८॥
अर्थ:-हे स्वामी! कोइक विकट संकट बखते मने याद करवाज, केमके नोकरोनो स्वामिना संबंधमां तेज उत्कृष्टो अवDII सर होय छे. ।।८।।
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विक्रम
सान्वय भाषांतर
चरित्रं ॥३३॥
॥ ३३ ॥
इत्युदित्वैनमापृच्छयावगूह्य च स गुह्यकः । ययौ निजाश्रयं चित्रतच्चरित्रचमत्कृतः ॥९॥
अन्वयः-इति उदित्वा एनं आपृच्यच, च अवगृह्य सः गुधका चित्र तत् चरित्र चमत्कृतः निज आश्रयं गयी. ॥ ९॥ अर्थः-एम कहीने, तथा तेनी रजा लेइने, अदृश्य थइ ते यक्ष तेना आश्चर्यकारक चरित्रथी चमत्कार पामीने पोताने स्थानके गयो. ततः प्रत्यूषशेषायां रजन्यां राजपुङ्गवः । द्रुतं विज्ञातवृत्तान्तः कुमारोपान्तमापतत् ॥ १० ॥
अन्वयः-ततः विज्ञात वृत्तांतः राजपुंगवः प्रत्यूष शेषायां रजन्यांद्वतं कुमार उपांत आपततः ॥ १० ॥ अर्थः-पछी आ वृत्तांत जाणीने राजा (पोते) रावि वीत्याबाद तुरत ते राजकुमारनी पासे आव्यो. ॥१०॥ मुदा कुमारमालिङ्गय पत्तनाय निनाय सः। बालार्करश्मिकाश्मीरनीरश्रीरम्यया भुवा ॥ ११ ॥
अन्वयः-सः मुदा कुमारं आलिंग्य बाल अब रश्मि काश्मीर नीर श्री रम्पया भुवा पत्तनाय निनाय. ॥ ११ ॥ अर्थः-पछी ते यक्ष हर्षथी कुमारने भेटीने, उगता मूर्पनां किरणसरखां केसरना जलनी शोभाथी मनोहर धयेली जमीनपरथी नगरमा लेइ गयो. ॥११॥ प्रत्यध्वपोरगीराङ्गीदृक्तामरसतोरणे । कुमारमुत्सवेनाथ नृपः प्रावीविशत्पुरे ॥ १२ ॥ अन्वयः-अथ नृपः प्रति अध्व पौर गौर अंगी दृक् तामरस तोरणे पुरे उत्सवेन कुमारं प्रावीविशत् ॥ १२ ।
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सान्वय भाषांतर
॥ ३४॥
विक्रम अर्थः–पछी राजाए मार्गे मार्गे. नगरनी स्वीओनी आंखोरूपी कमलोना तोरणोबाळां नगरमां महोत्सवपूर्वक ते विक्रमकुमारने चरित्र
प्रवेश कराव्यो. ॥ १२ ॥
कालेन केनचिद्राज्यभारमारोप्य विक्रमे । जगाम नामशेषत्वमेष भूपालपुङ्गवः ॥ १३ ॥ ॥ ३४॥
अन्वयः-केनचित् कालेन एषः भूपालपुंगवः विक्रमे राज्य भार आरोप नाम शेषत्वं जगाम. ॥ १३॥ अर्थ:-पछी केटलेक काले ते राजा ते विक्रमकुमारने राज्यनो भार सोपीने पंचव पाम्यो. ॥ १३ ॥ कुर्वन्ननित्याताध्यानसुधासिन्धूर्मिमजनम् । पितृशोकाग्निजं तापममुश्चद्विक्रमो नृपः ॥ १४ ॥
अन्वयः-विक्रमः नृपः अनित्यता ध्यान सुधा सिंधु ऊर्मि मजनं कुर्वन् पितृ शोक अग्नि तापं अमुंचत् . ॥ १४ ॥ अर्थः-पछी ते विक्रमराजाए अनित्यपणाना ध्यानरूपी अमृतसागरना मोजांओमां स्नान करतांथकां पिताना शोकरूपी अग्निथी उत्पन्न थयेला तापने शांत कर्यो. ॥ १४ ॥ विवेकं पितृशोकाग्निविशेषविशदं ततः । हृदलंकरणं चक्रे निष्कवद्विक्रमो नृपः ॥१५॥
अन्वयः ततः विक्रमः नृपः निष्कवत पितृ शोक अग्नि विशेष विशद विवेक हद अलंकरणं चक्रे. ॥ १५ ॥
अर्थः-पछी ते विक्रमराजाए सुवर्णनीपेठे, पिताना शोकरूपी प्रवल अग्निथी निर्मल थयेला विवेकने पोताना हृदयमां आभू12ी पणनीपेठे धारण कर्यो. ॥१५॥
CRPHARRISHTRA
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विक्रम चरित्रं
CIRCORRECECE
न्यायकल्पद्रुमारामच्छायामध्ये निवेश्य भूः । तेनाभूष्यत सर्वाङ्गमहगृहविभूषणैः ॥ १६ ॥
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सान्वय अन्वयः-तेन न्याय कल्प द्रुम आराम छायामध्ये निवेश्य भूः सर्व अंगं अर्हद् गृह विभूषणैः अभूष्यत. ॥ १६ ॥
भाषांतर अर्थः-पछी तेणे न्यायरूपी कल्पवृक्षोना बगीचानी छायामां बेसीने, पृथ्वीने सर्व बाजुएयी तीर्थकर प्रभुना मंदिरोरूपी आभू
॥ ३५॥ पणोबडे शणगारी. ॥ १६ ॥ सप्तव्यसननिर्मुक्तममुक्तसुकृतोद्यमम् । अभूद् भूपेऽत्र भूपीठं राजन्ते राजवत्प्रजाः ॥ १७ ॥
अन्वयः-अत्र भूपे भू पीठ सप्त व्यसन निर्मुक्तं, अमुक्त मुकत उयम अभूत, मजाः राजवत राजते. ।। १७ ॥ अर्थः-आ राजा राज्य करते छते पृथ्वीतल साते व्यसनोथी रहित थयुं अने पुण्यसंबंधी उयमवाळ थयू, केमके प्रजा पण राजासरखीज तेजवाळी थाय छे. ॥ १७ ॥ आगात्तदेशभङ्गाय कलिङ्गाधिपतिर्यमः । कदाप्याकस्मिकापातः संनिपात इवोत्कटः ॥ १८ ॥
अन्वयः-कदापि उत्कटः संनिपातः इव, कलिंग अधिपतिः यमः आकस्मिक आपातः तत् देशभंगाय आगात् ॥ १८ ॥ अर्थः-पछी एक दिवसे विकट सनिपातनीपेठे कलिंगदेशनो राजा यम, अचानक हल्लापूर्वक तेना देशनो विनाश करवामाटे आव्यो. दूरं देवस्य कस्यापि प्रभावादद्भुतौजसा । हरिः स हरिणेनेवाचक्रमे तेन विक्रमः ॥ १९ ॥
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विक्रम चरित्रं
सान्वय भाषांतर
॥ ३६॥
॥ ३६॥
KEKOREANSAR
अन्वयः-हरिणेन हरिः इस अद्भुत ओजसा तेन कस्य अपि देवस्य प्रभावात् सः विक्रमः आचक्रमे ॥ १९ ॥ अर्थः-पछी हरिण जेम इंद्रपर आक्रमण करे, तेम अति बळवडे करीने तेणे कोइक देवना माहात्म्यथी ते विक्रमराजापर हल्लो को. ॥ १९॥
शूग्मण्डलतेजांसि दूरयन्तन्यरेणुभिः । विक्रमोऽथ धरित्रीन्दुरभ्यमित्रीणतां गतः ॥ २०॥ ___ अन्वयः-अथ सैन्य रेणुभिः शूर मंडल तेजांसि दूरयन धरित्री इंदुः विक्रमः अभ्पमित्रीणतां गतः ॥ २० ॥ अर्थः-त्यारे सैन्यनी रजथी मूर्यमंडलना तेजने पण आच्छादित करतोथको ते विक्रमराजा पण तेनी सामे थयो. ॥ २० ॥ यमविक्रमयोर्जाग्रदुग्रविक्रमकर्मणोः । तयोः प्रववृते वीरसिंहसंहरणो रणः॥ २१ ॥
अन्वया-जाग्रत उग्र विक्रम कर्मणोः तयोः यमविक्रमयोः वीर सिंह संहरणः रणः पवते. ॥ २१ ॥ अर्थः-प्रगट यता प्रचंड पराकमवाळा एवा ते यम तथा विक्रमराजाचच्चे शूरवीरोरूपी सिंहोनो विनाश करनारो रणसंग्राम थवा लाग्यो. ।। २१ ।।
जातदेवानुभावोजःसंक्रमो विक्रमं यमः । जितोत्कटचमूकोटिविकटे संकटेऽनयत् ॥ २२ ॥ ___ अवयः-जात देव अनुभाव ओजः संक्रमः, जित उत्कट चमू कोटिः यमः विक्रमं विकटे सकटे अनयत् ॥ २२ ॥ अर्थः-देवना प्रभावथी जेनामां तेजनुं संक्रमण थयेलु छे एवा, तथा जीतेल छे विकट सैन्पनी कोटि जेणे एवा ते यमराजाए | 5
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Acharya Sa
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Shri Maharan Adana Kenda
विक्रम
सान्वय
चरित्रं
भाषांतर
॥३७॥
॥ ३७॥
ते विक्रमराजाने अतिसंकटा नाख्यो. ।। २२ ।। | पादान्ते ढोकणीकृत्य कृतदोःसंयम यमम् । स्मृतिमात्रागतो यक्षस्तदा विक्रममैक्षत ॥ २३ ॥
अन्वयः-तदा स्मृति मात्र आगतः यक्ष:, कृतदोः संयम यमं पाद अंते दीकणीकृत्य विक्रमे ऐक्षत. ।। २३ ।।। अर्थः-ते बखते फक्त याद करवाथीज आवी पहोंचेलो ते धनंजययक्ष हाथ बांधेला ते यमराजाने पगपासे भेट धरीने विक्रमराजाने जइ मळ्यो. ॥ २३ ॥ हीनोद्यम दीनमुखं विद्विषं वीक्ष्य विक्रमः । बन्धादुन्मोच्य देशायादिदेशाढ्यकृपाशयः ॥ २४ ॥
अन्वयः-हीन उद्यम, दीन मुखं विद्विषं वीक्ष्य, आढ्य कृपा आशयः विक्रमः बंधात् उन्मोच्य देशाय आदिदेश. ।। २४ ।। अर्थः-(कंइं पण) उद्यमविनाना अने दीनमुखबाळा ते शत्रुने जोइने उल्लसेली दयाना आशयवाळा ते विक्रमराजाए तेने बंधनरहित करावीने तेना देशमा जवानी आज्ञा आपी. ॥ २४ ॥
मानयित्वा च नत्वा च यक्षमक्षीणसौहृदम् । अनुज्ञाय निवासय स्वपुरायाचलन्नृपः ॥ २५ ॥ ___ अन्वयः-च अक्षीण सौहदं यक्ष मानयित्वा च नत्वा निवासाय अनुज्ञाय नृपः स्वपुराय अचलत्. ।। २५ ॥
अर्थः-पछी गाद मिलाइवाळा ते यक्षने सन्मान करीने, नमीने तथा तेने स्थाने जवानी रजा आपी ते राजा पोताना नगर ॐा तरफ चाल्यो. ॥ २५॥
KATARA
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विका चरित्रं
11 26 11
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पुर्या मङ्गलशृङ्गारयाचा हृदयेऽविशत्। प्रतोलीदृक्पथेनाथ भूनाथः कीर्तिभूषणः ॥ २६ ॥
अन्य :- अथ कीर्ति भूषणः भूनाथः मंगल शृंगार हुयायाः पुत्रः हृदये मतोली दृक् पथेन अविशत् ॥ २६ ॥ अर्थः- पछी कीर्तिरूपी आभूषणवाळो ते राजा मंगलिक भने शणगारथी मनोहर ययेली ते नगरीना मध्यमां दरबाजारूपी दृष्ट मार्गे दाखल थयो. ॥ २६ ॥
तस्मिन्राजनि राजन्तः पौराः सौराज्यसंपदा । महोत्सवैर्दिवो देवान्धरामानिन्यिरेऽन्वहम् ॥ २७ ॥ अन्वयः -- तस्मिन् राजनि सौराज्य संपदा राजतः पौराः महोत्सवैः अन्वहं देवान् दिवः घरां आनिन्यिरे ॥ २७ ॥ अर्थः- ते राजा राज्य करते छते स्वराज्यनी समृद्धिथी शोभता नागरिको महोत्सवोथी हमेशां देवोने देवलोकमांथी पृथ्वीपर
लाववा लाग्या ।। २७ ।।
व्रजन्भूपोऽन्यदा बाह्यावनीं वाह्यालिकेलये । किमप्योकः क्षणक्षीवास्तोकलोकमलोकत ॥ २८ ॥
अन्वयः -- अन्यदा वाह्य आलि केलये वाह्य अवनीं व्रजन् भूपः, क्षण क्षीव अस्तोक लोकं किं अपि भोकः अलोकन ||२८|| अर्थः-- एक दिवसे घोडाओनी श्रेणिने खेलाववामाटे बहारनी भूमिपर जता ते राजाए महोत्सवमां लीन थयेला घणां मनुच्योथी भरेलु कोइक घर जोयुं ।। २८ ।।
बाहयित्वा हयान्मृषो वलमानादेव सः अमन्दाकन्दसंदर्भगर्भमैक्षत मन्दिरम् ॥ २९ ॥
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Pr
-52-524-577
सान्वय
भाषांतर
॥ ३८ ॥
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विक्रम चरित्र
॥ ३९ ॥
ECORIESBHABHARAT
__ अन्वयः-हयान वाहयित्वा तदैव बलमानः स भूपः मंदिरं अमंद आनंद संदर्भ गर्भ ऐक्षत. ॥ २९ ।।
सान्वय अर्थः-(पछी) घोडाओ खेलावीने तेज वखते पाछा बळेला ते विक्रमराजाए (तेज) घर अति विलापना उछालावाळं जोयूं.
भाषांतर विस्मयव्याकुलेनैको नरः पार्श्वचरस्ततः । पृष्टस्तत्कारणं राज्ञा विज्ञायेति व्यजिज्ञपत् ॥ ३० ॥ __ अन्वयः-ततः विस्मय व्याकुलेन राज्ञा एकः पार्थचरः नरः तत् कारणं पृष्टः, विज्ञाय इति व्यजिज्ञपत् ॥ ३०॥
॥ ३९ ॥ अर्थः-पछी आश्चर्यथी व्याकुल थयेला ते राजाए नजीकमां ननारा कोइक पुरुषने तेनुं कारण पूछवाथी तपास करीने तेणे कधु के ॥३०॥ स्वामिन्नेतगृहेशस्य महेभ्यस्य गतेऽहनि । अपुत्रकस्य पुत्रोऽभूदन्धस्येव दृगुद्गमः ॥ ३१ ॥
अन्वयः-(हे) स्वामिन् ! गते अहनि एतद् गृह ईशस्य अपुत्रकस्य महेभ्यस्थ, अंधस्य हग उद्गमः इव पुत्रः अभूत्. अर्थ:-हे ! स्वामी ! गइ काले आ घरना पुत्र रहीत मालीक एवा एक म्होटा शेठने त्यां, अंधने भांखो प्रगट थवानीपेठे, पुत्रनो जन्म थयो हतो. ॥ ३१ ॥
इदानीमेव वाह्यालिविलासगमनक्षणे। तन्निमित्तभवोऽदर्शि देवेनेह महोत्सवः ॥ ३२॥ ___ अन्वयः-इदानीं एच वाह्य आलि विलास गमन क्षणे, देवेन इह तन्निमित्त भवः महोत्सवः अदनि ॥ ३२ ॥ अर्थः-हमणाज घोडाओनी श्रेणिने खेलाचवा जती वेळाए आपे आ घरमां ते पुत्रजन्मना निमित्तथी महोत्सव थतो जोयो हतो. | 5.
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विक्रम चरित्रं
सान्वय भाषांतर
॥४०॥
॥४०॥
CANNARRRRREKTERNER
अधुनैव पुनर्दैवयोगतः स मृतः शिशुः । तद्वियोगार्तिमार्गेण तत्पिताति तमन्वगात् ॥ ३३ ॥ अन्वयः--पुनः अधुना एव दैव योगतः सः शिशुः मृतः, तत् वियोग अर्ति मार्गेण तत् पिता अपि तं अन्वगात् ॥ ३३॥ अर्थः-परंतु इमणाज दैवयोगे ते बाळक मरण पाम्यो छे, अने तेना वियोगनी पीढाने मार्गे तेनो पिता पण तेनी पाछळ गयो छे, (अर्थात् मरण पाम्यो छे.) ॥ ३३ ॥ तत्कुटुम्बजनः सर्वः पुत्रजन्मोत्सवागतः। प्रत्युत द्विगुणे दुःखे पतितो रारटीत्ययम् ॥ ३४ ॥
अन्वयः-पुत्र जन्म उत्सव आगतः सर्वः अयं तत्कुटुंब जनः प्रत्युत द्विगुणे दुःखे पतितः रारटीति. ॥ ३४॥ अर्थः-पुत्रना जन्मोत्सवमाटे आवेला आ सघळा तेना कुटुंबी लोको उलटा घेवडा दुःखमां पड़ी विलाप करी रया छे. ॥३४।।
भवनाटककौटिल्यादथोत्कण्टकविग्रहः । अव्याकुलचलच्चेताः क्षितिनेता व्यचिन्तयत् ॥३५॥ ___ अन्वयः-अथ भव नाटक कौटिल्यात् उत्कंटक विग्रहः, अव्याकुल चलत् चेताः क्षिति नेता व्यचिंतयत् ॥ ३५ ॥ अर्थः-हवे आवा संसारनाटकनी मायाथी रोमांचित शरीरवाळो, तथा व्याकुलतारहित चपक हृदयवाळो ते राना विचारवा लाग्यो क, ॥ ३५ ॥ विदामप्यपरिच्छेद्या संसारस्य विचित्रता । जनोऽयं चिन्तयत्युच्चैरन्यदन्यच्च जायते ॥३६ ॥
अन्वयः-संसारस्व विचिवता विदां अपि अपरिच्छेया, अयं जनः उच्चैः अन्यत् चिंतयति, च अन्यत् जायते. ॥ ३६॥
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Acharya
Kaisagens
and
विक्रम
चरित्र
॥ ४१ ॥
RATNAXXXPRESECRE
अर्थः-संसारनुं विचित्रपणुं विद्वानो पण न जाणी के तेवू ले, केमके आ कोको होसपी चिंतवे छेबीजें, अने थाय छे तेथी चीजें, द| सान्वए सुखाय च्छायामायाति ग्रीष्मतापातुरस्तरोः । नरस्तत्कोटरस्थेन दश्यते हा महाहिना ॥ ३७॥
भाषांतर ___ अन्वयः-ग्रीष्म ताप आतुरः नरः मुखाय तरोः छायां आयाति, हा! तत् कोटरस्थेन महाहिना दश्यते. ॥ ३७ ।। अर्थः-उनाळाना तापथी व्याकुल थयेलो माणस शांति मेळवबामाटे वृक्षनी छायामां आवे छे, परंतु अरेरे! एवामां तेना
॥४१॥ | बिलमा रहेलो महान सप तेने दंशे छे.॥ ३७॥ वहत्यहो नरः शस्त्रं रिपोर्दारणकारणं । कदाचिदेष तेनैव दैवात्तेनैव हन्यते ॥ ३८॥
अन्वयः-अहो! नर: रिपोः दारण कारणं शखं वहति, कदाचित एषः देवात तेन एव तेन एव हन्यते. ॥ ३८॥ ___ अर्थ-अहो! मनुष्य शत्रुने विदारवाना कारणरूप शस्त्रने धारण करे छे, परंतु कोइक दिवसे ते पोते दैवयोगे तेज शत्रबडे तेज शत्रुथी हणाय छे. ॥ ३८ ॥ मनोरथानुरूपं यत्फलमाप्नोति कश्चन । महाविडम्बनाजालक्षेपविश्वासकं हि तत् ॥ ३९ ॥
अन्वयः-कश्चन मनोरथ अनुरूपं फलं यत् आमोति, तत् हि महा विडंबना जाल क्षेप विचासकं. ॥ ३९ ॥ अर्थः–कोइक मनुष्य (पोताना) मनोरथमुजब जे अनुकूल फल पामे छे, ते खरेखर तेने महोटी मापदाओना समूहमा नाजा खवामाटे विश्वास उपजाववारूप होय छे. ॥ ३९ ॥
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Gamandi
सान्बय
विक्रम चरित्रं
भाषांतर
॥४२॥
॥४२॥
६ एकान्तदुःखदे लोको विरज्य मयि मुक्तये । मा धावत्विति संसारो दत्ते सुखकणानपि ॥ ४० ॥
___ अन्वयः-एकांत दुःखदे मयि विरज्य लोकः मुक्तये मा धावतु ? इति संसारः सुख कणान् अपि दत्ते. ॥ ४० ॥
अर्थः-फक्त एकलुं दुःखज आपनारा एवा मारामते विरक्त थइने लोको मोक्षमाटे न दोडे तो ठीक, एम विचारीने आ संसार तेओने मुखनो लेश पण आपे छे.॥४०॥
या संसारसुखावाप्तिर्दुरन्तैव नरस्य सा । मत्स्यस्य गलिकायन्त्रनियुक्तकवलोपमा ॥४१॥ ___ अन्वयः-नरस्थ या संसार सुख अवाप्तिः, सा मत्स्यस्य गलिका यंत्र नियुक्त कवल उपमा दुरंता एव. ॥४१॥
अर्थः-मनुष्यने संसारमा जे मुखनी प्राप्ति थाय छे, ते मत्स्योने पकडवाना यंत्रमा मूकेला कोळीयानीपेठे (अथवा मत्स्यगकागन्यायनीपेठे) परिणामे दुःखदाइज छे. ॥४१॥
अयं जनो मनो लोलं कथं नु कथयत्यदः । भवभावेषु यद्वज्रलेपेनेव नियन्त्रितम् ॥ ४२ ॥ ___ अन्वयः-बन लेपेन इव भव भावेषु यत् नियंत्रितं, अदः मनः अयं जनः लोलं नु कथं कथयति ? ।। ४२ ।।
अर्थ:-जाणे वज्रलेपथी चोडयूं होय नही! तेम सांसारिक भावोमां जे चीटकी वेठेलुं छे, एवां पण मनने बोको चपल ते केम कहेता हशे? ॥४२॥ का अलोकव्योम्नि ये लोकव्योम क्षेप्तुं क्षमा जिनाः । तदाश्रयबलाच्चित्तं कृषामि भवभावतः ॥ ४३ ॥
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सान्वय
विक्रम चरित्रं ॥४३॥
भाषांतर
॥४३॥
KKKAKKAR.BECRECAERA
अन्वयः-ये जिनाः लोक व्योम अलोक व्योन्नि क्षेप्नुं क्षमाः, तत् आश्रय वलात् चित्तं भव भावतः कृषामि. ॥४३॥
अर्थ:-जे तीर्थकरो लोकाकाशने अलोकाकाशमा फेंकी देवाने समर्थ छे, तेमनी सहायना बलवी (हुं मारां) मनने आ सांसा31 रिक भावमाथी (जालमांथी) खेंची कहाई. ॥ ४३ ॥
इति ध्यायन्ययौ धाम त्वरितं नृपविक्रमः । चन्द्रसेनं सुतं राज्ये न्यस्य तस्थौ व्रतोत्सुकः ॥४४॥
अन्वयः-इति ध्यायन नृप विक्रमः त्वरितं धाम ययौ, चंद्रसेनं मृतं राज्ये न्यस्य व्रत उत्सुकः तस्थौ. ।। ४४ ॥ * अर्थ:-एम विचारतो एवो ते विक्रमराजा तुरत पोताने स्थानके गयो, तथा (पोताना) चंद्रसेन नामना पुत्रने राज्यपर स्थापन करीने (पोते) चारित्र लेबाने उत्कंठित यइने रखो. ॥ ४४ ॥ ज्ञानविज्ञाततद्भावः खभावकरुणाकरः । सद्गुरुः केवली काले तत्र तत्पुरमासदत् ॥१५॥
अन्वयः-ज्ञान विज्ञात तद्भावः, स्वभाव करुणाकरः केवली सद्गुरुः तत्र काले तत् पुरं आसदन. ॥४५॥ अर्थ:-ज्ञानथी जाणेल छे तेना हृदयनो भाव जेमणे, तथा स्वभावथीज दया लावनारा, केवलज्ञानी सद्गुरु ते समये ते नगरपासे (उद्यानमां) पधार्या. । ४५ ॥ तद्वार्तावादिनं दानैरानन्धोद्यानपालकम् । विक्रमः प्रमदस्मेरो जगामाराममुत्सुकः ॥ ४६॥ भन्वयः-तद् वार्ता वादिनं उद्यान पालकं दानैः आनंद्य प्रमद स्मेरः विक्रमः उत्सुकः आरामं जगाम. ॥ ४६॥
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विक्रम चरित्रं
सान्वय भाषांतर
॥४४॥
॥ ४४॥
ASSION
अर्थः-ते समाचार कहेनारा उद्यानपालने दानथी खुशी करीने हर्षथी प्रफुल्लित थयेलो ते विक्रमराजा उत्कंठित थइने ते 5 उद्यानमां गयो. ॥४६॥ सोऽथ प्रदक्षिणीचके गुरुं कमेंन्धनानलम् । चिरानुरागसंबद्धां श्रद्धां परिणयन्निव ॥४७॥
अन्वयः-अथ सः चिर अनुराग संबद्धां श्रद्धां परिणयन् इव, कर्म इंधन अनलं गुरुं प्रदक्षिणीचक्रे. ॥ ४७॥ अर्थः-पछी ते घणा काळना मेमथी संबंधमा आणेली श्रद्धाने जाणे परणतो होय नही! तेम तेणे कर्मोरूपी काष्टोने बाळवामां अग्मिसरखा ते गुरुमहाराजनी प्रदक्षिणा करी. ॥४७॥ नत्वा गुरुं धराजानिर्यथायुक्तमथासनम् । भेजे रेजे च तद्वाणीवृष्टिसंपातचातकः ॥४८॥
अन्वयः-अथ धरा जानिः गुरुं नत्वा यथायुक्त आसनं भेजे, च तत् वाणी दृष्टि संपात चातक: रेजे. ॥ ४८ ।। अर्थः-पछी ते राजा गुरुमहाराजने नमीने योग्य आसनपर चेठो, तथा तेमनी वाणीरूपी (अमृतनी) वृष्टिने चातकपक्षीनीपेठे (पीतोथको) शोभवा लाग्यो. ।। ४८॥ अथ व्रतार्थमभ्यर्थ्य यतीशं जगतीपतिः। प्रभावनार्थ तीर्थस्य जगाम नगरं पुनः॥४९॥
अन्वयः-अथ जगती पतिः व्रतार्थ यति ईशं अभ्यर्थ तीर्थस्य प्रभावनार्थ पुनः नगरं जगाम. ॥ ४९ ॥ अर्थः-पछी ते राजा दीक्षा ठेवामाटे ते मृफिरीने प्रार्थना नराजने शासननी उन्नति करवामाटे पाछो नगरमा गयो. ॥ ४९ ॥
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विक्रम चरित्रं
॥ ४५ ॥
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धनंजयाख्ययक्षेशकृतसान्निध्यबन्धुरः । सुरासुरचमत्कारकरादारमहोत्सवः ॥ ५० ॥
सान्वय प्रभावनाभिर्यक्षेन्द्रकृताभिः सुकृताब्धिभिः । वैधर्मिकैरपि स्तुत्यं जनयजिनशासनम् ॥ ५१ ॥
भाषांतर पुरादगुरुमगाभूपः सिद्विलोभनरूपभाक् । भेजे भवशिरःशूलं मूलं ज्ञानतरोव्रतम् ॥ ५२ ।। ___ अन्वयः-(अथ) धनंजय आख्य यक्ष ईश कृत सानिध्य बंधुरः, सुर असुर चमत्कार कर उदार महोत्सवः, ।। ५० ॥ यक्ष इंद्र कुताभिः, सुकृत अधिभिः प्रभावनाभिः, वैधर्मि के: अपि स्तुत्यं जिन शासनं जनयन, ॥ ५१ ॥ सिद्धि लोभन रूप भाक् भूपः पुरात् गुरुं अगात्, भव शिरः शूलं, ज्ञान तरोः मूलं व्रत भेजे. ॥ ५२ ।। प्रिभिर्विशेषकं ।।
अर्थ--पछी धनंजय नामना यझेंद्रे करेली सहायथी मनोहर थयेलो, तथा देवो अने दानवोने पण आश्चर्य उपजावनारा उत्तम महोत्सवबाळो, ॥ ५० ॥ अने यझेंद्रे करेली, पुण्यना महासागरसरखी प्रभावनाथी अन्यदर्शनीओने पण प्रशंसवालायक जिनशासनने करतो थको, ।। ५१ ।। मुक्तिने ललचावनारां रूपवाळो ते विक्रमराजा नगरमाथी गुरुमहाराज पासे गयो, (अने) संसारना मस्तकमां शूल उपजावनालं, तथा ज्ञानरूपी वृक्षना मूलसर चारित्र तेणे अंगीकार कयु.॥५२॥ त्रिभिर्विशेषकं ।।
नृचन्द्रे चन्द्रसेनेऽथ नत्वा नगरगामिनि । विजहार महीं राजमहर्षिर्गुरुभिः सह ॥ ५३॥ __ अन्वयः-अथ नृ चंद्रे चंद्रसेने नत्वा नगरगामिनि राज महर्षिः गुरुभिः सह महीं विजहार. ।। ५३ ॥ ___ अर्थ:-पछी मनुष्योमा चंद्रसरखो ते चंद्रसेन राजा (तेमने ) बांदीने नगरमा गयाबाद ते विक्रमराजमहर्षि गुरुमहाराजनी साथे | 8/
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विक्रम चरित्रं
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सान्वय भाषांतर
॥४६॥
CARRRRRREXAX17
| पृथ्वीपर विहार करवा लाग्या. ॥ ५३ ।।
श्रद्धाशुद्धतपौः शुद्धसिद्धान्तपठनक्रमः । बोधयित्वा धरां ज्ञानी स परं पदमासदत् ॥ ५४ ॥
अन्ययः-श्रद्धा शुद्ध तपाः, शुद्ध सिद्धांत पउन क्रमः, सः ज्ञानी धरां बोधयित्वा परं पदं आसदत. ॥ ५४ ॥ अर्थः-श्रद्धापूर्वक शुद्ध तप करनारा, तथा निर्मलपणे आगमोना अभ्यासक्रमवाळा ते विक्रमराजर्षि केवलज्ञान पामी, पृथ्वीपर लोकोने प्रतिबोध पमाडी मोक्षे गया. ।। ५४ ॥ इति तत्त्वेन सम्यक्त्वं सेव्यं विक्रमवत्ततः । जनो येन भवत्याशु लोकद्वयभयव्ययः ॥ ५५ ॥
अन्वयः-ततः इति तत्वेन विक्रमवत सम्यक्त्वं सेव्यं, येन जनः आशु लोक द्वय भय व्ययः भवति. ॥ ५५॥ अर्थः–माटे एरीते तत्वज्ञानपूर्वक विक्रमराजर्षिनीपेठे सम्यक्त्व सेव, के जेथी तुरत बन्ने लोकना भयथा मुक्त थवाय छे.
॥ इति सम्यक्त्वमाहात्म्योपदर्शने विक्रमराजर्षिचरित्रं समाप्तम् ॥ ॥ इति श्री विक्रमभूपचरित्रं समाप्तं ॥ आ चरित्र श्रीवासुपूज्यचरित्र नामनामहाकाव्यमांथी खपरना श्रेयने माटे तेना अन्वय तथा गुजरातो भाषांतर करो जामनगर निवासी पंडितश्रावक हीरालाल हंसराजे पोताना श्रीजैनभास्करोदय प्रीन्टींग प्रेसमा छापी प्रसिद्ध कर्यु छे ॥ श्रीरस्तु ॥
॥ समाप्तोऽयं ग्रंथो गुरुश्रीमच्चारित्रविजयसुप्रसादात् ॥
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