Book Title: Swetambar Sampraday ke gaccho ka Samatya Paricha
Author(s): Shivprasad
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामान्य परिचय डॉ. शिवप्रसाद शोध अध्येता, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी....) विश्व के सभी धर्म एवं संप्रदाय अपने उद्भव के पश्चात् परंपरा दिगंबर सम्प्रदाय के रूप में जानी गई। कालान्तर में अनेक शाखाओं-उपशाखाओं आदि में विभाजित . उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में लगभग दसरी शती में वस्त्र होते रहे हैं। जैनधर्म भी इसका अपवाद नहीं है। यह विभाजन के प्रश्न को लेकर संघ-भेद हुआ और एक नवीन परंपरा का अनेक कारणों से होता रहा है और इनमें सबसे प्रधान कारण रहा उद्भव हुआ जो आगे चलकर बोटिक या यापनीय नाम से है--देश और काल की परिवर्तनशील परिस्थितियाँ एवं परिवेश। प्रसिद्ध हुई। पीछे से जो संघभेद हुए उनके मूल में सैद्धान्तिक इन्हीं के फलस्वरूप परंपरागत प्राचीन विधि-विधानों के स्थान विधि-विधान संबंधी भेद अवश्य विद्यमान रहे, किन्तु यहाँ इन पर नवीन विधि-विधानों और मान्यताओं को प्रश्रय देने से मूल सबकी चर्चा न करते हुए मात्र श्वेताम्बर सम्प्रदाय में समयपरंपरा में विभेद उत्पन्न हो जाता है। कभी-कभी यह मतभेद समय पर उत्पन्न एवं विकसित हुए विभिन्न गच्छों की चर्चा प्रस्तुत वैयक्तिक अहं की पुष्टि और नेतृत्व के प्रश्न को लेकर भी होता की गई है। है, फलत: एक नई शाखा अस्तित्व में आ जाती है। पुनः इन्हीं कारणों से उसमें भी भेद होता है और नई-नई उपशाखाओं का . उत्तर और पश्चिम भारत का श्वेताम्बर संघ प्रारंभ में तो उदय होता रहता है। वारणगण, मानवगण, उत्तरवल्लिसहगण आदि अनेक गणों और उनकी कुल शाखाओं में विभक्त था, किन्तु कालान्तर में कोटिक निर्ग्रन्थ-श्रमण-संघ में भगवान महावीर के समय में ही गण को छोड़कर शेष सभी कुल और शाखाएँ समाप्त हो गईं। गोशालक' एवं जामालिने संघभेद के प्रयास किए, परंतु आज के श्वेताम्बर मुनिजन स्वयं को इसी कोटिकगण से संबद्ध गोशालक आजीवक संघ में सम्मिलित हो गया और जामालि मानते हैं। इस गण से भी अनेक शाखाएँ अस्तित्व में आईं। उनमें की शिष्य-परंपरा आगे नहीं चल सकी। उच्चनागरी, विद्याधरी, वज्री, माध्यमिका, नागिल, पद्मा, जयंति वीरनिर्वाण के बाद की शताब्दियों में निर्ग्रन्थ-श्रमण-संघ आदि शाखाएँ प्रमुख रूप से प्रचलित रहीं। इन्हीं से आगे चलकर विभिन्न गण, शाखा, कुल और अन्वयों में विभक्त होता गया। नागेन्द्र, निवृत्ति, चन्द्र और विद्याधर ये चार कुल अस्तित्व में आए। कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों में वीरनिर्वाण संवत् पूर्व मध्ययुगीन श्वेताम्बर गच्छों का इन्हीं से प्रादुर्भाव हुआ। ९८० अर्थात् विक्रम संवत् की ५वीं-६ठी शताब्दी तक उत्तर ईसवी सन की छठी-सातवीं शताब्दी से ही श्वेताम्बर श्रमण भारत की जैन-परंपरा में कौन-कौन से जैन आचार्यों से कौन परंपरा को पश्चिमी भारत (गुजरात और राजस्थान) में राजाश्रय कौन से गण, कुल और शाखाओं का जन्म हुआ, इसका सुविस्तृत प्राप्त होने से इसका विशेष प्रचार-प्रसार हुआ, फलस्वरूप वहाँ विवरण संकलित है। ये सभी गण कुल और शाखाएँ गुरु-परंपरा अनेक नए-नए जिनालयों का निर्माण होने लगा। जैन-मुनि भी विशेष से ही संबद्ध रही है। इनके धार्मिक विधि-विधानों में । अब वनों को छोड़कर जिनालयों के साथ संलग्न भवनों किसी प्रकार का मतभेद था या नहीं, यदि मतभेद था तो किस (चैत्यालयों) में निवास करने लगे। स्थिर वास एवं जिनालयों प्रकार का था? इन बातों की जानकारी हेतु हमारे पास कोई का स्वामित्व प्राप्त होने के फलस्वरूप इन श्रमणों में अन्य दोषों साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। के साथ-साथ परस्पर विद्वेष एवं अहंभाव का भी अंकुरण हुआ। निर्ग्रन्थ-श्रमण-संघ के जो श्रमण दक्षिण में चले गए थे, इनमें अपने-अपने अनुयायियों की संख्या में वृद्धि करने की वे भी कालान्तर में गणों एवं अन्वयों में विभाजित हुए। यह होड़ सी लगी हुई थी। इन्हीं परिस्थितियों में श्वेताम्बर श्रमणसंघ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास. विभिन्न नगरों, जातियों, घटनाविशेष तथा आचार्यविशेष के आधार पर विभाजित होने लगा। विभाजन की यह प्रक्रिया दसवींग्यारहवीं शताब्दी में तेजी से प्रारंभ हुई, जिसका क्रम आगे भी जारी रहा। वेताम्बर श्रमणों का एक ऐसा भी वर्ग था जो श्रमणावस्था में सुविधावाद के पनपने से उत्पन्न शिथिलाचार का कट्टर विरोधी था। आठवीं शताब्दी में हुए आचार्य हरिभद्र ने अपने समय के चैत्यवासी श्रमणों के शिथिलाचार का अपने ग्रंथ संबोधप्रकरण' में विस्तृत वर्णन किया है और इनके विरुद्ध अपनी आवाज उठाई है। चैत्यवासियों पर इस विरोध का प्रतिकूल असर पड़ा और उन्होंने सुविहितमार्गीय श्रमणों का तरह-तरह से विरोध करना प्रारंभ किया । गुर्जर प्रदेश में तो उन्होंने चावड़ावंशीय शासक वनराज चावड़ा से राजाज्ञा जारी करा सुविहितमार्गियों का प्रवेश ही निषिद्ध करा दिया। फिर भी सुविहितमार्गीय श्रमण शिथिलाचारी श्रमणों के आगे नहीं झुके और उन्होंने चैत्यवास का विरोध जारी रखा। अंततः चौलुक्य नरेश दुर्लभराज (वि.सं. १०६६-१०८२) की राजसभा में चंद्रकुलीन वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर गुर्जर भूमि में सुविहितमार्गियों के विहार और प्रवास को निष्कंटक बना दिया। कालदोष से सुविहितमार्गीय श्रमण भी परस्पर मतभेद के शिकार होकर समय-समय पर बिखरते रहे, फलस्वरूप नए नए गच्छ (समुदाय) अस्तित्व में आते रहे। जैसे चंद्रकुल की एक शाखा वडगच्छ से पूर्णिमागच्छ सार्धपूर्णिमागच्छ, सत्यपुरीयशाखा आदि अनेक शाखाएँ - उपशाखाएँ अस्तित्व में आईं। इसी प्रकार खतरगच्छ से भी कई उपशाखाओं का उदय हुआ । जैसा कि लेख के प्रारंभ में कहा जा चुका है एक स्थान पर स्थायी रूप से रहने की प्रवृत्ति से मुनियों एवं श्रावकों के मध्य स्थायी संपर्क बना, फलस्वरूप उनकी प्रेरणा से नए-नए जिनालयों एवं वसतियों का द्रुतगति से नामकरण होने लगा। स्थानीयकरण की इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप स्थानों के नाम पर ही कुछ गच्छों का भी नामकरण होने लगा, यथा- कोरटा नामक स्थान से कोरंटगच्छ, नाणा नामक स्थान से नाणकीयगच्छ, ब्रह्माण (आधुनिक वरमाण) नामक स्थान से ब्रह्माणगच्छ, संडेर ( वर्तमान संडेराव ) नामक स्थान से संडेरगच्छ, हरसोर नामक स्थान से हर्षपुरीयगच्छ, पल्ली (वर्तमान पाली) नामक स्थान से पल्लीवालगच्छ आदि अस्तित्व में आए। यद्यपि स्थानाविशेष के आधार पर ही इन गच्छों का नामकरण हुआ था, किन्तु सम्पूर्ण पश्चिमी भारत के प्रमुख जैन तीर्थों एवं नगरों में इन गच्छों के अनुयायी श्रमण एवं श्रावक विद्यमान थे । यह बात सम्पूर्ण पश्चिमी भारत के विभिन्न स्थानों में इनके आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होती है। कुछ गच्छ तो घटनाविशेष के कारण ही अस्तित्व में आए। जैसे चंद्रकुल के आचार्य धनेश्वरसूरि (वादमहार्णव के रचनाकार अभयदेवसूरि के शिष्य) साधुजीवन के पूर्व कर्दम नामक राजा थे, इसी आधार पर उनके शिष्य राजगच्छीय कहलाए। इसी प्रकार आचार्य उद्योतनसूरि ने आबू के समीप स्थित टेली नामक ग्राम में वटवृक्ष के नीचे सर्वदेवसूरि आदि ८ मुनियों को एक साथ आचार्य पद प्रदान किया । वटवृक्ष के आधारपर इन मुनिजनों का शिष्य परिवार वटगच्छीय कहलाया । वटवृक्ष के समान ही इस गच्छ की अनेक शाखाएँ - उपशाखाएँ अस्तित्व में आयीं, अतः इसका एक नाम बृहद्गच्छ भी पड़ गया। इसी प्रकार खरतरगच्छ आगमिकगच्छ, पूर्णिमागच्छ, सार्धपूर्णिमागच्छ, अंचलगच्छ, पिप्पलगच्छ आदि भी घटनाविशेष से ही अस्तित्व में आए। चाहमानरेश अर्णोराज (ई. सन् १९३९ - ११५३) की राजसभा में दिगम्बर आचार्य कुलचन्द्र को शास्त्रार्थ में पराजित करने वाले आचार्य धर्मघोषसूरि राजगच्छीय आचार्य शीलभद्रसूरि के शिष्य थे। चूँकि ये अपने जीवनकाल में यथेष्ट सिद्धि प्राप्त चुके थे, अतः इनकी मृत्यु के पश्चात् इनकी शिष्य संतति धर्मघोषगच्छीय कहलायी । इस प्रकार स्पष्ट है कि विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न कारणों से श्वेताम्बर श्रमणसंघ का विभाजन होता रहा और नएनए गच्छ अस्तित्व में आते रहे। इन गच्छों का इतिहास जैनधर्म के इतिहास का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अध्याय है, परन्तु इस ओर अभी तक विद्वानों का ध्यान बहुत कम ही है। आज से लगभग ४० वर्ष पूर्व महान् साहित्यसेवी स्व. श्री अगरचंद जी नाहटा ने यतीन्द्रसूरि-अभिनन्दनग्रन्थ में 'जैन - श्रमणों के इतिहास पर संक्षिप्त प्रकाश' नामक लेख प्रकाशित किया था और लेख के प्रारंभ में ही विद्वानों से यह अपेक्षा की थी कि वे इस कार्य के këmbimbûybybisa?? ¿révèmót Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासलिए आगे आएँ। स्व. नाहटा जी के उक्त कथन को आदेश मानते हुए प्रो. एम.ए. ढाँकी और प्रो. सागरमल जैन की प्रेरणा और सहयोग से मैंने श्वेताम्बर श्रमणों के गच्छों के इतिहास के लेखन का कार्य प्रारंभ किया है। यद्यपि मैंने साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर विभिन्न गच्छों का इतिहास लिखने का प्रयास किया है, किन्तु प्रस्तुत लेख में गच्छों का मात्र परिचयात्मक विवरण आवश्यक होने से नाहटा जी के उक्त लेख का अनुसरण करते हुए गच्छों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है। अंचलगच्छ अपरनाम विधिपक्ष वि.सं. ११५९ या ११६९ में उपाध्याय विजयचन्द्र (बाद में आर्यरक्षितसूरि) द्वारा विधिपक्ष का पालन करने के कारण उनकी शिष्य संतति विधिपक्षीय कहलायी । " प्रचलित मान्यता के अनुसार इस गच्छ के अनुयायी श्रावकों द्वारा मुँहपत्ती के स्थान पर वस्त्र के छोर (अंचल) से वंदन करने के कारण अंचलगच्छ नाम प्रचलित हुआ। इस गच्छ में अनेक विद्वान् आचार्य और मुनिजन हुए हैं, परन्तु उनमें से कुछ आचार्यों की कृतियाँ आज उपलब्ध होती हैं। इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं । १२ इनमें प्राचीनतम लेख वि.सं. १२०६ का है। अपने उदय से लेकर आज तक इस गच्छ की अविच्छिन्न परंपरा विद्यमान है। आगमिकगच्छ पूर्णिमापक्षीय शीलगुणसूरि और उनके शिष्य देवभद्रसूरि द्वारा जीवदयाणं तक का शक्रस्तव, ६७ अक्षरों का परमेष्ठीमन्त्र और तीनस्तुति से देववन्दन आदि बातों में आगमों का समर्थन करने के कारण वि.सं. १२१४ या वि.सं. १२५० में आगमिकगच्छ या त्रिस्तुतिकमत की उत्पत्ति हुई। इस गच्छ में यशोभद्रसूरि, सर्वाणंदसूरि, विजयसिंहसूरि, अमरसिंहसूरि, हेमरत्नसूरि, अमररत्नसूरि, सोमप्रभसूरि, आनन्दप्रभसूरि आदि कई प्रभावक आचार्य हुए जिन्होंने साहित्यसेवा और धार्मिक क्रियाकलापों से श्वेताम्बर श्रमणसंघ को जीवन्त बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । आगमि गच्छ से संबद्ध विपुल परिणाम में आज साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। साहित्यिक साक्ष्यों के अंतर्गत इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा लिखे गए ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ तथा कुछ पट्टावलियाँ आदि हैं। इस गच्छ से संबद्ध लगभग २०० प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं, जो वि.सं. १४२० से लेकर ambimbi वि.सं. १६८३ तक के हैं। उपलब्ध साक्ष्यों से इस गच्छ की दो शाखाओं-धंधूकीया और विलाबंडीया का पता चलता है। उपकेशगच्छ१४ पूर्वमध्यकालीन और मध्यकालीन श्वेताम्बर परंपरा में उपकेशगच्छ का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। जहाँ अन्य सभी गच्छ भगवान महावीर से अपनी परंपरा जोड़ते हैं, वहीं उपकेशगच्छ अपना संबंध भगवान पार्श्वनाथ से जोड़ता है। अनुश्रुति के अनुसार इस गच्छ का उत्पत्तिस्थल उपकेशपुर (वर्तमान ओसिया, राजस्थान) माना जाता है। परंपरानुसार इस गच्छ के आदिम आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वीर संवत् ७० में ओसवालगच्छ की स्थापना की, परन्तु किसी भी प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्य से इस बात की पुष्टि नहीं होती । ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ओसवालों की स्थापना और इस गच्छ की उत्पत्ति का समय ई. सन् की आठवीं शती के पूर्व नहीं माना जा सकता। उपकेशगच्छ में कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि इन तीन पट्टधर आचार्यों के नामों की प्रायः पुनरावृत्ति होती रही है, जिससे प्रतीत होता है कि इस गच्छ के अनुयायी श्रमण चैत्यवासी रहे होंगे। इस गच्छ में कई प्रभावक और विद्वान् आचार्य हो चुके हैं, जिन्होंने साहित्योपासना के साथ-साथ नवीन जिनालयों के निर्माण, प्राचीन जिनालयों के जीर्णोद्धार तथा जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना द्वारा पश्चिम भारत में श्वेताम्बर - श्रमण-परंपरा को जीवंत बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । अन्यान्य गच्छों की भाँति उपकेशगच्छ से भी कई अवान्तर शाखाओं का जन्म हुआ। जैसे वि. सं. १२६६ / ई. सन् १२१० में द्विवंदनीक शाखा, वि.सं. १३०८/ई. सन् १२५२ में खरतपा शाखा तथा वि.सं. १४९८/ई. सन् १४४२ में खादिरीशाखा अस्तित्व में आई। इसके अतिरिक्त इस गच्छ की दो अन्य शाखाओंककुदाचार्यसंतानीय और सिद्धाचार्यसंतानीय का भी पता चला हैं, किन्तु इनके उत्पत्तिकाल के संबंध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। उपकेशगच्छ के इतिहास से संबद्ध पर्याप्त संख्या में इस गच्छ के मुनिजनों की कृतियों की प्रशस्ति, मुनिजनों के अध्ययनार्थ या उनकी प्रेरणा से प्रतिलिपि कराई गई प्राचीन ग्रन्थों की दाताप्रशस्तियाँ तथा दो प्रबंध ( उपकेशगच्छप्रबंध और नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबंध - रचनाकाल वि.सं. १३९३ / ई. सन् Movie mensromaan 20 GEME Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास१३३६) और उपकेशगच्छ की कुछ पट्टावलियाँ उपलब्ध हैं। श्रावक किसी अन्य बड़े गच्छ में सम्मिलित हो गए होंगे। इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित बड़ी संख्या में कृष्णर्षिगच्छ प्राक्मध्ययुगीन और मध्ययुगीन श्वेताम्बर जिनप्रतिमाएँ प्राप्त होती है, जिनमें से अधिकांश लेखयुक्त हैं। आम्नाय के गच्छों में कृष्णर्षिगच्छ भी एक है। आचार्य वटेश्वर इसके अतिरिक्त इस गच्छ के मुनिजनों की प्रेरणा से निर्मित क्षमाश्रमण के प्रशिष्य और यक्षमहत्तर के शिष्य कृष्णमुनि की सर्वतोभद्रयंत्र, पंचकल्याणकपट्ट, तीर्थंकरों के गणधरों की शिष्य-संतति अपने गुरु के नाम पर कृष्णर्षिगच्छीय कहलायी। चरणपादुका आदि पर भी लेख उत्कीर्ण हैं। ये सब लेख वि.सं. धर्मोपदेशमाला-विवरण (रचनाकाल वि.सं. ९१५/ई. सन् ८५९) १०११ से वि.सं. १९१८ तक के हैं। उपकेशगच्छ के इतिहास के के रचयिता जयसिंहसरि, प्रभावक-शिरोमणि प्रसन्नचंद्रसूरि, लेखन में उक्त साक्ष्यों का विशिष्ट महत्त्व है। निस्पृह-शिरोमणि महेन्द्रसूरि, कुमारपालचरित (वि.सं. १४२२/ उपकेशगच्छीय साक्ष्यों के अध्ययन से यह निष्कर्ष ई. सन् १३६८) के रचनाकार जयसिंहसूरि, हम्मीर महाकाव्य निकलता है कि वि.सं. की १०वीं शताब्दी से लेकर वि.सं. की (रचनाकाल नि.सं. १४४४/ई. सन् १३८६) और १६ वीं शताब्दी तक इस गच्छ के मुनिजनों का समाज पर विशेष रम्भामञ्चरीनाटिका के कर्ता नयचन्द्रसूरि इसी गच्छ के थे। इस प्रभाव रहा, किन्तु इसके पश्चात् इसमें न्यूनता आने लगी, फिर गच्छ में जयसिंहसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि, नयचन्द्रसूरि इन तीन पट्टधर भी २०वीं शती के प्रारंभ तक निर्विवादरूप से इस गच्छ का आचार्यों के नामों की पुनरावृत्ति मिलती है, जिससे अनुमान स्वतंत्र अस्तित्व बना रहा।१५ होता है कि यह चैत्यवासी गच्छ था। इस गच्छ से संबद्ध पर्याप्त संख्या में अभिलेखीय साक्ष्य भी प्राप्त हए हैं जो वि.सं. १२८७ काशहद-गच्छ अर्बुदगिरी की तलहटी में स्थित काशहृद से वि.सं. १६१६ तक के हैं। (वर्तमान कासीन्द्रा या कायन्द्रा) नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। जालिहरगच्छ के देवप्रभसूरि द्वारा रचित अभिलेखीय साक्ष्यों से इस गच्छ की कृष्णर्षितपाशाखा पद्मप्रभचरित (रचनाकाल वि.सं. १२५४/ई सन् ११९८) की . र का भी उल्लेख प्राप्त होता है। इस शाखा के वि.सं. १४५० से प्रशस्ति से जात होता है कि काशहद और जालिहर ये दोनों. १४७३ तक के लेखों में पुण्यप्रभसूरि, वि.सं. १४८३-१४८७ के विद्याधरगच्छ की शाखाएँ हैं।१६ यह गच्छ कब अस्तित्व में लेखों में शिष्य जयसिंहसूरि तथा वि.सं. १५०३-१५०८ के लेखों आया, इस गच्छ के आदिम आचार्य कौन थे, इस बारे में कोई में जयसिंहसूरि के प्रथम पट्टधर जयशेखरसूरि तथा वि.सं. १५१० सूचना प्राप्त नहीं होती। प्रश्नशतक और ज्योतिषचतुर्विंशतिका के एक लेख में उनके द्वितीय पट्टधर कमलचन्द्रसूरि का के रचनाकार नरचन्द्र उपाध्याय इसी गच्छ के थे। प्रश्रशतक का प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु इस रचनाकाल वि.सं. १३२४/ई. सन १२६८ माना जाता है। शाखा के प्रवर्तक कौन थे. यह शाखा कब अस्तित्व में आई, विक्रमचरित (रचनाकाल वि.सं. १४७१/ई सन १४१५ के इस संबंध में कोई सूचना प्राप्त नहीं होती। आसपास) के रचनाकार उपाध्याय देवमूर्ति इसी गच्छ के थे।७ वि.सं. की १७वीं शती के पश्चात् कृष्णर्षिगच्छ से संबद्ध इस गच्छ से संबद्ध कुछ प्रतिमालेख भी प्राप्त होते हैं जो वि.सं. साक्ष्यों का अभाव है। इससे प्रतीत होता है कि इस समय तक १२२२ से वि.सं. १४१६ तक के हैं। इस गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो चुका था। से उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर विक्रम संवत् की १३ वीं . कोरंटगच्छ९ आबू के निकट कोरटा (प्राचीन कोरंट) शती से १५ वीं शती के अन्त तक इस गच्छ का अस्तित्व सिद्ध नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। उपकेशगच्छ होता है। इस गच्छ से संबद्ध साक्ष्यों की विरलता को देखते हुए की एक शाखा के रूप में इस गच्छ की मान्यता है। इस गच्छ के यह माना जा सकता है कि अन्य गच्छों की अपेक्षा इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को कक्कसूरि, सर्वदेवसूरि और ननसूरि ये तीन अनुयायी श्रावकों और श्रमणों की संख्या अल्प थी। १६वीं नाम पुनः प्राप्त होते रहे। इस गच्छ का सर्वप्रथम उल्लेख वि.सं. शती से इस गच्छ से संबद्ध साक्ष्यों के नितांत अभाव से यह १२०१ के एक प्रतिमालेख में और अंतिम उल्लेख वि.सं. कहा जा सकता है कि इस गच्छ के अनुयायी मुनिजन और १६१९ में प्रतिलिपि की गई राजप्रश्रीय सूत्र की दाताप्रशस्ति में pariwariwaridwarni-dridadidaidaddard6 २१ 6dminirdinidroidiarinidairdrianarraiwand Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासप्राप्त होता है। इस गच्छ से संबद्ध मात्र कुछ दाताप्रशस्ति तथा ११९६ से वि.सं. १६६४ तक के हैं। निष्कर्ष के रूप में कहा जा बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं। ये लेख वि.सं. १६१२ सकता है कि वि.सं. की १२वीं शती में यह गच्छ अस्तित्व में तक के हैं। लगभग ४०० वर्षों के अपने अस्तित्वकाल में इस आया और वि.सं. की १७वीं शती के अंतिम चरण तक विद्यमान गच्छ के अनुयायी श्रमण शास्त्रों के पठन-पाठन की अपेक्षा रहा। इसके पश्चात् इस गच्छ का कोई उल्लेख न मिलने से यह जिन-प्रतिमा की प्रतिष्ठा में अधिक सक्रिय रहे। प्रतीत होता है कि इस गच्छ के अनुयायी अन्य किन्हीं गच्छों में खंडिलगच्छ२० इस गच्छ के कई नाम मिलते हैं यथा साम्मालत हा गए होग। भानडारगच्छ, कालिकाचार्यसंतानीय, भावडगच्छ, खरतरगच्छ चन्द्रकुल के आचार्य वर्धमानसूरि के शिष्य भावदेवाचार्यगच्छ, खंडिल्लगच्छ आदि। प्रभावकचरित में जिनेश्वररसूरि ने चौलुक्यनरेश दुर्लभराज की राजसभा में शास्त्रार्थ चन्द्रकुल की एक शाखा के रूप में इस गच्छ का उल्लेख मिलता में चैत्यवासियों को परास्त किया, जिससे प्रसन्न होकर राजा है। इस गच्छ में पट्टधर आचार्यों को भावदेवसरि, विजयसिंहसरि, द्वारा उन्हें खरतर का विरुद्ध प्राप्त हुआ। इस घटना से गर्जरभूमि वीरसूरि और जिनदेवसूरि ये चार नाम पुनः प्राप्त होते रहे। में सुविहितमार्गीय श्रमणों का विहार प्रारंभ हो गया। जिनेश्वरसूरि पार्श्वनाथचरित (रचनाकाल वि.सं. १४१२/ई. सन् १३५६) के . की शिष्य-संतति खरतरगच्छीय कहलाई। इस गच्छ में अनेक रचनाकार भावदेवसूरि इसी गच्छ के थे। इसकी प्रशस्ति के प्रभावशाली और प्रभावक आचार्य हुए और आज भी हैं। इस अंतर्गत उन्होंने अपनी गुरु-परंपरा दी है, जो इस प्रकार है-- गच्छ के आचार्यों ने साहित्य की प्रत्येक विधा को अपनी लेखनी भावदेवसूरि द्वारा समृद्ध किया, साथ ही जिनालयों के निर्माण, प्राचीन जिनालयों के पुनर्निर्माण एवं जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा में भी सक्रिय रूप विजयसिंहसूरि से भाग लिया।२१ वीरसूरि युगप्रधानाचार्यगुर्वावली२२ में इस गच्छ के ११वीं शती से १४वीं शती के अंत तक के आचार्यों का जीवनचरित्र दिया जिनदेवसूरि गया है जो न केवल इस गच्छ के अपितु भारतवर्ष के तत्कालीन राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसके भावदेवसूरि अतिरिक्त इस गच्छ से संबद्ध अनेक विज्ञप्तिपत्र, पट्टावलियाँ, विजयदेवसूरि गुर्वावलियाँ, ऐतिहासिक रास, ऐतिहासिक गीत आदि मिलते हैं, जो इसके इतिहास के अध्ययन के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। वीरसूरि अन्यान्य गच्छों की भाँति इस गच्छ की भी कई शाखाएँ अस्तित्व में आईं, जो इस प्रकार हैं-- जिनदेवसूरि १. मधुकरा शाखा-- आचार्य जिनवल्लभसूरि के समय वि.सं. ११६७/ई. सन् ११११ में यह शाखा अस्तित्व में आई। यशोभद्रसूरि भावदेवसूरि (वि.सं. १४१२/ई. सन् १३५६ में २. रुद्रपल्लीयशाखा-- वि.सं. १२०४ में आचार्य पार्श्वनाथचरित के रचनाकार) जिनेश्वरसूरि से यह शाखा अस्तित्व में आई। इस शाखा में अनेक विद्वान आचार्य हए। श्री अगरचंद नाहटा के अनसार कालकाचार्यकथा, यतिदिनचर्या, अलंकारसार, भक्तामरटीका आदि के कर्ता भावदेवसूरि को ब्राउन ने। वि.संकी १७वीं शती तक इस शाखा का अस्तित्व रहा। पार्श्वनाथचरित के कर्ता उपरोक्त भावदेवसरि से अभिन्न माना है। ३. लघुखरतर शाखा--वि.सं. १३३१/ई. सन् १२७५ इस गच्छ से संबद्ध अनेक प्रतिमालेख मिले हैं जो वि.सं. में आचार्य जिनसिहसूरि से इस शाखा का उदय हुआ। अन्यान्य maatamantimaintamanamanthanindianai ?? } Gambodia andamaina taramananandamaina - - - - - - - - । -------- Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध - इतिहास-- ग्रन्थों के रचनाकार, सुल्तान मुहम्मद तुगलक के प्रतिबोधक भावडारगच्छ, पूर्णिमागच्छ आदि कई गच्छ चन्द्रकुल से ही शासनप्रभावक आचार्य जिनप्रभसूरि इसी शाखा के थे। वि.सं. अस्तित्व में आए। इस गच्छ से संबद्ध कई प्रतिमालेख मिलते को १८वीं शती तक इस शाखा का अस्तित्व रहा। हैं, जो वि.सं. १०७२ से वि.सं. १५५२ तक के हैं। मुनिपतिचरित्र ४. बेगड़ शाखा-- विसं. १४२२ में यह शाखा अस्तित्व (रचनाकाल वि.सं. १००५) एवं जिनशतक काव्य (रचनाकाल में आई। जिनेश्वरसूरि इस शाखा के प्रथम आचार्य हुए। वि.सं. १०२५) के रचियता जम्बूकवि अपरनाम जम्बूनाग इसी गच्छ के थे। सनत्कुमारचरित के रचनाकार चन्द्रसूरि भी इसी ५. पिप्पलक शाखा-- वि.सं. १४७४ में जिनवर्धनसूरि गच्छ के थे। इसी गच्छ के शिवप्रभसूरि के शिष्य श्रीतिलकसूरि द्वारा इस शाखा का उदय हुआ। श्री नाहटा के अनुसार पिप्पलक ने वि.सं. १२६१ में प्रत्येक बुद्धचरित की रचना की। वसन्तविलास नामक स्थान से संबद्ध होने से इसे पिप्पलक शाखा के नाम से के रचनाकार बालचन्द्रसूरि, प्रसिद्ध ग्रन्थसंशोधक प्रद्युम्नसूरि, जाना गया। शीलवतीकथा के रचनाकार उदयप्रभसरि इसी गच्छ के थे।२३ इसी नाम की एक शाखा वडगच्छीय शांतिसूरि के शिष्य इस गच्छ के संबंध में विशेष विवरण अन्वेषणीय है। महेन्द्रसरि, विजयसिंसरि आदि के द्वारा वि.सं. ११८१/ई. सन् चैत्रगच्छ मध्ययुगीन श्वेताम्बर गच्छों में चैत्रगच्छ भी एक ११२५ में अस्तित्व में आई। हैं। चैत्रपुर नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। ६. आद्यपक्षीय शाखा-- वि.सं. १५६४ में आचार्य इस गच्छ के कई नाम मिलते हैं यथा--चैत्रवालगच्छ, जिनदेवसूरि से यह शाखा अस्तित्व में आई। इस शाखा की एक चित्रवालगच्छ, चित्रपल्लीयगच्छ, चित्रगच्छ आदि। धनेश्वरसूरि गद्दी पाली में थी। इस गच्छ के आदि आचार्य माने जाते हैं। इनके पट्टधर ७. भावहर्षीया शाखा--वि.सं. १६२१ में भावहर्षसरि भुवनचन्द्रसूरि हुए जिनके प्रशिष्य और देवभद्रसूरि के शिष्य से इसका उदय हुआ। इस शाखा की एक गद्दी बालोतरा में है। जगच्चन्द्रसूरि से वि.सं.१२८५ ई. सन् १२२९ में तपागच्छ का प्रादुर्भाव हुआ। देवभद्रसूरि के अन्य शिष्यों से चैत्रगच्छ की ८. लघुआचार्य शाखा-- आचार्य जिनसागरसूरि से अविच्छिन्न परंपरा जारी रही। सम्यक्त्वकौमुदी (रचनाकाल वि.सं. वि.सं. १६८६ में यह शाखा अस्तित्व में आई। इसकी गद्दी १५०४/ई. सन् १४४८) और भक्तामरस्तवटीका के रचनाकार बीकानेर में विद्यमान है। गुणाकरसूरि इसी गच्छ के थे।२४ ९. जिनरंगसूरि शाखा-- वि.सं. १७०० में जिनरंगसूरि चैत्रगच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में अभिलेखीय साक्ष्य से प्रारंभ हुई। इसकी गद्दी वर्तमान में लखनऊ में है। प्राप्त होते हैं, जो वि.सं. १२६५ से वि.सं. १५९१ तक के हैं। इस १०. श्रीसारीयशाखा-- वि.सं. १७०० के लगभग यह गच्छ से कई अवान्तर शाखाओं का जन्म हुआ, जैसे--भर्तृपुरीय शाखा अस्तित्व में आई, परंतु शीघ्र ही नामशेष हो गई। शाखा, धारणपद्रीयशाखा, चतुर्दशीयशाखा, चान्द्रसामीय शाखा, ११. मंडोवरा शाखा-- जिनमहेन्द्रसरि, द्वारा वि.सं. सलषणपुरा शाखा, कम्बाइयाशाखा, अष्टापदशाखा, शार्दुलशाखा १८९२ में मंडोवरा नामक स्थान से इसका उदय हुआ। इसकी आदि। एक गद्दी जयपुर में विद्यमान है। जाल्योधरगच्छ विद्याधरगच्छ की द्वितीय शाखा के रूप श्रीअगरचंद नाहटा और श्री भंवरलाल नाहटा ने इस गच्छ में इस गच्छ का उदय हुआ। यह शाखा कब और किस कारण के साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों का न केवल संकलन अस्तित्व में आई ? इसके पुरातन आचार्य कौन थे? साक्ष्यों के और प्रकाशन किया है, अपित उनका सम्यक अध्ययन भी अभाव में ये प्रश्न अनुत्तरित हैं। इस गच्छ से संबद्ध मात्र दो समाज के सम्मुख रखा है। प्रशस्तियाँ--नन्दिपददुर्गवृत्ति की दाताप्रशस्ति (प्रतिलेखनकाल -वि.सं. १२२६/ई. सन् १९६०) और पद्मप्रभचरित (रचनाकाल चन्द्रगच्छ चन्द्रकुल ही आगे चलकर चन्द्रगच्छ के नाम - वि.सं. १२५४ ई. सन् ११९८) की प्रशस्ति ही मिलती है। से प्रसिद्ध हुआ। राजगच्छ, वडगच्छ, खरत गच्छ, पूर्णतल्लगच्छ, महा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासपद्मप्रभचरित की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यह गच्छ तपागच्छ चैत्रगच्छीय भुवनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य और विद्याधरगच्छ की एक शाखा था।२५ देवभद्रसूरि के शिष्य जगच्चन्द्रसूरि को आघाट में उग्र तप करने इस गच्छ से संबद्ध कळ अभिलेखीय साक्ष्य भी मिलते हैं के कारण वि.सं. १२८५/ई. सन् १२२९ में 'तपा' विरुद्ध प्राप्त जो वि.सं. १२१३ से वि.सं. १४२३ तक के हैं।२६ ग्रन्थ प्रशस्तियों हुआ, इसा हुआ, इसी कारण उनकी शिष्य-संतति तपागच्छीय कहलाई।७ और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के मुनिजनों अपने जन्म से लेकर आज तक इस गच्छ की अविच्छिन्न परंपरा से के गुरु परंपरा की एक तालिका बनती है, जो इस प्रकार है-- विद्यमान है और इसका प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है। इस गच्छ में अनेक प्रभावक आचार्य और विद्वान् मुनिजन हो बालचन्द्रसूरि चुके हैं और आज भी हैं। इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होते हैं,जिनका सम्यक् गुणभद्रसूरि (वि.सं. १२२६ की नन्दीदर्गपदवृत्ति में उल्लिखित) अध्ययन आवश्यक है। अन्य गच्छों की भाँति इस गच्छ की भी कई अवान्तर शाखाएँ अस्तित्व में आईं, जैसे--वृद्धपोषालिक, सर्वाणंदसूरि (पार्श्वनाथचरित-अनुपलब्ध के रचनाकार) लघुपोषालिक, विजयाणंदसूरिशाखा, विमलशाखा, विजयदेवसूरिशाखा, सागरशाखा, रत्नशाखा, कमलकलशशाखा, धर्मघोषसूरि कुतुबपुरा शाखा, निगम शाखा आदि।२८ थारापद्रगच्छ प्राक्मध्ययुगीन और मध्ययुगीन निर्ग्रन्थधर्म देवसूरि (वि.सं. १२५४/ई. सन् १९९८ में पद्मप्रभचरित के के श्वेताम्बर आम्नाय के गच्छों में इस गच्छ का महत्त्वपूर्ण रचनाकार) स्थान है। थारापद्र (वर्तमान थराद, बनासकाँठा मंडल उत्तर गुजरात) नामक स्थान से इस गच्छ का प्रादुर्भाव हुआ। इस हरिभद्रसूरि (वि.सं. १२९६/ई. सन् १२४० प्रतिमालेख-घोघा) । गच्छ में ११ वीं शती के प्रारंभ में हुए आचार्य पूर्णभद्रसूरि ने वटेश्वर क्षमाश्रमण को अपना पूर्वज बतलाया है। परंतु इस गच्छ के प्रवर्तक कौन थे, यह गच्छ कब अस्तित्व में आया, इस बारे हरिप्रभसूरि चन्द्रसूरि में वे मौन हैं। इस गच्छ में ज्येष्ठाचार्य, शांतिभद्रसूरि प्रथम, शीलभद्रसूरि प्रथम, सिद्धान्तमहोदधि सर्वदेवसूरि आदि अनेक विबुधप्रभसूरि (वि.सं. १३९२ प्रतिमालेखा) प्रभावक और विद्वान आचार्य हुए हैं। षडावश्यकवृत्ति (रचनाकाल वि.सं. ११२२) और काव्यालंकारटिप्पण के कर्ता नमिसाधु ललितप्रभसूरि (वि.सं. १४२३/ई. सन् १३६७ प्रतिमालेख) इसी गच्छ के थे। इस गच्छ से संबद्ध अभिलेखीय साक्ष्य भी जीरापल्लीगच्छ राजस्थान प्रांत के अर्बुदमंडल के अंतर्गत पर्याप्त संख्या में प्राप्त हुए हैं, जो वि.सं. १०११ से वि.सं. १५३६ जीरावला नामक प्रसिद्ध स्थान है। यहाँ पार्श्वनाथ का एक महिम्न । तक के हैं। इस प्रकार इस गच्छ का अस्तित्व प्रायः १६वीं शती के जिनालय विद्यमान है जो जीरावला पार्श्वनाथ के नाम से जाना मध्य तक प्रमाणित होता है। चूंकि इसके पश्चात् इस गच्छ से संबद्ध जाता है। बृहद्गच्छ पट्टावली में उसकी एक शाखा के रूप में इस साक्ष्यों का अभाव है। अत: यह माना जा सकता है कि उक्त गच्छ का उल्लेख मिलता है। जीरावला नामक स्थान से संबद्ध काल सन काल के बाद इस गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो गया होगा। होने के कारण यह शाखा जीरापल्लीगच्छ के नाम से प्रसिद्ध देवानन्दगच्छ देवानन्दसूरि इस गच्छ के प्रवर्तक माने हुई। इस गच्छ से संबद्ध कई प्रतिमालेख मिलते हैं जो वि.सं. जाते हैं। श्री अगरचंद नाहटा के अनुसार वि.सं. ११९४ और १४०६ से वि.सं. १५१५ तक के हैं। इसके संबंध में विशेष वि.सं. १२०१ की ग्रन्थ-प्रशस्तियाँ में इस गच्छ का उल्लेख अध्ययन अपेक्षित है। मिलता है।३० श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई और श्री लालचंद -- । म Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ – यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास भगवान गांधी ने प्रसिद्ध ग्रन्थ संशोधक और समरादित्यसंक्षेप पार्श्वचन्द्रसरि हुए जिनके नाम पर पार्श्वचन्द्रगच्छ का उदय हुआ व कर्ता प्रद्युम्नसूरि को देवानन्दगच्छ से संबद्ध बताया है जबकि जो वर्तमान में भी अस्तित्ववान है। इन गच्छों का विशिष्ट अध्ययन हीरालाल रसिकलाल कापड़िया और श्री गुलाबचन्द्र चौधरी ने अपेक्षित है। उन्हें चन्द्रगच्छीय बतलाया है। देवानन्दगच्छ चन्द्रगच्छ की ही . नागेन्द्रगच्छ जिस प्रकार चन्द्रकुल बाद में चन्द्रगच्छ के एक शाखा रही या उससे भिन्न थी, इस संबंध में अध्ययन की । नाम से प्रसिद्ध हुआ, उसी प्रकार नागेन्द्रकुल भी नागेन्द्रगच्छ के आवश्यकता है। चम्पकसेनरास (रचनाकाल वि.सं. १६३०/ ई. नाम से विख्यात हुआ। पूर्वमध्ययुगीन और मध्ययुगीन गच्छों में सन् १५७४) के रचयिता महेश्वरसूरिशिष्य इसी गच्छ के थे। इस इस गच्छ का विशिष्ट स्थान रहा। इस गच्छ में अनेक विद्वान् प्रकार वि.सं. की १२ वीं शती से १७वीं शती तक इस गच्छ का आचार्य हुए हैं। अणहिलपुरपाटन के संस्थापक वनराज चावड़ा अस्तित्व सिद्ध होता है३१, फिर भी साक्ष्यों की विरलता के कारण के गुरु शीलगुणसूरि इसी गच्छ के थे। उनके शिष्य देवचन्द्रसूरि इस गच्छ के बारे में विशेष विवरण दे पाना कठिन है। की एक प्रतिमा पाटन में विद्यमान है। अकोटा से प्राप्त ई. सन् धर्मघोषगच्छ३२ राजगच्छीय आचार्य शीलभद्रसूरि के एक की सातवीं शताब्दी की दो जिन प्रतिमाओं पर नागेन्द्रकुल का शिष्य धर्मघोषसूरि अपने समय के अत्यंत प्रभावक आचार्य उल्लेख मिलता है।३४ महामात्य वस्तुपाल तेजपाल के गुरु थे। नरेशत्रय प्रतिबोधक और दिगम्बर विद्वान गुणचन्द्र के विजेता विजयसेनसूरि इसी गच्छ के थे। इसी कारण उनके द्वारा बनवाए के रूप में इनकी ख्याति रही। इनकी प्रशंसा में लिखी गई अनेक गए मंदिरों में मूर्तिप्रतिष्ठा उन्हीं के करकमलों से हुई। जिनहर्षगणि कृतियाँ मिलती हैं, जो इनकी परंपरा में हुए उत्तरकालीन मुनिजनों द्वारा रचित वस्तुपालचरित (रचनाकाल वि.सं. १४८७/ई. सन् द्वारा रची गई हैं। धर्मघोषसूरि की मृत्यु के उपरान्त इनकी १४४१) से ज्ञात होता है कि विजयसेनसूरि के उपदेश से ही शिष्यसंतति अपने गुरु के नाम पर धर्मघोषगच्छ के नाम से वस्तुपाल तेजपाल ने संघयात्राएँ की और ग्रंथ-भण्डार स्थापित विख्यात हुई। इस गच्छ में यशोभद्रसूरि, रविप्रभसूरि, उदयप्रभसूरि, किए तथा जिनमंदिरों का निर्माण कराया। इनके शिष्य उदयप्रभसूरि पृथ्वीचन्द्रसूरि, प्रद्युम्नसूरि, ज्ञानचन्द्रसूरि आदि कई प्रभावक ने धर्माभ्युद महाकाव्य (रचनाकाल वि.सं. १२९०/ई. सन् और विद्वान् आचार्य हुए, जिन्होंने वि.सं. की १२वीं शती से १२३४) और उपदेशमालाटीका (रचनाकाल वि.सं. १२९९/ई. वि.सं. की १७वीं शती के अंत तक अपनी साहित्योपासना, सन् १२४३) की रचना की। इनकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी तीर्थोद्धार, नूतन जिनालयों के निर्माण की प्रेरणा, जिनप्रतिमाओं गुरुपरंपरा का सुन्दर विवरण दिया है जो इस गच्छ के इतिहास की प्रतिष्ठा आदि द्वारा मध्ययुग में श्वेताम्बर श्रमणपरंपरा को की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वासुपूज्यचरित (रचनाकाल चिरस्थायित्व प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वि.सं. १२९९/ ई. सन् १२४३) के रचयिता वर्धमानसूरि और इस गच्छ से संबद्ध लगभग २०० अभिलेख मिले हैं, जो सो प्रबधाचतामा प्रबंधचिंतामणि के रचयिता मेरुतुंगसूरि भी इसी गच्छ के थे। इस वि.सं. १३०३ से वि.सं. १६९१ तक के हैं। ये लेख जिनमंदिरों गच्छ से संबद्ध प्रतिमालेख भी बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। के स्तम्भादि और तीर्थंकर प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण हैं, जो वि.सं. १४५५ के एक धातुप्रतिमालेख के आधार पर श्री अगरचंद धर्मघोषगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिए अत्यंत उपयोगी है। नाहटा न यह नाहटा ने यह मत व्यक्त किया है कि उस समय तक यह गच्छ उपकेशगच्छ में विलीन हो चुका था। इस गच्छ का भी सम्यक् नागपुरीयतपागच्छ वडगच्छीय आचार्य वादिदेवसूरि के अध्ययन होना अपरिहार्य है। एक शिष्य पद्मप्रभसूरि ने नागौर में वि.सं. १९७४ या ११७७ में उग्र तप का 'नागौरीतपा' विरुद् प्राप्त किया। उनकी शिष्य नाणकीयगच्छ३६ श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों में नाणकीय संतति नागपुरीयतपागच्छ के नाम से विख्यात हुई।३३ मुनिजिनविजय र गच्छ का प्रमुख स्थान है। इसके कई नाम मिलते हैं, जैसे--- द्वारा संपादित विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह और श्री मोहनलाल नाणगच्छ, ज्ञानकीयगच्छ, नाणावालगच्छ आदि। जैसा कि इसके दलीचंद देसाई द्वारा लिखित 'जैनगुर्जरकविओ' भाग-२ में इस नाम से स्पष्ट होता है कि अर्बुदमंडल में स्थित नाणा नामक गच्छ की पट्टावली प्रकाशित हुई है। इसी गच्छ में १६वीं शती में सीरीज में स्थान से यह गच्छ अस्तित्व में आया। शांतिसूरि इस गच्छ के स्थ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासआदिम आचार्य माने जाते हैं। उनके पट्टपर क्रम से सिद्धसेनसूरि, इसी कुल से संबद्ध थे। यद्यपि इस कुल या गच्छ से संबद्ध धनेश्वरसूरि और महेन्द्रसूरि ये तीन आचार्य प्रतिष्ठित हुए। यही अभिलेख वि.सं. की १६वीं शती तक के हैं, परंतु उनकी संख्या चार नाम इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को पुनः-पुनः प्राप्त न्यून ही है। होते रहे। इस गच्छ के मुनिजनों की प्रेरणा से वि.सं. १२७२ में इस गच्छ के आदिम आचार्य कौन थे, यह गच्छ कब , बृहत्संग्रहणीपुस्तिका और वि.सं. १५९२ में षट्कर्मअवचूरि की अस्तित्व में आया, इस बारे में उपलब्ध साक्ष्यों से कोई जानकारी प्रतिलिपि कराई गई। यह बात उनकी दाताप्रशस्ति से ज्ञात होती नहीं मिलती। यद्यपि पट्टावलियों में नागेन्द्र, चन्द्र और विद्याधर है। गच्छ से संबद्ध यही साहित्यिक साक्ष्य आज प्राप्त होते हैं। कुलों के साथ इस कुल की उत्पत्ति का भी विवरण मिलता है, इसके विपरीत इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में जिन प्रतिमाएँ किन्तु उत्तरकालीन एवं भ्रामक विवरणों से युक्त होने के कारण ये मिली हैं, जो वि.सं. ११०२ से वि.सं. १५९९ तक की हैं। इससे पट्टावलियाँ किसी भी गच्छ के प्राचीन इतिहास के अध्ययन के प्रतीत होता है कि इस गच्छ के मुनिजन पठन-पाठन की ओर से लिए यथेष्ट प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती है। महावीर की परंपरा प्रायः उदासीन रहते हुए जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा और चैत्यों की में निवृत्तिकुल का उल्लेख नहीं मिलता, अतः क्या यह पापित्यों में देखरेख में ही प्रवृत्त रहते थे। श्रावकों को नूतन जिनप्रतिमाओं के । की परंपरा से लाटदेश में निष्पन्न हुआ, यह अन्वेषणीय है। निर्माण की प्रेरणा देना ही इनका प्रमुख कार्य रहा। सुविहितमार्गीय मुनिजनों के बढ़ते हुए प्रभाव के बावजूद चैत्यवासी गच्छों का पल्लीवालगच्छ पल्ली (वर्तमान पाली, राजस्थान) नामक लंबे समय तक बने रहना समाज में उनकी प्रतिष्ठा और महत्त्व स्थान से पल्लीवाल ज्ञाति और श्वेताम्बरों ने पल्लीवालगज्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। इस गच्छ से संबद्ध साहित्यिक और का परिचायक है। अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। कालिकाचार्यकथा निवृत्तिगच्छ निर्ग्रन्थ दर्शन के चैत्यवासी गच्छों में (रचनाकाल वि.सं. १३६५) के रचनाकार महेश्वरसूरि, निवृत्तिकुल (बाद में निवृत्तिगच्छ) भी एक है। पर्युषणाकल्प पिण्डविशुद्धिदीपिका (रचनाकाल वि.सं. १६२७), उत्तराध्ययन की स्थविरावली में इस कुल का उल्लेख नहीं मिलता। इससे बालावबोधिनीटीका (रचनाकाल वि.सं. १६२९) और बा. प्रतीत होता है कि यह कुल बाद में अस्तित्व में आया। इस कुल आचारांगदीपिका के रचयिता अजितदेवसरि इसी गच्छ से संबद्ध का सर्वप्रथम उल्लेख अकोटा से प्राप्त धातु की दो प्रतिमाओं थे। पल्लीवालगच्छ से संबद्ध जो प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं. वे पर उत्कीर्ण लेखों में प्राप्त होता है। उमाकांत पी. शाह ने इन वि.सं. १३८३ से वि.सं. १६८१ तक के हैं। इस गच्छ की एक लेखों की वाचना इस प्रकार दी है३७-- पट्टावली भी प्राप्त हुई है, जिसके अनुसार यह गच्छ चन्द्रकुल से १. ॐ देवधर्मोयं निवृ(t)त्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य। उत्पन्न हुआ है। २. ॐ निवृ(व)त्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य। पूर्णतल्लगच्छ-चंद्रकुल से उत्पन्न गच्छों में पूर्णतल्लगच्छ शाह ने इन प्रतिमाओं का काल ई. सन ५५० से ६०० के भी एक है। इस गच्छ में जिनदत्तसरि, यशोभद्रसरि, प्रद्यम्नसरि, मध्य माना है। दलसुख भाई मालवणिया के अनुसार वाचनाचार्य गुणसेनसूरि, देवचन्द्रसूरि, कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि, और क्षमाश्रमण समानार्थक शब्द हैं, अत: जिनभद्रवाचनाचार्य अशोकचन्द्रसूरि, चन्द्रसेनसूरि, रामचन्द्रसूरि, गुणचन्द्रसूरि, और प्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण एक ही व्यक्ति बालचन्द्रसूरि आदि कई आचार्य हुए।३९ तिलकमंजरीटिप्पण, माने जा सकते हैं। जैनतर्कवार्तिकवृत्ति आदि के रचनाकार शांतिसूरि इसी गच्छ के उपमितिभवप्रपंचाकथा (रचनाकाल वि.सं. ९६२/ई.. थे। देवचंद्रसूरि ने स्वरचित शांतिनाथचरित (रचनाकाल वि.सं. सन् ९०६), सटीकन्यायावतार, उपदेशमालाटीका के रचनाकार ११६०/. सन् ११०४) का चनाकार ११६०/ई. सन् ११०४) की प्रशस्ति में अपनी गुरु-परंपरा का सिद्धर्षि, चउपन्नमहापुरुषचरियं (रचनाकाल वि.सं. ९२५/ई. सन् उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है-- ८६९) के रचनाकार शीलाचार्य अपरनाम विमलमति अपरनाम यशोभद्रसूरि शीलाङ्क, प्रसिद्ध ग्रन्थसंशोधक द्रोणाचार्य सूराचार्य आदि भी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासप्रद्युम्नसूरि समुद्रघोषसूरि, विमलगणि, देवभद्रसूरि, तिलकाचार्य, मुनिरत्नसूरि, कमलप्रभसूरि, महिमाप्रभसूरि आदि कई प्रखर विद्वान् आचार्य गुणसेनसूरि हो चुके हैं। इस गच्छ की कई आवन्तर शाखाएँ अस्तित्व में आई. जैसे--प्रधानशाखा या ढंढेरियारशाखा, सार्धपूर्णिमाशाखा, देवचन्द्रसूरि(वि.स. ११६०/ई. सन् ११०४ में शांतिनाथचरित के रचनाकार) कच्छोलीवालशाखा, भीमपल्लीयशाखा, वटपद्रीयशाखा, इसके अतिरिक्त देवचन्द्रसूरि ने स्थानक प्रकरणटीका बोरसिद्धीयशाखा, भृगुकच्छीयशाखा, छापरियाशाखा आदि। इस अपरनाम मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति की भी रचना की। चौलुक्यनरेश गच्छ के मुनिजनों द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियों, उनकी प्रेरणा कुमारपालप्रतिबोधक, कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि, से लिपिबद्ध कराए गए प्राचीन ग्रन्थों की दाताप्रशस्तियों एवं उत्पादादिसिद्धिप्रकरण (रचनाकाल वि.सं. १२०५/ई सन् ११४९) पट्टावलियों में इस गच्छ के इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित के रचयिता चन्द्रसेनसूरि तथा अशोकचन्द्रसूरि उक्त देवचन्द्रसूरि है। यही बात इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में प्राप्त प्रतिमालेखों के शिष्य थे। हेमचन्द्रसरि की शिष्य परंपरा में प्रसिद्ध नाट्यकार के संबंध में भी कही जा सकती है। रामचन्द्र गुणचन्द्र, अनेकार्थसंग्रह के टीकाकार महेन्द्रसूरि, स्नातस्या ब्रह्माणगच्छ अर्बुदमंडल के अंतर्गत वर्तमान वरमाण नामक प्रसिद्ध स्तुति के रचयिता बालचन्द्रसूरि, देवचन्द्रसूरि (प्राचीन ब्राह्मण) नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी उदयचन्द्रसूरि, यशश्चन्द्रसूरि, वर्धमानगणि आदि हुए। जाती है। इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त पिप्पलगच्छ वडगच्छीय आचार्य सर्वदेवसरि के प्रशिष्य होते हैं, जो वि.सं. ११२४ से १६वीं शती के अंत तक के हैं। इन और नेमिचन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य शांतिसूरि ने वि.सं. ११८१/ लेखों में विमलसूरि, बुद्धिसागरसूरि, उदयप्रभुसूरि, मुनिचन्द्रसूरि ई. सन् ११२५ में पीपलवृक्ष के नीचे महेन्द्रसूरि, विजयसिंहसूरि __आदि आचार्यों के नाम पुनः आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि आदि आठ शिष्यों को आचार्य पद प्रदान किया। पीपलवृक्ष के इस गच्छ के मुनिजन चैत्यवासी रहे होंगे। इस गच्छ से संबद्ध नीचे उन्हें आचार्य पद प्राप्त होने के कारण उनकी शिष्यसंतति साहित्यिक साक्ष्यों का प्रायः अभाव है, अत: इसके बारे में सागरचन्द्रसूरि, वस्तुपालतेजपालरास (रचनाकाल वि.सं. १४८४/ । विशेष बातें ज्ञात नहीं होती हैं। ई. सन् १४२८), विद्याविलासपवाडो आदि के कर्ता प्रसिद्ध वडगच्छ सुविहितमार्ग प्रतिपालक और चैत्यवास-विरोधी ग्रन्थकार हीरानन्दसूरि, कालकसूरिभास के कर्ता आनन्दमेरु गच्छों में वडगच्छ का प्रमुख स्थान है। परंपरानुसार चन्द्रकुल के इसी गच्छ के थे। इस गच्छ की दो अवान्तर शाखाओं का पता आचार्य उद्योतनसूरि ने वि.सं. ९९४ में आबू के निकट स्थित चलता है-- टेलीग्राम में वटवृक्ष के नीचे सर्वदेवसूरि सहित ८ शिष्यों को १. त्रिभवीयाशाखा २. तालध्वजीयाशाखा आचार्य पद प्रदान किया। वटवृक्ष के नीचे उन्हें प्राप्त होने के कारण उनकी शिष्यसन्तति वडगच्छीय कहलाई। वटवृक्ष के अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर वि.सं. १७७८ तक समान इस गच्छ की भी अनेक शाखाएँ-प्रशाखाएँ अस्तित्व में इस गच्छ का अस्तित्व सिद्ध होता है। आईं, अत: इसका एक नाम बृहद्गच्छ भी पड़ गया। गुर्जरभूमि - पूर्णिमागच्छ या पूर्णिमापक्ष मध्ययुगीन श्वेताम्बर-गच्छों में विधिमार्ग-प्रवर्तक वर्धमानसूरि, उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि और में पूर्णिमागच्छ का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। चन्द्रकुल के बुद्धिसागर-सूरि, ननाङ्गीनृत्तिकार अभयदेवसूरि, आचार्य जयसिंह सूरि के शिष्य चन्द्रप्रभसूरि द्वारा पूर्णिमा को आख्यानकमणिकोश के रचयिता देवेन्द्रगणि अपरनाम पाक्षिक पर्व मनाए जाने का समर्थन करने के कारण उनकी नेमिचन्द्रसूरि, उनके शिष्य आम्रदेवसूरि, प्रसिद्ध ग्रन्थकार शिष्यसंतति पूर्णिमापक्षीय या पूर्णिमागच्छीय कहलाई। वि.सं. मुनिचन्द्रसूरि, उनके पट्टधर प्रसिद्ध वादी देवसूरि, रत्नप्रभसूरि, ११४९ या ११५९ में इस गच्छ का आविर्भाव माना जाता है।४१ हरिभंद्रसूरि आदि अनेक प्रभावक और विद्वान् आचार्य हो चुके इस गच्छ में आचार्य धर्मघोषसूरि, देवसूरि, चक्रेश्वरसूरि, हैं। इस गच्छ की कई अवान्तर शाखाएँ अस्तित्व में आईं, जैसे artantarwarivarmeraditorivandramdasvamidnirmania २७ndarinidminindiadioudioreonitoroordarivarianitarian Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि.सं. ११४९ या ११५९ में यशोभद्र - नेमिचन्द्र के शिष्य और मुनिचन्द्रसूरि के ज्येष्ठ गुरुभ्राता चन्द्रप्रभसूरि से पूर्णिमागच्छ का उदय हुआ। इसी प्रकार वडगच्छीय शांतिसूरि द्वारा वि.सं. १९८१ / ई. सन् ११२५ में पीपलवृक्ष के नीचे महेन्द्रसूरि, विजयसिंहसूरि आदि ८ शिष्यों के आचार्यपद प्रदान करने के कारण उनकी शिष्यसंतति पिप्पलगच्छीय कहलाई । अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा वि.सं. की १७ वीं शती के अंत तक वडगच्छ का अस्तित्व ज्ञात होता - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासलेखांक १६९४ मलधारिगच्छ या हर्षपुरीयगच्छ हर्षपुर (वर्तमान हरसौर) नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। जिनप्रभसूरिविरचित कल्पप्रदीप ( रचनाकाल वि.सं. १३८९ / ई. सन् १३३३) के अनुसार एक बार चौलुक्यनरेश जयसिंह सिद्धराज ने हर्षपुरीयगच्छ के आचार्य अभयदेवसूरि के मलमलिन वस्त्र एवं उनकी मलयुक्तदेह को देखकर उन्हें मलधारि नामक उपाधि से अलंकृत किया। उसी समय से हर्षपुरीयगच्छ मलधारिगच्छ के नाम से विख्यात हुआ। इस गच्छ में अनेक ग्रंथों के प्रणेता हेमचन्द्रसूरि, विजयसिंहसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, लक्ष्मणगणि, विबुधप्रभसूरि, जिनभद्रसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, देवप्रभसूरि, नरचन्द्रसूरि नरेन्द्रप्रभसूरि, राजशेखरसूरि, सुधाकलश आदि प्रसिद्ध आचार्य और विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं। इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा बड़ी संख्या में रची गई कृतियों की प्रशस्तियों एवं गच्छ से संबद्ध वि.सं. ११९० से वि.सं. १६९९ तक के प्रतिमालेखों में इतिहाससंबंधी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। मोडगच्छ गुजरात राज्य के मेहसाणा जिले में अवस्थित मोढेरा (प्राचीन मोढेर ) नामक स्थान से मोढज्ञाति एवं मोढगच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। ई. सन् की १०वीं शताब्दी की धातु की दो प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों में इस गच्छ का उल्लेख प्राप्त होता है। इससे प्रमाणित होता है कि उक्त तिथि के पूर्व यह गच्छ अस्तित्व में आ चुका था । ४५ प्रभावकचरित से भी उक्त मत की पुष्टि होती है। ई. सन् ११७१ / वि.सं. १२२७ के एक लेख में भी इस गच्छ का उल्लेख मिलता है। श्री पूरनचंद नाहर ने इसकी वाचना इस प्रकार दी है- सं. १२२७ वैशाख सुदि ३ गुरौ नंदाणि ग्रामेन्या श्रावकिया आत्मीयपुत्र लूणदे श्रेयोर्थ चतुर्विंशतिपट्टाः कारिताः श्रीमोढगच्छे बप्पभट्टिसंताने जिनभद्राचार्यैः प्रतिष्ठितः । जैनलेखसंग्रह, भाग २, mome वि.सं. १३२५ में प्रतिलिपि की गई कालकाचार्यकथा की दाताप्रशस्ति में मोढगुरु हरिप्रभसूरि का उल्लेख प्राप्त होता है। यद्यपि इस गच्छ से संबद्ध साक्ष्य सीमित संख्या में प्राप्त होते हैं, फिर भी उनके आधार पर इस गच्छ का लम्बे काल तक अस्तित्व सिद्ध होता है। प्रो. एम. ए. ढाकी का मत है कि जैन धर्मानुयायी मोढ़ ज्ञाति द्वारा स्थानकवासी (अमूर्तिपूजक) जैन धर्म अथवा वैष्णवधर्म स्वीकार कर लेने से इस श्वेताम्बरमूर्ति पूजकपरंपरा में गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो गया । राजगच्छ चन्द्रकुल से समय-समय पर अनेक गच्छों का प्रादुर्भाव हुआ, राजगच्छ भी उनमें एक है। वि.सं. की ११ वीं शती के आसपास इस गच्छ का प्रादुर्भाव माना जाता है। चन्द्रकुल के आचार्य प्रद्युम्नसूरि के प्रशिष्य और अभयदेवसूरि के शिष्य धनेश्वरसूरि प्रथम दीक्षा लेने के पूर्व राजा थे, अतः उनकी शिष्य संतति राजगच्छ के नाम से विख्यात हुई । ४६ इस गच्छ में धनेश्वरसूरि द्वितीय, अनेक कृतियों के कर्ता पार्श्वदेवगण अपरनाम श्रीचन्द्रसूरि, सिद्धसेनसूरि, देवभद्रसूरि, माणिक्यचन्द्रसूरि, प्रभाचन्द्रसूरि आदि कई प्रभावक और विद्वान आचार्य हुए हैं। इसी गच्छ के वादीन्द्र धर्मघोषसूरि की शिष्यसंतति अपने गुरु के नाम पर धर्मघोषगच्छीय कहलाई । यद्यपि राजगच्छ से संबद्ध अभिलेखीय साक्ष्य भी मिलते हैं, जो वि.सं. १९२८ से वि.सं. १५०९ तक के हैं, तथापि उनकी संख्या न्यून है। साहित्यिक साक्ष्यों द्वारा इस गच्छ का अस्तित्व वि.सं. की १४ वीं शती तक ही ज्ञात हो पाता है, किन्तु अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा वि.सं. की १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक इस गच्छ का अस्तित्व प्रमाणित होता है। रुद्रपल्लीयगच्छ यह खरतर गच्छ की एक शाखा है जो वि.सं. १२०४ में जिनेश्वरसूरि से अस्तित्व में आई । रुद्रपल्ली नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति हुई। इस गच्छ में देवसुन्दरसूरि, सोमसुन्दरसूरि, गुणसमुद्रसूरि, हर्षदेवसूरि, हर्षसुन्दरसूरि आदि कई आचार्य हुए हैं। वि.सं. की १७ वीं शताब्दी तक इस गच्छ की विद्यमानता का पता चलता है। ४७ वायडगच्छ गुजरात राज्य के पालनपुर जिले में अवस्थित डीसा नामक स्थान के निकट वायड नामक ग्राम है, जहाँ से amótamórárambar 36 moramonoward For Private Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासछठी-सातवीं शती में वायडज्ञाति और वायडगच्छ की उत्पत्ति के रचयिता वीरगणि अपरनाम समुद्रघोषसूरि इसी गच्छ के थे। मानी जाती है। इस गच्छ में पट्टधर आचायों को जिनदत्त, इस गच्छ के प्रवर्तक कौन थे? यह गच्छ कब अस्तित्व में राशिल्ल और जीवदेव ये तीन नाम पुनः पुनः प्राप्त होते थे, आया? इस बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती।५५ सरवाल जिससे पता चलता है कि इस गच्छ के अनुयायी चैत्यवासी रहे। जैनों की कोई ज्ञाति थी, अथवा किसी स्थान का नाम था, जहाँ बालभारत और काव्यकल्पलता के रचनाकार अमरचन्द्रसूरि, से यह गच्छ अस्तित्व में आया, यह अन्वेषणीय है। विवेकविलास व शकुनशास्त्र के प्रणेता जिनदत्तसूरि वायडगच्छ के ही थे। सुकृतसंकीर्तन का रचनाकार ठक्कुर अरिसिंह इसी सन्दर्भ गच्छ का अनुयायी एक श्रावक था। १. भगवतीसूत्र १५/१/५३९-६१. विद्याधरगच्छ नागेन्द्र, निर्वृत्ति और चन्द्रकुल की भाँति २. वही ९/३३/३८६-७. विद्याधरकुल भी बाद में विद्याधरगच्छ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। अपम प्रसिद्ध हुआ। ३. कल्पसूत्रस्थविरावली २०५-२२३. इस गच्छ से संबद्ध कुछ प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं। जालिहरगच्छीय देवप्रभसूरि द्वारा रचित पद्मप्रभचरित (रचनाकाल वि.सं. १२५४/ ४. नन्दीसूत्रस्थविरावली २५-४८. ई. सन् ११९८) की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि काशहद और ५. विशेषावश्यकभाष्य ३०५३ और आगे, आवश्यकभाष्य १४५ जालिहर ये दोनों विद्याधर गच्छ की शाखाएँ हैं।४९ विद्याधरगच्छ । और आगे, आवश्यकचूर्णि, प्रथम भाग, पृ. ४२७, ५८६. के संबंध में विशेष विवरण अन्वेषणीय हैं। ६. कल्पसूत्रस्थविरावली २१६-२२१. संडेरगच्छ मध्ययुगीन श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों में ७. वही संडेरगच्छ का भी प्रमुख स्थान है। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट ८. सम्बोधप्रकरण होता है संडेर (वर्तमान सांडेराव, राजस्थान) नामक स्थान से यह गच्छ अस्तित्व में आया। ईश्वरसूरि इस गच्छ के आदिम ९. . खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, संपा. जिनविजय (सिंधी जैन आचार्य माने जाते हैं। शालिसूरि, सुमतिसूरि, शांतिसूरि और ग्रंथमाला, ग्रथांक ४२, बंबई १९५६), पृ. २-३. ईश्वरसूरि ये चार नाम पुनः इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को १०. द्रष्टव्य संदर्भ संख्या १२. प्राप्त होते रहे। संडेरगच्छीय मुनिजनों द्वारा लिखित ग्रन्थों की ११. श्रीपार्श्व--अंचलगच्छदिग्दर्शन (बंबई, १९८० ई.), पृ.१०. अन्त्य प्रशस्तियों एवं उनकी प्रेरणा से लिखाए गए ग्रन्थों की दाता प्रशस्तियों में इस गच्छ के इतिहास की महत्त्वपर्ण सामग्री १२. अगरचंद नाहटा-- जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश, संकलित है। यही बात इस गच्छ से संबद्ध प्रतिमालेखों--जो यतीन्द्रसूरिअभिनंदनग्रंथ (आहोर, १९५८ ई), पृ. १४१. वि.सं. १०३९ में वि.सं. १७३२ तक के हैं, के बारे में भी कही १३. शिवप्रसाद---आगमिकगच्छ अपरनाम (प्राचीन) जा सकती है। सागरदत्तरास (रचनाकाल वि.सं. १५५०),ललितागंचरित, त्रिस्तुतिकगच्छ का इतिहास, पं. दलसुखभाई मालवणिया श्रीपालचौपाई, सुमित्रचरित्र आदि के रचनाकार ईश्वरसूरि इसी गच्छ अभिनंदनग्रंथ, वाराणसी १९९१ ई. स. पृष्ठ २४१-२८४. के थे। प्राचीन ग्रन्थों के प्रतिलेखन की पुष्पिकाओं के आधार पर ई.. १४. शिवप्रसाद--उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, श्रमण वर्ष सन की १८वीं शती तक इस गच्छ का अस्तित्व ज्ञात होता है। ४२, अंक ७-१२, पृ. ९१-१८२. सरवालगच्छ पूर्वमध्ययुगीन श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों १५. वही, पृ. १८१-१८२. में सरवालगच्छ भी एक है। चन्द्रकुल की एक शाखा के रूप में . इस गच्छ का उल्लेख प्राप्त होता है। इस गच्छ से संबद्ध वि.सं. १६. C.D. Dalal--A Deccriptive Catalogue Of Manuscripts in the jain Bhandars at Pattan, Gackwad's Oriental १११० से वि.सं. १२८३ तक के कुछ प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं। Series No. LXXVI. Baroda. 1937, A.D., pp 215-6. पिण्डनियुक्तिवृत्ति (रचनाकाल वि.सं. ११६०/ई. सन् ११०४) ModidrorariandroloredroidroidroidroidroidroM२९ Hamarirrormiriibrarorridorrowarmarooritam Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास १७. H.D.Velankar--jinaratnakosa, Bhandarkar oriental - मोहनलाल दलीचंद देसाई--जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, Research institute, government Oriental Series, बंबई, १९३३ ई., पृ. ३८४. Class C No. 4 Poona, 1994, A.D., pp. 349-350. पं. लालचंद भगवानदास गांधी--ऐतिहासिक लेख संग्रह, १८. शिवप्रसाद कृष्णर्षिगच्छ का इतिहास, निर्ग्रन्थ जिल्द १, बडोदरा, १९६३ ई., पृ. १६२. अहमदाबाद १९९५, हिन्दी खण्ड, पृष्ठ २४-३५. १९. हीरालाल रसिकलाल कापड़िया--जैन संस्कृत साहित्यनो शिवप्रसाद--कोरंटगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, श्रमण, वर्ष इतिहास भाग २, बड़ोदरा, १९६८ ई., पृ. १३२. ४०, अंक ५, पृ. १५-४३. गुलाबचंद्र चौधरी--जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग २०. शिवप्रसाद---भावडारगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, श्रमण, .६, वाराणसी १९७३ ई., पृ. २७०-७१. वर्ष ४०, अंक ३, पृ. १५-३३. २१. नाहटा, पूर्वाक्त, पृ. १४५-१४६. .. ३१. नाहटा, पूर्वोक्त पृ. १५०. ३२. शिवप्रसाद--धर्मघोषगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, श्रमण, २२. मुनि जिनविजय--संपा. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, सिंधी . वर्ष ४१, अंक १-३, पृ. ४५-१०३. जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ४२, बंबई १९५६ ई., भूमिका, पृ. ६-१२. ३३. नाहटा, पूर्वोक्त,पृ. १५१. २३. भोगीलाल सांडेसरा-महामात्य वस्तुपाल का साहित्यमण्डल ३४. U.P. Shah--Akota Bronzes, (Bombay 1959) PP 34-35 और संस्कृत साहित्य में उसकी देन, जैन-संस्कृति-संशोधन सांडेसरा, पूर्वोक्त, पृ. ९६-१००. मंडल, सन्मति प्रकाशन नं. १५, वाराणसी, १९५९ ई., ३५. नाहटा, पर्वोक्त. प. १५१. पृ.च १०६-१०९. ३६. शिवप्रसाद, नाणकीयगच्छ, श्रमण, वर्ष ४०, अंक ७, पृ. २२४. वेलणकर, पूर्वोक्त, पृ. २८८ और ४२३-४२४. ३४. २५. द्रष्टव्य सन्दर्भ संख्या १६. ३७. शाह, पूर्वोक्त, पृ. २९, ३३-३४. २६. शिवप्रसाद--जालिहरगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, श्रमण, इस गच्छ के संबंध में विचार के लिए द्रष्टव्य--शिवप्रसाद, वर्ष ४३, अंक ४-६, पृ. ४१-४६. निवृत्तिकुल का संक्षिप्त इतिहास, २६ शिवप्रसाद--जीरापल्लीगच्छ का इतिहास, श्रमण, वर्ष ४७, निर्ग्रन्थ वर्ष २. अहमदाबाद १९९६ ई. हिन्दी खंड पष्ट अंक ९, पृ. २३-३३. ३४-३९. २७. नाहटा, पूर्वोक्त, पृ. १४८. ३८. अगरचंद नाहटा--पल्लीवालगच्छपट्टावली, श्री २८. वही, पृ. १४८-१४९ ___ आत्मारामजी शताब्दी ग्रन्थ, पृ. १८२-१९६. एवं . ३९. भोगीलाल सांडेसरा--हेमचन्द्राचार्य का शिष्य मंडल, जैनमनिकान्तिसागर--शत्रंजयवैभव, कुशल संस्थान, पुष्प ४, संस्कृति-संशोधन-मंडल, पत्रिका नं. ३१, वाराणसी १९५१ ई., पृ. ३-२०. जयपुर १९९० ई., पृ. ३६९-२७०. २९. शिवप्रसाद--थारापद्रगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, निर्ग्रन्थ, ४०. शिवप्रसाद, पिप्पलगच्छ का इतिहास, श्रमण, वर्ष ४७, अंक वर्ष १, अंक १, अहमदाबाद १९९४ ई. १०-१२, वर्ष ४८, अंक १-३, पृष्ठ ८३-११७. ४१. शिवप्रसाद, पूर्णिमागच्छ का इतिहास, श्रमण, वर्ष ४२, और ३०. नाहटा, पूर्वोक्त, पृ. १४८-१४९. ४३ के विभिन्न अंक anorarianiwanoramodriwariramirariwariramidndirideira-३०d iodroideoirdroidndroidmadridriororaniod Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास४२. शिवप्रसाद .ब्राह्मण गच्छ का इतिहास, श्रमण, वर्ष 48, 144-159. अंक 7-9, पृष्ठ 14-50. 46. शिवप्रसाद, राजगच्छ का इतिहास, संस्कृतिसंधान, वर्ष 5, 43. शिवप्रसाद--बृहद्गच्छ का संक्षिप्त इतिहास, पं. दलसुख . वाराणसी 1992, पृष्ठ 33-48. भाई मालवणिया अभिनंदनग्रंथ, पृ. 105-117. 47. शिवप्रसाद, वायडगच्छ का इतिहास, निर्ग्रन्थ, जिल्द 2, 44. मुनिजिनविजय, संपा. कल्पप्रदीप अपरनाम विविधतीर्थकल्प . हिन्दी खण्ड, पृष्ठ 40-48. सिंघी जैन ग्रंथमाला, ग्रथांक 10, शांति निकेतन-१९३४ 48. शिवप्रसाद, विद्याधर कुल और विद्याधर गच्छ, संस्कृतिई., पृ. 51. संधान, वर्ष 8, वाराणसी 1995 ई. पृ. 11-17 44: शिवप्रसाद, हर्षपुरीयगच्छ अपरनाम मलधारीगच्छ का 49 दाव्य--संदर्भसंख्या 16 संक्षिप्त इतिहास, श्रमण, वर्ष 47, अंक 46, पृष्ठ 36-67. 50. शिवप्रसाद--संडेरगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, पं. दलसुख 45. M.A. Dhaky-- "Modhera, Modha-Vansa, Modha भाई मालवणिया अभिनंदनग्रन्थ, पृ. 194-217. Gaccha and Modha-Caityas, journal of the Asiatic Socity of Bombay, Volumes 56-59/1981-84 51. शिवप्रसाद--सरवालगच्छ का संक्षिप्त इतिहास संस्कृति. (Combined) (New Series), Bombay-1986, A.D., pp. .संधान, वर्ष 4, वाराणसी, 1992 ई., पृ. 51-56. amoronstarAdrenoreandramdaanordGAAdmiriwariM31berondiindirirdrob-b o ardniramirariandorrowd