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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासलिए आगे आएँ। स्व. नाहटा जी के उक्त कथन को आदेश मानते हुए प्रो. एम.ए. ढाँकी और प्रो. सागरमल जैन की प्रेरणा और सहयोग से मैंने श्वेताम्बर श्रमणों के गच्छों के इतिहास के लेखन का कार्य प्रारंभ किया है। यद्यपि मैंने साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर विभिन्न गच्छों का इतिहास लिखने का प्रयास किया है, किन्तु प्रस्तुत लेख में गच्छों का मात्र परिचयात्मक विवरण आवश्यक होने से नाहटा जी के उक्त लेख का अनुसरण करते हुए गच्छों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है।
अंचलगच्छ अपरनाम विधिपक्ष वि.सं. ११५९ या ११६९ में उपाध्याय विजयचन्द्र (बाद में आर्यरक्षितसूरि) द्वारा विधिपक्ष का पालन करने के कारण उनकी शिष्य संतति विधिपक्षीय कहलायी । " प्रचलित मान्यता के अनुसार इस गच्छ के अनुयायी श्रावकों द्वारा मुँहपत्ती के स्थान पर वस्त्र के छोर (अंचल) से वंदन करने के कारण अंचलगच्छ नाम प्रचलित हुआ। इस गच्छ में अनेक विद्वान् आचार्य और मुनिजन हुए हैं, परन्तु उनमें से कुछ आचार्यों की कृतियाँ आज उपलब्ध होती हैं। इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं । १२ इनमें प्राचीनतम लेख वि.सं. १२०६ का है। अपने उदय से लेकर आज तक इस गच्छ की अविच्छिन्न परंपरा विद्यमान है।
आगमिकगच्छ पूर्णिमापक्षीय शीलगुणसूरि और उनके शिष्य देवभद्रसूरि द्वारा जीवदयाणं तक का शक्रस्तव, ६७ अक्षरों का परमेष्ठीमन्त्र और तीनस्तुति से देववन्दन आदि बातों में आगमों का समर्थन करने के कारण वि.सं. १२१४ या वि.सं. १२५० में आगमिकगच्छ या त्रिस्तुतिकमत की उत्पत्ति हुई। इस गच्छ में यशोभद्रसूरि, सर्वाणंदसूरि, विजयसिंहसूरि, अमरसिंहसूरि, हेमरत्नसूरि, अमररत्नसूरि, सोमप्रभसूरि, आनन्दप्रभसूरि आदि कई प्रभावक आचार्य हुए जिन्होंने साहित्यसेवा और धार्मिक क्रियाकलापों से श्वेताम्बर श्रमणसंघ को जीवन्त बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
आगमि गच्छ से संबद्ध विपुल परिणाम में आज साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। साहित्यिक साक्ष्यों के अंतर्गत इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा लिखे गए ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ तथा कुछ पट्टावलियाँ आदि हैं। इस गच्छ से संबद्ध लगभग २०० प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं, जो वि.सं. १४२० से लेकर
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वि.सं. १६८३ तक के हैं। उपलब्ध साक्ष्यों से इस गच्छ की दो शाखाओं-धंधूकीया और विलाबंडीया का पता चलता है।
उपकेशगच्छ१४ पूर्वमध्यकालीन और मध्यकालीन श्वेताम्बर परंपरा में उपकेशगच्छ का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। जहाँ अन्य सभी गच्छ भगवान महावीर से अपनी परंपरा जोड़ते हैं, वहीं उपकेशगच्छ अपना संबंध भगवान पार्श्वनाथ से जोड़ता है। अनुश्रुति के अनुसार इस गच्छ का उत्पत्तिस्थल उपकेशपुर (वर्तमान ओसिया, राजस्थान) माना जाता है। परंपरानुसार इस गच्छ के आदिम आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वीर संवत् ७० में ओसवालगच्छ की स्थापना की, परन्तु किसी भी प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्य से इस बात की पुष्टि नहीं होती । ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ओसवालों की स्थापना और इस गच्छ की उत्पत्ति का समय ई. सन् की आठवीं शती के पूर्व नहीं माना जा
सकता।
उपकेशगच्छ में कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि इन तीन पट्टधर आचार्यों के नामों की प्रायः पुनरावृत्ति होती रही है, जिससे प्रतीत होता है कि इस गच्छ के अनुयायी श्रमण चैत्यवासी रहे होंगे। इस गच्छ में कई प्रभावक और विद्वान् आचार्य हो चुके हैं, जिन्होंने साहित्योपासना के साथ-साथ नवीन जिनालयों के निर्माण, प्राचीन जिनालयों के जीर्णोद्धार तथा जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना द्वारा पश्चिम भारत में श्वेताम्बर - श्रमण-परंपरा को जीवंत बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।
अन्यान्य गच्छों की भाँति उपकेशगच्छ से भी कई अवान्तर शाखाओं का जन्म हुआ। जैसे वि. सं. १२६६ / ई. सन् १२१० में द्विवंदनीक शाखा, वि.सं. १३०८/ई. सन् १२५२ में खरतपा शाखा तथा वि.सं. १४९८/ई. सन् १४४२ में खादिरीशाखा अस्तित्व में आई। इसके अतिरिक्त इस गच्छ की दो अन्य शाखाओंककुदाचार्यसंतानीय और सिद्धाचार्यसंतानीय का भी पता चला हैं, किन्तु इनके उत्पत्तिकाल के संबंध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती।
उपकेशगच्छ के इतिहास से संबद्ध पर्याप्त संख्या में इस गच्छ के मुनिजनों की कृतियों की प्रशस्ति, मुनिजनों के अध्ययनार्थ या उनकी प्रेरणा से प्रतिलिपि कराई गई प्राचीन ग्रन्थों की दाताप्रशस्तियाँ तथा दो प्रबंध ( उपकेशगच्छप्रबंध और नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबंध - रचनाकाल वि.सं. १३९३ / ई. सन्
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