Book Title: Swetambar Sampraday ke gaccho ka Samatya Paricha
Author(s): Shivprasad
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामान्य परिचय डॉ. शिवप्रसाद शोध अध्येता, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी....) विश्व के सभी धर्म एवं संप्रदाय अपने उद्भव के पश्चात् परंपरा दिगंबर सम्प्रदाय के रूप में जानी गई। कालान्तर में अनेक शाखाओं-उपशाखाओं आदि में विभाजित . उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में लगभग दसरी शती में वस्त्र होते रहे हैं। जैनधर्म भी इसका अपवाद नहीं है। यह विभाजन के प्रश्न को लेकर संघ-भेद हुआ और एक नवीन परंपरा का अनेक कारणों से होता रहा है और इनमें सबसे प्रधान कारण रहा उद्भव हुआ जो आगे चलकर बोटिक या यापनीय नाम से है--देश और काल की परिवर्तनशील परिस्थितियाँ एवं परिवेश। प्रसिद्ध हुई। पीछे से जो संघभेद हुए उनके मूल में सैद्धान्तिक इन्हीं के फलस्वरूप परंपरागत प्राचीन विधि-विधानों के स्थान विधि-विधान संबंधी भेद अवश्य विद्यमान रहे, किन्तु यहाँ इन पर नवीन विधि-विधानों और मान्यताओं को प्रश्रय देने से मूल सबकी चर्चा न करते हुए मात्र श्वेताम्बर सम्प्रदाय में समयपरंपरा में विभेद उत्पन्न हो जाता है। कभी-कभी यह मतभेद समय पर उत्पन्न एवं विकसित हुए विभिन्न गच्छों की चर्चा प्रस्तुत वैयक्तिक अहं की पुष्टि और नेतृत्व के प्रश्न को लेकर भी होता की गई है। है, फलत: एक नई शाखा अस्तित्व में आ जाती है। पुनः इन्हीं कारणों से उसमें भी भेद होता है और नई-नई उपशाखाओं का . उत्तर और पश्चिम भारत का श्वेताम्बर संघ प्रारंभ में तो उदय होता रहता है। वारणगण, मानवगण, उत्तरवल्लिसहगण आदि अनेक गणों और उनकी कुल शाखाओं में विभक्त था, किन्तु कालान्तर में कोटिक निर्ग्रन्थ-श्रमण-संघ में भगवान महावीर के समय में ही गण को छोड़कर शेष सभी कुल और शाखाएँ समाप्त हो गईं। गोशालक' एवं जामालिने संघभेद के प्रयास किए, परंतु आज के श्वेताम्बर मुनिजन स्वयं को इसी कोटिकगण से संबद्ध गोशालक आजीवक संघ में सम्मिलित हो गया और जामालि मानते हैं। इस गण से भी अनेक शाखाएँ अस्तित्व में आईं। उनमें की शिष्य-परंपरा आगे नहीं चल सकी। उच्चनागरी, विद्याधरी, वज्री, माध्यमिका, नागिल, पद्मा, जयंति वीरनिर्वाण के बाद की शताब्दियों में निर्ग्रन्थ-श्रमण-संघ आदि शाखाएँ प्रमुख रूप से प्रचलित रहीं। इन्हीं से आगे चलकर विभिन्न गण, शाखा, कुल और अन्वयों में विभक्त होता गया। नागेन्द्र, निवृत्ति, चन्द्र और विद्याधर ये चार कुल अस्तित्व में आए। कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों में वीरनिर्वाण संवत् पूर्व मध्ययुगीन श्वेताम्बर गच्छों का इन्हीं से प्रादुर्भाव हुआ। ९८० अर्थात् विक्रम संवत् की ५वीं-६ठी शताब्दी तक उत्तर ईसवी सन की छठी-सातवीं शताब्दी से ही श्वेताम्बर श्रमण भारत की जैन-परंपरा में कौन-कौन से जैन आचार्यों से कौन परंपरा को पश्चिमी भारत (गुजरात और राजस्थान) में राजाश्रय कौन से गण, कुल और शाखाओं का जन्म हुआ, इसका सुविस्तृत प्राप्त होने से इसका विशेष प्रचार-प्रसार हुआ, फलस्वरूप वहाँ विवरण संकलित है। ये सभी गण कुल और शाखाएँ गुरु-परंपरा अनेक नए-नए जिनालयों का निर्माण होने लगा। जैन-मुनि भी विशेष से ही संबद्ध रही है। इनके धार्मिक विधि-विधानों में । अब वनों को छोड़कर जिनालयों के साथ संलग्न भवनों किसी प्रकार का मतभेद था या नहीं, यदि मतभेद था तो किस (चैत्यालयों) में निवास करने लगे। स्थिर वास एवं जिनालयों प्रकार का था? इन बातों की जानकारी हेतु हमारे पास कोई का स्वामित्व प्राप्त होने के फलस्वरूप इन श्रमणों में अन्य दोषों साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। के साथ-साथ परस्पर विद्वेष एवं अहंभाव का भी अंकुरण हुआ। निर्ग्रन्थ-श्रमण-संघ के जो श्रमण दक्षिण में चले गए थे, इनमें अपने-अपने अनुयायियों की संख्या में वृद्धि करने की वे भी कालान्तर में गणों एवं अन्वयों में विभाजित हुए। यह होड़ सी लगी हुई थी। इन्हीं परिस्थितियों में श्वेताम्बर श्रमणसंघ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 ... 14