Book Title: Swetambar Sampraday ke gaccho ka Samatya Paricha
Author(s): Shivprasad
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 10
________________ क - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासप्रद्युम्नसूरि समुद्रघोषसूरि, विमलगणि, देवभद्रसूरि, तिलकाचार्य, मुनिरत्नसूरि, कमलप्रभसूरि, महिमाप्रभसूरि आदि कई प्रखर विद्वान् आचार्य गुणसेनसूरि हो चुके हैं। इस गच्छ की कई आवन्तर शाखाएँ अस्तित्व में आई. जैसे--प्रधानशाखा या ढंढेरियारशाखा, सार्धपूर्णिमाशाखा, देवचन्द्रसूरि(वि.स. ११६०/ई. सन् ११०४ में शांतिनाथचरित के रचनाकार) कच्छोलीवालशाखा, भीमपल्लीयशाखा, वटपद्रीयशाखा, इसके अतिरिक्त देवचन्द्रसूरि ने स्थानक प्रकरणटीका बोरसिद्धीयशाखा, भृगुकच्छीयशाखा, छापरियाशाखा आदि। इस अपरनाम मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति की भी रचना की। चौलुक्यनरेश गच्छ के मुनिजनों द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियों, उनकी प्रेरणा कुमारपालप्रतिबोधक, कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि, से लिपिबद्ध कराए गए प्राचीन ग्रन्थों की दाताप्रशस्तियों एवं उत्पादादिसिद्धिप्रकरण (रचनाकाल वि.सं. १२०५/ई सन् ११४९) पट्टावलियों में इस गच्छ के इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित के रचयिता चन्द्रसेनसूरि तथा अशोकचन्द्रसूरि उक्त देवचन्द्रसूरि है। यही बात इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में प्राप्त प्रतिमालेखों के शिष्य थे। हेमचन्द्रसरि की शिष्य परंपरा में प्रसिद्ध नाट्यकार के संबंध में भी कही जा सकती है। रामचन्द्र गुणचन्द्र, अनेकार्थसंग्रह के टीकाकार महेन्द्रसूरि, स्नातस्या ब्रह्माणगच्छ अर्बुदमंडल के अंतर्गत वर्तमान वरमाण नामक प्रसिद्ध स्तुति के रचयिता बालचन्द्रसूरि, देवचन्द्रसूरि (प्राचीन ब्राह्मण) नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी उदयचन्द्रसूरि, यशश्चन्द्रसूरि, वर्धमानगणि आदि हुए। जाती है। इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त पिप्पलगच्छ वडगच्छीय आचार्य सर्वदेवसरि के प्रशिष्य होते हैं, जो वि.सं. ११२४ से १६वीं शती के अंत तक के हैं। इन और नेमिचन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य शांतिसूरि ने वि.सं. ११८१/ लेखों में विमलसूरि, बुद्धिसागरसूरि, उदयप्रभुसूरि, मुनिचन्द्रसूरि ई. सन् ११२५ में पीपलवृक्ष के नीचे महेन्द्रसूरि, विजयसिंहसूरि __आदि आचार्यों के नाम पुनः आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि आदि आठ शिष्यों को आचार्य पद प्रदान किया। पीपलवृक्ष के इस गच्छ के मुनिजन चैत्यवासी रहे होंगे। इस गच्छ से संबद्ध नीचे उन्हें आचार्य पद प्राप्त होने के कारण उनकी शिष्यसंतति साहित्यिक साक्ष्यों का प्रायः अभाव है, अत: इसके बारे में सागरचन्द्रसूरि, वस्तुपालतेजपालरास (रचनाकाल वि.सं. १४८४/ । विशेष बातें ज्ञात नहीं होती हैं। ई. सन् १४२८), विद्याविलासपवाडो आदि के कर्ता प्रसिद्ध वडगच्छ सुविहितमार्ग प्रतिपालक और चैत्यवास-विरोधी ग्रन्थकार हीरानन्दसूरि, कालकसूरिभास के कर्ता आनन्दमेरु गच्छों में वडगच्छ का प्रमुख स्थान है। परंपरानुसार चन्द्रकुल के इसी गच्छ के थे। इस गच्छ की दो अवान्तर शाखाओं का पता आचार्य उद्योतनसूरि ने वि.सं. ९९४ में आबू के निकट स्थित चलता है-- टेलीग्राम में वटवृक्ष के नीचे सर्वदेवसूरि सहित ८ शिष्यों को १. त्रिभवीयाशाखा २. तालध्वजीयाशाखा आचार्य पद प्रदान किया। वटवृक्ष के नीचे उन्हें प्राप्त होने के कारण उनकी शिष्यसन्तति वडगच्छीय कहलाई। वटवृक्ष के अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर वि.सं. १७७८ तक समान इस गच्छ की भी अनेक शाखाएँ-प्रशाखाएँ अस्तित्व में इस गच्छ का अस्तित्व सिद्ध होता है। आईं, अत: इसका एक नाम बृहद्गच्छ भी पड़ गया। गुर्जरभूमि - पूर्णिमागच्छ या पूर्णिमापक्ष मध्ययुगीन श्वेताम्बर-गच्छों में विधिमार्ग-प्रवर्तक वर्धमानसूरि, उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि और में पूर्णिमागच्छ का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। चन्द्रकुल के बुद्धिसागर-सूरि, ननाङ्गीनृत्तिकार अभयदेवसूरि, आचार्य जयसिंह सूरि के शिष्य चन्द्रप्रभसूरि द्वारा पूर्णिमा को आख्यानकमणिकोश के रचयिता देवेन्द्रगणि अपरनाम पाक्षिक पर्व मनाए जाने का समर्थन करने के कारण उनकी नेमिचन्द्रसूरि, उनके शिष्य आम्रदेवसूरि, प्रसिद्ध ग्रन्थकार शिष्यसंतति पूर्णिमापक्षीय या पूर्णिमागच्छीय कहलाई। वि.सं. मुनिचन्द्रसूरि, उनके पट्टधर प्रसिद्ध वादी देवसूरि, रत्नप्रभसूरि, ११४९ या ११५९ में इस गच्छ का आविर्भाव माना जाता है।४१ हरिभंद्रसूरि आदि अनेक प्रभावक और विद्वान् आचार्य हो चुके इस गच्छ में आचार्य धर्मघोषसूरि, देवसूरि, चक्रेश्वरसूरि, हैं। इस गच्छ की कई अवान्तर शाखाएँ अस्तित्व में आईं, जैसे artantarwarivarmeraditorivandramdasvamidnirmania २७ndarinidminindiadioudioreonitoroordarivarianitarian Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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