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वि.सं. ११४९ या ११५९ में यशोभद्र - नेमिचन्द्र के शिष्य और मुनिचन्द्रसूरि के ज्येष्ठ गुरुभ्राता चन्द्रप्रभसूरि से पूर्णिमागच्छ का उदय हुआ। इसी प्रकार वडगच्छीय शांतिसूरि द्वारा वि.सं. १९८१ / ई. सन् ११२५ में पीपलवृक्ष के नीचे महेन्द्रसूरि, विजयसिंहसूरि आदि ८ शिष्यों के आचार्यपद प्रदान करने के कारण उनकी शिष्यसंतति पिप्पलगच्छीय कहलाई । अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा वि.सं. की १७ वीं शती के अंत तक वडगच्छ का अस्तित्व ज्ञात होता
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासलेखांक १६९४
मलधारिगच्छ या हर्षपुरीयगच्छ हर्षपुर (वर्तमान हरसौर) नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। जिनप्रभसूरिविरचित कल्पप्रदीप ( रचनाकाल वि.सं. १३८९ / ई. सन् १३३३) के अनुसार एक बार चौलुक्यनरेश जयसिंह सिद्धराज ने हर्षपुरीयगच्छ के आचार्य अभयदेवसूरि के मलमलिन वस्त्र एवं उनकी मलयुक्तदेह को देखकर उन्हें मलधारि नामक उपाधि से अलंकृत किया। उसी समय से हर्षपुरीयगच्छ मलधारिगच्छ के नाम से विख्यात हुआ। इस गच्छ में अनेक ग्रंथों के प्रणेता हेमचन्द्रसूरि, विजयसिंहसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, लक्ष्मणगणि, विबुधप्रभसूरि, जिनभद्रसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, देवप्रभसूरि, नरचन्द्रसूरि नरेन्द्रप्रभसूरि, राजशेखरसूरि, सुधाकलश आदि प्रसिद्ध आचार्य और विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं। इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा बड़ी संख्या में रची गई कृतियों की प्रशस्तियों एवं गच्छ से संबद्ध वि.सं. ११९० से वि.सं. १६९९ तक के प्रतिमालेखों में इतिहाससंबंधी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है।
मोडगच्छ गुजरात राज्य के मेहसाणा जिले में अवस्थित मोढेरा (प्राचीन मोढेर ) नामक स्थान से मोढज्ञाति एवं मोढगच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। ई. सन् की १०वीं शताब्दी की धातु की दो प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों में इस गच्छ का उल्लेख प्राप्त होता है। इससे प्रमाणित होता है कि उक्त तिथि के पूर्व यह गच्छ अस्तित्व में आ चुका था । ४५ प्रभावकचरित से भी उक्त मत की पुष्टि होती है। ई. सन् ११७१ / वि.सं. १२२७ के एक लेख में भी इस गच्छ का उल्लेख मिलता है। श्री पूरनचंद नाहर ने इसकी वाचना इस प्रकार दी है-
सं. १२२७ वैशाख सुदि ३ गुरौ नंदाणि ग्रामेन्या श्रावकिया आत्मीयपुत्र लूणदे श्रेयोर्थ चतुर्विंशतिपट्टाः कारिताः श्रीमोढगच्छे बप्पभट्टिसंताने जिनभद्राचार्यैः प्रतिष्ठितः । जैनलेखसंग्रह, भाग २,
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वि.सं. १३२५ में प्रतिलिपि की गई कालकाचार्यकथा की दाताप्रशस्ति में मोढगुरु हरिप्रभसूरि का उल्लेख प्राप्त होता है। यद्यपि इस गच्छ से संबद्ध साक्ष्य सीमित संख्या में प्राप्त होते हैं, फिर भी उनके आधार पर इस गच्छ का लम्बे काल तक अस्तित्व सिद्ध होता है। प्रो. एम. ए. ढाकी का मत है कि जैन धर्मानुयायी मोढ़ ज्ञाति द्वारा स्थानकवासी (अमूर्तिपूजक) जैन धर्म अथवा वैष्णवधर्म स्वीकार कर लेने से इस श्वेताम्बरमूर्ति पूजकपरंपरा में गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो गया ।
राजगच्छ चन्द्रकुल से समय-समय पर अनेक गच्छों का प्रादुर्भाव हुआ, राजगच्छ भी उनमें एक है। वि.सं. की ११ वीं शती के आसपास इस गच्छ का प्रादुर्भाव माना जाता है। चन्द्रकुल के आचार्य प्रद्युम्नसूरि के प्रशिष्य और अभयदेवसूरि के शिष्य धनेश्वरसूरि प्रथम दीक्षा लेने के पूर्व राजा थे, अतः उनकी शिष्य संतति राजगच्छ के नाम से विख्यात हुई । ४६ इस गच्छ में धनेश्वरसूरि द्वितीय, अनेक कृतियों के कर्ता पार्श्वदेवगण अपरनाम श्रीचन्द्रसूरि, सिद्धसेनसूरि, देवभद्रसूरि, माणिक्यचन्द्रसूरि, प्रभाचन्द्रसूरि आदि कई प्रभावक और विद्वान आचार्य हुए हैं। इसी गच्छ के वादीन्द्र धर्मघोषसूरि की शिष्यसंतति अपने गुरु के नाम पर धर्मघोषगच्छीय कहलाई ।
यद्यपि राजगच्छ से संबद्ध अभिलेखीय साक्ष्य भी मिलते हैं, जो वि.सं. १९२८ से वि.सं. १५०९ तक के हैं, तथापि उनकी संख्या न्यून है। साहित्यिक साक्ष्यों द्वारा इस गच्छ का अस्तित्व वि.सं. की १४ वीं शती तक ही ज्ञात हो पाता है, किन्तु अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा वि.सं. की १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक इस गच्छ का अस्तित्व प्रमाणित होता है।
रुद्रपल्लीयगच्छ यह खरतर गच्छ की एक शाखा है जो वि.सं. १२०४ में जिनेश्वरसूरि से अस्तित्व में आई । रुद्रपल्ली नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति हुई। इस गच्छ में देवसुन्दरसूरि, सोमसुन्दरसूरि, गुणसमुद्रसूरि, हर्षदेवसूरि, हर्षसुन्दरसूरि आदि कई आचार्य हुए हैं। वि.सं. की १७ वीं शताब्दी तक इस गच्छ की विद्यमानता का पता चलता है। ४७
वायडगच्छ गुजरात राज्य के पालनपुर जिले में अवस्थित डीसा नामक स्थान के निकट वायड नामक ग्राम है, जहाँ से
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