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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासछठी-सातवीं शती में वायडज्ञाति और वायडगच्छ की उत्पत्ति के रचयिता वीरगणि अपरनाम समुद्रघोषसूरि इसी गच्छ के थे। मानी जाती है। इस गच्छ में पट्टधर आचायों को जिनदत्त, इस गच्छ के प्रवर्तक कौन थे? यह गच्छ कब अस्तित्व में राशिल्ल और जीवदेव ये तीन नाम पुनः पुनः प्राप्त होते थे, आया? इस बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती।५५ सरवाल जिससे पता चलता है कि इस गच्छ के अनुयायी चैत्यवासी रहे। जैनों की कोई ज्ञाति थी, अथवा किसी स्थान का नाम था, जहाँ बालभारत और काव्यकल्पलता के रचनाकार अमरचन्द्रसूरि, से यह गच्छ अस्तित्व में आया, यह अन्वेषणीय है। विवेकविलास व शकुनशास्त्र के प्रणेता जिनदत्तसूरि वायडगच्छ के ही थे। सुकृतसंकीर्तन का रचनाकार ठक्कुर अरिसिंह इसी
सन्दर्भ गच्छ का अनुयायी एक श्रावक था।
१. भगवतीसूत्र १५/१/५३९-६१. विद्याधरगच्छ नागेन्द्र, निर्वृत्ति और चन्द्रकुल की भाँति २. वही ९/३३/३८६-७. विद्याधरकुल भी बाद में विद्याधरगच्छ के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
अपम प्रसिद्ध हुआ। ३. कल्पसूत्रस्थविरावली २०५-२२३. इस गच्छ से संबद्ध कुछ प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं। जालिहरगच्छीय देवप्रभसूरि द्वारा रचित पद्मप्रभचरित (रचनाकाल वि.सं. १२५४/
४. नन्दीसूत्रस्थविरावली २५-४८. ई. सन् ११९८) की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि काशहद और ५. विशेषावश्यकभाष्य ३०५३ और आगे, आवश्यकभाष्य १४५ जालिहर ये दोनों विद्याधर गच्छ की शाखाएँ हैं।४९ विद्याधरगच्छ । और आगे, आवश्यकचूर्णि, प्रथम भाग, पृ. ४२७, ५८६. के संबंध में विशेष विवरण अन्वेषणीय हैं।
६. कल्पसूत्रस्थविरावली २१६-२२१. संडेरगच्छ मध्ययुगीन श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों में ७. वही संडेरगच्छ का भी प्रमुख स्थान है। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट
८. सम्बोधप्रकरण होता है संडेर (वर्तमान सांडेराव, राजस्थान) नामक स्थान से यह गच्छ अस्तित्व में आया। ईश्वरसूरि इस गच्छ के आदिम ९. . खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, संपा. जिनविजय (सिंधी जैन आचार्य माने जाते हैं। शालिसूरि, सुमतिसूरि, शांतिसूरि और ग्रंथमाला, ग्रथांक ४२, बंबई १९५६), पृ. २-३. ईश्वरसूरि ये चार नाम पुनः इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को १०. द्रष्टव्य संदर्भ संख्या १२. प्राप्त होते रहे। संडेरगच्छीय मुनिजनों द्वारा लिखित ग्रन्थों की
११. श्रीपार्श्व--अंचलगच्छदिग्दर्शन (बंबई, १९८० ई.), पृ.१०. अन्त्य प्रशस्तियों एवं उनकी प्रेरणा से लिखाए गए ग्रन्थों की दाता प्रशस्तियों में इस गच्छ के इतिहास की महत्त्वपर्ण सामग्री १२. अगरचंद नाहटा-- जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश, संकलित है। यही बात इस गच्छ से संबद्ध प्रतिमालेखों--जो यतीन्द्रसूरिअभिनंदनग्रंथ (आहोर, १९५८ ई), पृ. १४१. वि.सं. १०३९ में वि.सं. १७३२ तक के हैं, के बारे में भी कही १३. शिवप्रसाद---आगमिकगच्छ अपरनाम (प्राचीन) जा सकती है। सागरदत्तरास (रचनाकाल वि.सं. १५५०),ललितागंचरित, त्रिस्तुतिकगच्छ का इतिहास, पं. दलसुखभाई मालवणिया श्रीपालचौपाई, सुमित्रचरित्र आदि के रचनाकार ईश्वरसूरि इसी गच्छ अभिनंदनग्रंथ, वाराणसी १९९१ ई. स. पृष्ठ २४१-२८४. के थे। प्राचीन ग्रन्थों के प्रतिलेखन की पुष्पिकाओं के आधार पर ई..
१४. शिवप्रसाद--उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, श्रमण वर्ष सन की १८वीं शती तक इस गच्छ का अस्तित्व ज्ञात होता है।
४२, अंक ७-१२, पृ. ९१-१८२. सरवालगच्छ पूर्वमध्ययुगीन श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों
१५. वही, पृ. १८१-१८२. में सरवालगच्छ भी एक है। चन्द्रकुल की एक शाखा के रूप में . इस गच्छ का उल्लेख प्राप्त होता है। इस गच्छ से संबद्ध वि.सं. १६. C.D. Dalal--A Deccriptive Catalogue Of Manuscripts
in the jain Bhandars at Pattan, Gackwad's Oriental १११० से वि.सं. १२८३ तक के कुछ प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं।
Series No. LXXVI. Baroda. 1937, A.D., pp 215-6. पिण्डनियुक्तिवृत्ति (रचनाकाल वि.सं. ११६०/ई. सन् ११०४) ModidrorariandroloredroidroidroidroidroidroM२९ Hamarirrormiriibrarorridorrowarmarooritam
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