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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासआदिम आचार्य माने जाते हैं। उनके पट्टपर क्रम से सिद्धसेनसूरि, इसी कुल से संबद्ध थे। यद्यपि इस कुल या गच्छ से संबद्ध धनेश्वरसूरि और महेन्द्रसूरि ये तीन आचार्य प्रतिष्ठित हुए। यही अभिलेख वि.सं. की १६वीं शती तक के हैं, परंतु उनकी संख्या चार नाम इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को पुनः-पुनः प्राप्त न्यून ही है। होते रहे। इस गच्छ के मुनिजनों की प्रेरणा से वि.सं. १२७२ में
इस गच्छ के आदिम आचार्य कौन थे, यह गच्छ कब
, बृहत्संग्रहणीपुस्तिका और वि.सं. १५९२ में षट्कर्मअवचूरि की
अस्तित्व में आया, इस बारे में उपलब्ध साक्ष्यों से कोई जानकारी प्रतिलिपि कराई गई। यह बात उनकी दाताप्रशस्ति से ज्ञात होती
नहीं मिलती। यद्यपि पट्टावलियों में नागेन्द्र, चन्द्र और विद्याधर है। गच्छ से संबद्ध यही साहित्यिक साक्ष्य आज प्राप्त होते हैं।
कुलों के साथ इस कुल की उत्पत्ति का भी विवरण मिलता है, इसके विपरीत इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में जिन प्रतिमाएँ
किन्तु उत्तरकालीन एवं भ्रामक विवरणों से युक्त होने के कारण ये मिली हैं, जो वि.सं. ११०२ से वि.सं. १५९९ तक की हैं। इससे
पट्टावलियाँ किसी भी गच्छ के प्राचीन इतिहास के अध्ययन के प्रतीत होता है कि इस गच्छ के मुनिजन पठन-पाठन की ओर से
लिए यथेष्ट प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती है। महावीर की परंपरा प्रायः उदासीन रहते हुए जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा और चैत्यों की
में निवृत्तिकुल का उल्लेख नहीं मिलता, अतः क्या यह पापित्यों
में देखरेख में ही प्रवृत्त रहते थे। श्रावकों को नूतन जिनप्रतिमाओं के ।
की परंपरा से लाटदेश में निष्पन्न हुआ, यह अन्वेषणीय है। निर्माण की प्रेरणा देना ही इनका प्रमुख कार्य रहा। सुविहितमार्गीय मुनिजनों के बढ़ते हुए प्रभाव के बावजूद चैत्यवासी गच्छों का
पल्लीवालगच्छ पल्ली (वर्तमान पाली, राजस्थान) नामक लंबे समय तक बने रहना समाज में उनकी प्रतिष्ठा और महत्त्व
स्थान से पल्लीवाल ज्ञाति और श्वेताम्बरों ने पल्लीवालगज्छ
की उत्पत्ति मानी जाती है। इस गच्छ से संबद्ध साहित्यिक और का परिचायक है।
अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। कालिकाचार्यकथा निवृत्तिगच्छ निर्ग्रन्थ दर्शन के चैत्यवासी गच्छों में
(रचनाकाल वि.सं. १३६५) के रचनाकार महेश्वरसूरि, निवृत्तिकुल (बाद में निवृत्तिगच्छ) भी एक है। पर्युषणाकल्प
पिण्डविशुद्धिदीपिका (रचनाकाल वि.सं. १६२७), उत्तराध्ययन की स्थविरावली में इस कुल का उल्लेख नहीं मिलता। इससे
बालावबोधिनीटीका (रचनाकाल वि.सं. १६२९) और
बा. प्रतीत होता है कि यह कुल बाद में अस्तित्व में आया। इस कुल आचारांगदीपिका के रचयिता अजितदेवसरि इसी गच्छ से संबद्ध का सर्वप्रथम उल्लेख अकोटा से प्राप्त धातु की दो प्रतिमाओं थे। पल्लीवालगच्छ से संबद्ध जो प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं. वे पर उत्कीर्ण लेखों में प्राप्त होता है। उमाकांत पी. शाह ने इन
वि.सं. १३८३ से वि.सं. १६८१ तक के हैं। इस गच्छ की एक लेखों की वाचना इस प्रकार दी है३७--
पट्टावली भी प्राप्त हुई है, जिसके अनुसार यह गच्छ चन्द्रकुल से १. ॐ देवधर्मोयं निवृ(t)त्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य। उत्पन्न हुआ है। २. ॐ निवृ(व)त्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य।
पूर्णतल्लगच्छ-चंद्रकुल से उत्पन्न गच्छों में पूर्णतल्लगच्छ शाह ने इन प्रतिमाओं का काल ई. सन ५५० से ६०० के भी एक है। इस गच्छ में जिनदत्तसरि, यशोभद्रसरि, प्रद्यम्नसरि, मध्य माना है। दलसुख भाई मालवणिया के अनुसार वाचनाचार्य गुणसेनसूरि, देवचन्द्रसूरि, कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि, और क्षमाश्रमण समानार्थक शब्द हैं, अत: जिनभद्रवाचनाचार्य अशोकचन्द्रसूरि, चन्द्रसेनसूरि, रामचन्द्रसूरि, गुणचन्द्रसूरि, और प्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण एक ही व्यक्ति बालचन्द्रसूरि आदि कई आचार्य हुए।३९ तिलकमंजरीटिप्पण, माने जा सकते हैं।
जैनतर्कवार्तिकवृत्ति आदि के रचनाकार शांतिसूरि इसी गच्छ के उपमितिभवप्रपंचाकथा (रचनाकाल वि.सं. ९६२/ई..
थे। देवचंद्रसूरि ने स्वरचित शांतिनाथचरित (रचनाकाल वि.सं. सन् ९०६), सटीकन्यायावतार, उपदेशमालाटीका के रचनाकार ११६०/. सन् ११०४) का
चनाकार ११६०/ई. सन् ११०४) की प्रशस्ति में अपनी गुरु-परंपरा का सिद्धर्षि, चउपन्नमहापुरुषचरियं (रचनाकाल वि.सं. ९२५/ई. सन्
उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है-- ८६९) के रचनाकार शीलाचार्य अपरनाम विमलमति अपरनाम
यशोभद्रसूरि शीलाङ्क, प्रसिद्ध ग्रन्थसंशोधक द्रोणाचार्य सूराचार्य आदि भी
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