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श्री अखिल-भारतीय जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीसंघ सम्मेलन के
प्रस्ताव
श्री अखिल-भारतीय जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीसंघ समिति
अहमदाबाद
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वि. सं. २०१९, चैत्र कृष्णा ४, ५, तारीख १३, १४, अप्रेल १९६३,
शनि-रविवार को अहमदाबादमें सम्मिलित श्री अखिल-भारतीय जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमणोपासक श्रीसंघ सम्मेलन द्वारा सर्वानुमति से
स्वीकृत प्रस्ताव
प्रस्ताव पहला श्री अखिल भारतीय श्रमणोपासक संघ का यह सम्मेलन मानता है कि जैनधर्म वीतराग देव, मौलिक और विपुक ज्ञानसमृद्धि, पंचाचार के पालक, त्यागी और ज्ञानी गुरुओं एवं जीवनशोधक आचार के बल पर ही अद्यापि पर्यन्त टीका हुआ है और विषम परिस्थितियों में भी इसने अपने गौरव को बनाये रक्खा है। अतः हमारे पवित्र तीर्थस्थानों एवं जिनमंदिरों की यथावत् सुरक्षा होती रहे, हमारे ज्ञानभंडारों का संरक्षण एवं उनका उपयोग होता रहे, हमारे पूज्य श्रमणसमुदाय की पवित्रता एवं प्राभाविकता बनी रहे, और हमारे धर्म के आचारकी उच्च प्रणालिका में किसी प्रकारकी क्षति न आने पावे-इसके लिये सजग होकर प्रयत्न करना समस्त श्रीसंघ का पवित्र कर्तव्य है।
आज के विषम समय में, जब कि लोगों का आकर्षण भौतिक भोगोपभोग की ओर बढ़ रहा है, अनंत उपकारी भगवान श्री जिनेश्वरदेव द्वारा प्ररूपित मोक्षमार्ग की आराधना करने में दत्तचित्त रहनेवाले कई पूज्य साधु-साध्वीजी महाराज सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपकी आराधना कर रहे हैं, उनकी यह सम्मेलन बहुमानपूर्वक अनुमोदना करता है, और घोषित करता है कि ऐसे साधुसाध्वियों से ही श्री जैन शासन उज्ज्वल और प्रतिभासंपन्न हो रहा है।
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... फिर भी, कालादिदोष के कारण, हमारे पूज्य श्रमणसमुदाय में कहीं कहीं कुछ त्रुटियाँ प्रविष्ट हो गई हैं और अमुक साधुसाध्वी जैन श्रमणत्व के अनुरूप जो विचारशुद्धि, वाणीशुद्धि व आचारशुद्धि होनी चाहिए, उसकी उपेक्षा करते हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं। अगर उनकी इन क्षतियोंको न रोका जाय तो पूज्य सुविहित साधु-साध्वियों की प्रतिष्ठा के साथ ही साथ जैन शासन की प्रतिष्ठाको भी हानि पहुंचने की संभावना है।
पूज्य श्रमणसमुदाय की आचारशुद्धि में चतुर्थ और पंचम महाव्रत के पालन की तत्परता महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, क्यों कि चतुर्थ और पंचम महाव्रत के पालन की शिथिलता जैनेतरों की दृष्टि में भी जैन शासन को हीन दिखानेवाली हो जाती है। और पंच महाव्रतोंमें से इन अन्तिम दो महाव्रतों का भंग होने पर शेष प्रथम तीनों महाव्रतों का भंग भी अनिवार्य रूपसे हो जाता है।
और एसा होने से साधुजीवनकी नींव ही हिल जाती है। अतः पूज्य आचार्य महाराजों, या उस उस समुदाय के नायक मुनिराजों, एवं विभिन्न साध्वीसमुदायोंकी प्रवर्तिनियों से निम्न लिखित बातों का दृढता और निष्ठापूर्वक अमल करने की प्रार्थना की जाती है :
(१) दीक्षार्थी की पसंदगी व नवदीक्षित की सारसंभाल
दीक्षा यह अहिंसा, संयम और तपप्रधान जैनधर्म द्वारा कही गई आत्मसाधना का सर्वश्रेष्ठ साधन है। और उसकी पवित्रता के ऊपर ही जैनधर्म, जैन संघ और जैन संस्कृति की पवित्रता
और प्रभावनाका आधार है। अतः नवदीक्षित साधु-साध्वीजी महाराज, अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, मन-वचन-काया की सावद्य प्रवृत्तियों से दूर रहकर, विशुद्ध आचारपालन द्वारा अपनी आत्मसाधक संयमयात्रा में अप्रमत्त होकर आगे बढ़ते रहें और श्रमणसमुदाय की शिथिलता को बढ़ाने में जरा भी योग न दें, इसके लिए दीक्षार्थियों की पसन्दगी के विषय में एवं नवदीक्षितों की सार
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संभाल रखने के बारे में निम्न बातों पर पूर्ण ध्यान देने की आवश्यकता है:(अ) किसी भी दीक्षार्थी भाई या बहन की दीक्षा लेने की भावना,
उसकी वैराग्यवृत्ति, एवं तत् संबन्धी अन्य बातों की पूरी जांचपडताल करने पर वह व्यक्ति दीक्षा देनेके योग्य मालूम हो तभी उसे दीक्षा दी जाय। दीक्षा प्रशस्त स्थान में, जाहिर तौर पर, शुभ मुहूर्त में होनी चाहिये । और जिस गाँव में दीक्षा देनी हो उस गाँव के उपाश्रय के व्यवस्थापकों का सहकार प्राप्त कर के दीक्षा देनी चाहिये। और दीक्षार्थी के माता, पिता, भगिनी, भार्या आदि निकटके स्वजन-संबन्धियों की अनुमति प्राप्त करने के बाद दीक्षा देनी चाहिये; किन्तु अनुमति प्राप्त करने के लिए योग्य प्रयत्नों के बावजूद भी किसी हठाग्रह वश अनुमति न मिल सके तो, ऐसी अवस्था में, अपवादरूप में बिना अनुमति दीक्षा ली जा सकती है। दीक्षार्थी को, अपनी शक्ति के अनुसार, अपने वृद्ध माता-पिता, स्त्री और छोटे पुत्र-पुत्रियों के जीवननिर्वाह की व्यवस्था करनी चाहिये । दीक्षादाता को दीक्षार्थी में अठारह दोषों में से कोई दोष न हो इस बातका खयाल होना चाहिये; और पदस्थ, बुजुर्ग या गुरु इन तीनों
में से किसी एक को पूछे बिना दीक्षा नहीं देनी चाहिये। (आ) एक साधुमहाराज या साध्वीजी से एक बार दीक्षित हुआ
व्यक्ति अन्य के पास दीक्षा लेने पहुंचे तो उन्होंने दीक्षा छोडने के कारण की तथा उस व्यक्ति की दीक्षा लेने की भावना के गुणदोषों की पर्याप्त जांच करने के बाद, एवं प्रथम दीक्षा देने वाले गुरु अथवा आर्या से पूछकर, उसे दीक्षा देनी चाहिये । तात्पर्य यह है कि दीक्षा एक धर्मसाधना का अमूल्य साधन बना रहे एवं भागवती दीक्षा का गौरव पूरी तरह सुरक्षित रहे, इसी ढंग से दीक्षा दी जाय ।
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(इ) नवदीक्षित साधु अथवा साध्वीजी अपने संयम और वैराग्य
में बराबर स्थिर हो कर जबतक परिपक्व अवस्था में न आ जाय तबतक वे जनसंपर्क से दूर व अलिप्त रह कर, अपने क्षयोपशम की वृद्धि करते हुए, धर्मशास्त्रों का एकाग्रता - - पूर्वक अध्ययन करे इसके वास्ते विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये । और इस कार्यके लिये श्रीसंघने आवश्यक सुविधा भी कर देनी चाहिये ।
( २ ) चतुर्थ महाव्रत के बारे में
महाव्रत की किसी भी प्रकार की क्षति को निभा लेना महादोष को पनपनेका अवसर देने जैसी महा भूल | जीवन में इस दोष के घुस जाने से साधुजीवन की नींव ही हिल जाती है, और जीवन दूषित बन जाता है। इस लिए श्रमणसमुदाय के किसी भी व्यक्ति में यह क्षति देखने में आवे तो उसकी जांच कर उस व्यक्ति को साधुसंघ से अलग कर देना चाहिये । इस दोष के लिए, अन्य कारणों की तरह, श्रमणोपासकवर्ग के साथ विवेकशून्य घनिष्ठ संबन्ध यां दृष्टिराग भी बहुत जिम्मेदार है । अतः निम्न बातों की ओर पूर्ण ध्यान देकर उनका पालन किया जाना आवश्यक है :
चतुर्थ यह तो इस
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(अ) साधु - मुनिराजों को व्याख्यान और सार्वजनिक प्रसंगों के सिवाय कभी बहनों के साथ परिचय नहीं रखना चाहिये ।
( आ ) साध्वियों से भी व्याख्यान और सार्वजनिक प्रसंगों में ही मिला जाय; और उनके साथ भी कम से कम परिचय रखा जाय; और उनसे निजी कोई कार्य करवाया न जाय ।
( इं ) श्रीसंघ में एकलविहारी साधुओं को किसी भी प्रकार का प्रोत्साहन मिलना नहीं चाहिये । जो साधु एकलविहारी हो कर स्वच्छन्दपूर्ण वर्ताव करते हों, उन्हें उस समुदाय के गणनायक समझा-बुझाकर अपने संघ में सम्मिलित कर लें,
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और ऐसा करके उन्हें उनके जीवन में प्रविष्ट शिथिलता कां निवारण करने का अवसर दें। इसके बावजूद भी जो एकलविहारी साधु समझने को तैयार न हो उसका समस्त श्रीसंघ हरतरहसे बहिष्कार कर दे। (वृद्धावस्था के कारण जिन साधु-मुनिराजों को अकेले रहना अनिवार्य हो उनके लिए यह नियम लागू नहीं होता है।)
(३) पंचम महाव्रत के बारेमें साधुजीवन के प्राणरूप त्यागमार्ग के विकास का मुख्य आधार पांचवे अपरिग्रह महाव्रत के विशुद्ध पालन पर ही है। और इस महाव्रत में क्षति आ जाने से जीवन में अनेक क्षतियाँ दाखिल हो जाती हैं। अतः निम्न बातों का पूरा पालन करने की बिनती की जाती है :(अ) श्रमणसमुदाय के किसी भी व्यक्ति को परिग्रहशीलता की
जड मूर्छा को चित्त में जागृत करने वाली किसी भी वस्तु को अपने स्वामित्व में रखने का या उसका संग्रह करने का
प्रमाद नहीं करना चाहिये। (आ) मूर्छा और परिग्रह का सबसे बड़ा कारण पैसा है। इस
लिये श्रमणसमुदाय के प्रत्येक व्यक्ति को सदा अप्रमत्त हो कर पैसे के मोह से सर्वथा दूर रहना चाहिये। और पुस्तकों के निमित्त, ज्ञान के अन्य उपकरणों के निमित्त, पुस्तकालय के निमित्त, ग्रन्थमाला के निमित्त, ज्ञानशाला या ज्ञानमन्दिर के नाम, अथवा अन्य किसी कार्य के निमित्त किसी भी आचार्य आदि साधु महाराज ने या साध्वीजी महाराज ने, जिस पर वस्तुतः अपना अधिकार हो, ऐसी कोई भी रकम किसी भी नाम से, किसी भी गृहस्थ के यहाँ या पेढी में
या संस्था में जमा नहीं रखना चाहिये। (इ) जो श्रमणोपासक भक्ति से प्रेरित होकर, धर्म की सही समझ न
होने के कारण अथवा अन्य किसी कारण को लेकर इस प्रकार
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की रकमको अपने यहाँ जमा रखते हैं वे साधु-साध्वियों के व्रतभंग के दोष के भागीदार तो होते ही हैं, साथ ही साथ वे स्वयं भी दोषपात्र बन जाते हैं, और अपने ही हाथों से अपने धर्म की अवहेलनाका निमित्त बनते हैं। इस लिए सभी श्रावकबन्धुओं ने इस प्रकारकी अधर्मकी भागीदारी से शीघ्र ही अलग हो जाना चाहिये। इस पर भी जो व्यक्ति ऐसा अनुचित सहयोग देना जारी रखें वैसे व्यक्तिओं के
नाम प्रकाश में लाये जाय। (उ) ज्ञानभंडारों को श्रमणसमुदायमें से किसी एक व्यक्ति की
मालिकी के नहीं बल्कि श्रीसंघ के अधिकार में रखे ___ जाय; और योग्य व्यक्ति उसका उपयोग सरलता से कर
सके ऐसी व्यवस्था की जाय। (ऋ) किसी भी आचार्य महाराज या मुनिराज के तत्त्वावधान में
किये जानेवाले उपधान, उद्यापन या अन्य किसी भी प्रकार के धार्मिक उत्सवों पर देव द्रव्य में अथवा अन्य किसी भी खाते में जो कुछ आमदनी हो उसका व्यय, वह आमदनी सम्बन्धित ट्रस्ट की या व्यवस्थापक समिति की है ऐसा मान कर, उस ट्रस्ट या व्यवस्थापक समिति द्वारा ही किया जाय ।
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प्रस्ताव दूसरा श्रावकसंघ की कुछ त्रुटिया दूर करने के बारे में
श्री श्रमणोपासकसंघ अर्थात् श्रावकसंघ जैन संघ का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। और श्रीसंघ की सभी धार्मिक, सामाजिक और शैक्षणिक संस्थाओं की छोटी-बडी रकमों की व्यवस्था इन्हीं के हस्तगत है। इस लिए किसी भी श्रावकभाई की अकुशलता, बेदरकारी या स्वार्थपरायणता के कारण श्रीसंघकी किसी भी संस्थाको आर्थिक हानि न उठानी पडे या उसके संचालन में किसी प्रकार की त्रुटि न रहने पावे, और उसमें जो त्रुटि आ गई हो, वह शीघ्र दूर हो जाय इसके लिए आवश्यक कदम उठानेकी खास जरूरत इस सम्मेलन को प्रतीत होती है। अतः इन त्रुटियों को दूर करने के लिए निम्न बातों को अमल में लाना आवश्यक है :(अ) कोई भी श्रावकभाई किसी भी धार्मिक या धर्मादा संस्था के
रूपये अपने यहाँ जमा न रखे । (आ) श्रीसंघ की धार्मिक, सामाजिक या शैक्षणिक जिस जिस
संस्था का संचालन त्रुटिपूर्ण हो अथवा जिस किसी संस्था में गैरव्यवस्था या गैररीति चलती हो तो उस संस्थाने उसमें शीघ्र ही सुधार कर लेना चाहिये। अगर वह संस्था इस प्रकार सुधार
न करे तो श्रीसंघ समिति उसके लिए उचित कार्यवाही करे। (इ) हमारे मन्दिरों, उपाश्रयों, धर्मशालाओं आदि के निर्माणकार्य
में अकसर कार्यकर्ताओं की अकुशलता और अनुभवहीनता के कारण, विवेक बिना बहुत से द्रव्य का दुर्व्यय हो जाता है। श्रीसंघके द्रव्य के ऐसे दुर्व्यय को रोकने के लिए शीघ्र ही कदम उठायें जाय। और इसके वास्ते, एक व्यवहार्य योजना के रूपमें, सेठ आनन्दजी कल्याणजी की पेढीने सुयोग्य सलाह व मार्गदर्शन के लिए जो व्यवस्था की है उसका ऐसे कार्य करने के समय अवश्य लाभ उठाया जाय ।
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प्रस्ताव तीसरा श्रीसंघ समिति की स्थापना के बारे में जैनधर्सने हमेशां आचारशुद्धि-अर्थात् जीवनशुद्धि और , व्यवहारशुद्धि-पर भार दिया है; और जब जब श्रमणसमुदाय में या चतुर्विध संघ के किसी भी अंग में किसी प्रकार की शिथिलता प्रविष्ट होती मालूम हुई है, तब तब हमारे आचार्य महाराजों आदि समर्थ पूज्य पुरुषों ने अपने प्रबल पुरुषार्थ से उसे दूर कर संघशुद्धि और धर्मशुद्धि को बनाये रखा है। समय समय पर किये गये इस प्रकार के पुरुषार्थ से ही जैनधर्म, जैन संघ और जैन संस्कृति का गौरव आज तक टिका हुआ है। ___श्री अखिल-भारतीय जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमणोपासक श्रीसंघ का यह सम्मेलन दृढता और श्रद्धापूर्वक मानता है कि श्रमणसमुदाय में कहीं कहीं घुसी हुई शिथिलता का विचार करना, उस शिथिलता को दूर करने के उपायों को खोजना और उस पर अमल करना, यह केवल श्रमणसमुदाय का अर्थात् आचार्य महाराजों आदि साधुसमुदाय का ही कार्य है।
पिछले तीन वर्षों में हमारे संघ के कुछ अग्रणी सद्गृहस्थोंने इस चिन्ताजनक परिस्थिति के विषय में और उसे दूर करने के उपायों के विषय में अनेक पूज्य आचार्य महाराजों से एवं भिन्न भिन्न शहरों के जैन अग्रणियों से काफी विचार-विमर्श किया है। इस विचार-विमर्श के समय सबने यह हार्दिक भावना व्यक्त की है कि इस संबन्ध में अवश्य कुछ उपाय किये जाने चाहिये । और इस . भावना को कुछ कार्यान्वित करने के पवित्र उद्देश्य से ही यह सम्मेलन बुलाया गया है।
यह सम्मेलन दृढतापूर्वक मानता है कि इस शिथिलता को दूर करने के लिए जैन संघ द्वारा अविलंब उपाय किये जाने चाहिये; साथ ही जैन संघ के संगठन में जो क्षतियाँ आ गई हैं और
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श्रावकसंघ में भी जो त्रुटियाँ आ गई हैं, उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना ही चाहिये ।
परिस्थिति और समय को पहचान कर पूज्य आचार्यमहाराज आदि साधुसंघ स्वयं यह कार्य करे यही सच्चा मार्ग है; फिर भी, एक या दूसरे कारणों से, ऐसा न हो सके तो आखिरकार परिस्थिति की अनिवार्यता को पहचान कर, अपनी पूर्ण अनिच्छा होते हुए भी, पूर्ण संकोच के साथ, श्रावकसंघ ने इस कार्य की जिम्बेदारी अपने ऊपर लेने की तत्परता दिखानी ही चाहिये । इसी लिए यह सम्मेलन बुलाया गया है, और उसके उपायों पर विचार करना आवश्यक और उचित माना गया है ।
उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए उचित कदम उठाने के लिए 'श्री अखिल भारतीय जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीसंघसमिति " की इस प्रस्ताव से स्थापना की जाती है ।
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इस समिति की और उसके कार्य की सामान्य रूपरेखा निम्न प्रकार है
-:
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( 9 ) नाम : इस समिति का नाम श्री अखिल भारतीय जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीसंघ समिति ” रहेगा । इसका संक्षिप्त नाम श्रीसंघ समिति अथवा समिति " रहेगा ।
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(२) सदस्य : मुख्य मुख्य शहरों और गावों के श्रीसंघ द्वारा निर्धारित प्रतिनिधि एवं विशिष्ट प्रभावशाली जैन अग्रणी, जिन्हों की इस समय तथा भविष्य में नियुक्ति की जाय, इस समिति के सदस्य रहेंगे ।
(३) कार्यकारिणी समिति : श्रीसंघसमिति के संचालन के लिए निम्न सात सदस्यों की कार्यकारिणी समिति निश्चित की जाती है । कार्यकारिणी समिति में जो जगह खाली होगी उसके स्थान की पूर्ति कार्यकारिणी समिति के शेष सदस्य करेंगे :
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(१) सेठ श्री कस्तुरभाई लालभाई
(२) सेठ श्री केशवलाल लल्लुभाई झवेरी (३) सेठ श्री छोटालाल त्रिकमलाल पारेख (४) सेठ श्री अमृतलाल कालिदास दोशी (५) सेठ श्री बाबुभाई छगनलाल श्रोफ (६) सेठ श्री मोतीलाल वीरचंद शाह (७) सेठ श्री मनसुखलाल चुनीलाल महेता
कार्यकारिणी समिति चार सदस्यों को को-ओप्ट करेगी । कार्यकारिणी समिति की सभा का कोरम चार सदस्यों का होगा । और जो सदस्य, बिना अनुमति के, लगातार तीन बैठक में अनुपस्थित रहेगा उसके स्थान पर नये सदस्य की नियुक्ति की जायगी। अपनी कार्यवाही के लिए कार्यकारिणी समिति आवश्यक नियम और उपनियम बना सकेगी।
(४) कार्यालय : समिति का कार्यालय अहमदाबाद में रहेगा और उसका खर्चा, संचालन आदि की व्यवस्था कार्यकारिणी समिति करेगी ।
(५) प्रादेशिक समितियाँ : अपने कार्य को यथावत् पूर्ण करने के लिए कार्यकारिणी समिति अमुक अमुक शहरों में एवं अमुक अमुक गाँवों की बनी हुई प्रादेशिक समितियों की रचना करेगी । (६) कार्यक्षेत्र :
(अ) श्रमणसंघ में जहाँ कहीं प्रथम प्रस्ताव में निर्दिष्ट क्षतियाँ ज्ञात होंगी, समिति उन्हें दूर करने का प्रयत्न करेगी। इसके लिए साधुसमुदाय में से अथवा श्रावकवर्ग में से जिस किसी को ऐसी जो भी क्षति मालूम पडे उसकी सूचना वह कार्यकारिणी समितिको दे । समिति को पता लगने पर वह उसकी उचित जाँच करेगी और संबन्धित साधुसमुदाय के आचार्य महाराज आदि नायक को इस मामले से अवगत
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करके, उन्हें उस व्यक्ति के लिए उचित कार्यवाही करने की बिनती करेगी। किन्तु यदि इस बारे में उचित कदम न उठाया गया तो समिति, उस विभाग की प्रादेशिक समिति की सलाह से, ऐसी क्षति करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध आवश्यक
कार्यवाही करेगी। (आ) समिति श्रावकसंघ के संचालन में जहाँ कहीं भी त्रुटियाँ
देखी जायेगी उन्हें दूर करने का, और अव्यवस्थित चलनेवाली संस्था को व्यवस्थित करने का, तथा श्रीसंघ को उसकी वास्तविक स्थिति से अवगत करने का सब प्रकार से
प्रयत्न करेगी। (इ) श्रीसंघ की एकता को हानि पहुंचानेवाली हरेक परिस्थिति
व प्रवृत्ति को दूर कर श्रीसंघ संगठित बने, इसके लिए
समिति द्वारा आवश्यक सभी उपाय किये जायेंगे। (उ) हर प्रकार से जैनधर्म की प्रभावना बढे इसके लिए समिति
सदा प्रयत्नशील रहेगी। (ऋ) श्रावकसंघ की धर्मभावना स्थिर रहे, उसमें अभिवृद्धि होती
रहे, और उसका अभ्युदय हो ऐसे उपायों को सोच कर
समिति उन्हें अमल में लायेगी। यह सम्मेलन अन्तःकरणपूर्वक चाहता है और आशा करता है कि अनेक आचार्य महाराजों एवं कई जैन अग्रणियों की हार्दिक भावना की प्रतिध्वनि के फलस्वरूप निर्मित इस समिति को पूज्य आचार्य महाराजों आदि श्रमणसमुदाय के आशीर्वाद एवं श्रमणोपासक श्रीसंघ की शुभेच्छाएं प्राप्त होंगी और समिति के द्वारा उठाई गई महान जिम्मेदारियों को संपन्न करने में उन सबका सम्पूर्ण साथ व सहयोग रहेगा। ___अंत में, यह सम्मेलन अन्तःकरणपूर्वक यह चाहता है और प्रार्थना करता है कि श्रमणसमुदाय में कहीं कहीं जो शिथिलता
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शिर हो रही है, उसे दूर करने की जिम्मेदारी शीघ्रातिशीघ्र आमासमुदाय स्वयं उठा ले, और श्रीसंघ समिति के सिर से यह जिमोदारी निकट भविष्य में ही दूर हो जाय। ....समस्त श्रीसंघ के पुरुषार्थ से इस प्रकार की सभी श्रुटियाँ शीघ्र निर्मूल हो कर जैनधर्म, जैन संघ और जैन संस्कृति के प्रभाव व गौरव में खूब अभिवृद्धि होती रहे, और विश्व के आज के हिंसामान्य और संक्षुब्ध वातावरण में जैन संस्कृति का "मित्ती मे सबभूऐसु" का विश्वमैत्री का अमर सन्देश फैलाकर हम हमें प्राप्त जैनधर्म की अहिंसा की भावना की प्रभावना करें। ___ शासनदेव हमें ऐसे बुद्धि और बल दे, इस हार्दिक भावना
और प्रार्थना के साथ यह सम्मेलन इस प्रस्ताव से "श्रीसंघ समिति" की स्थापना करता है। [गुजरातीसे अनूदित]
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________________ प्रकाशक : केशवलाल लल्लुभाई झवेरी : श्री अखिल-भारतीय जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक श्रीसंघ समिति, सेठ लालभाई दलपतभाईका वंडा, पानकोर नाका, अहमदाबाद-१ (गुजरात राज्य) मुद्रक : कान्तिलाल मोतीलाल देसाई : चन्द्रिका प्रिन्टरी, मिरजापुर रोड, अहमदाबाद।