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(इ) नवदीक्षित साधु अथवा साध्वीजी अपने संयम और वैराग्य
में बराबर स्थिर हो कर जबतक परिपक्व अवस्था में न आ जाय तबतक वे जनसंपर्क से दूर व अलिप्त रह कर, अपने क्षयोपशम की वृद्धि करते हुए, धर्मशास्त्रों का एकाग्रता - - पूर्वक अध्ययन करे इसके वास्ते विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये । और इस कार्यके लिये श्रीसंघने आवश्यक सुविधा भी कर देनी चाहिये ।
( २ ) चतुर्थ महाव्रत के बारे में
महाव्रत की किसी भी प्रकार की क्षति को निभा लेना महादोष को पनपनेका अवसर देने जैसी महा भूल | जीवन में इस दोष के घुस जाने से साधुजीवन की नींव ही हिल जाती है, और जीवन दूषित बन जाता है। इस लिए श्रमणसमुदाय के किसी भी व्यक्ति में यह क्षति देखने में आवे तो उसकी जांच कर उस व्यक्ति को साधुसंघ से अलग कर देना चाहिये । इस दोष के लिए, अन्य कारणों की तरह, श्रमणोपासकवर्ग के साथ विवेकशून्य घनिष्ठ संबन्ध यां दृष्टिराग भी बहुत जिम्मेदार है । अतः निम्न बातों की ओर पूर्ण ध्यान देकर उनका पालन किया जाना आवश्यक है :
चतुर्थ यह तो इस
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(अ) साधु - मुनिराजों को व्याख्यान और सार्वजनिक प्रसंगों के सिवाय कभी बहनों के साथ परिचय नहीं रखना चाहिये ।
( आ ) साध्वियों से भी व्याख्यान और सार्वजनिक प्रसंगों में ही मिला जाय; और उनके साथ भी कम से कम परिचय रखा जाय; और उनसे निजी कोई कार्य करवाया न जाय ।
( इं ) श्रीसंघ में एकलविहारी साधुओं को किसी भी प्रकार का प्रोत्साहन मिलना नहीं चाहिये । जो साधु एकलविहारी हो कर स्वच्छन्दपूर्ण वर्ताव करते हों, उन्हें उस समुदाय के गणनायक समझा-बुझाकर अपने संघ में सम्मिलित कर लें,